पैगंबर हज़रत मुहम्मद की कहानी

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पैगंबर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की कहानी

पैगंबर मुहम्मद (स.अ) कौन थे

यक़ीनन आपको मालूम होगा कि हमारे नबी पाक हज़रत मुहम्मद (स.अ) इस दुनिया में उस वक़्त तशरीफ़ लाये जब इस दुनिया में अंधेरा ही अंधेरा था लेकिन आप ने अल्लाह के हुक्म से इस दुनिया को नूर से भर दिया, औरत, गुलाम, बांदी, मा बाप, बेटियों, औलाद यहाँ तक कि जानवरों के अधिकार आप ने बताये, और खुद कमजोरों का सहारा बने, यतीमों के सर पर हाथ रखा, और मालदारों को बताया कि ग़रीबों की मदद से अल्लाह खुश होते हैं।

एक इंसान जो अपनी ताकत के घमंड में लोगों के अधिकार मार लेता था वही इंसान लोगों को ढूंढ ढूंढ कर हक़ पहुँचाने वाला बन गया, एक इंसान जो ख़ुद को और दूसरों को नुकसान पहुँचाने से बिलकुल बाज नहीं आता था, वो फ़ायदा पहुँचाने वाला बन गया, दुनिया से ज़्यादा आख़िरत की तैयारी में लग गए।

नबी मुहम्मद (स.अ) की पैदाइश

अल्लाह तआला की तरफ से भेजे गए इसानों और जिन्नातों की हिदायत कर सामान लेकर आए पैगम्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की पैदाइश मुबारक तारीख: 12, दिन: सोमवार, साल: 570 ईस्वी, जगह: मक्का (सउदी अरब), वक़्त: सुबह सादिक आप की पैदाइश पर दादा अब्दुल मुत्तलिब को बेहद खुशी हुई उन्होंने एक भेड़ जबह किया और अपने पोते का नाम मुहम्मद ( जिसकी तारीफ की जाये) रखा।

वालिद साहब हज़रत अब्दुल्ला का इन्तिकाल

आप की पैदाइश से कुछ महीने पहले ही मदीने के एक सफर मे वालिद अब्दुल्लाह का इन्तिकाल हो गया।

आप (स.अ) को दूध पिलाने के दिन

पैदाइश के तीन चार दिन तक तो खुद आप की वालिदा ने ही दूध पिलाया फिर चचा अबू लहब की बंदी सुवैबा ने आप को दूध पिलाया, सुवैबा के बाद दूध पिलाने की सआदत हजरत हलीमा सादिया के हिस्से में आई।

हुआ ये कि मक्का में ये रिवाज था कि माँ बाप अपने बच्चों को दूध पिलाने और शरुआती परवरिश के लिए शहरों से ज्यादा देहातों में रखना ज्यादा पसंद करते थे ताकि देहात की साफ हवा के बीच उनकी परवरिश हो इसी रिवाज के मुताबिक मुहम्मद स.अ. को हलीमा सादिया के साथ बनू साद कबीले में भेज दिया गया था जहाँ आप पांच साल तक हजरत हलीमा सादिया के साथ रहे।

वालिदा हज़रत आमिना का इन्तेक़ाल

जब आप 6 साल के हुए तो आप मुहम्मद स.अ. को लेकर आपकी वालिदा हजरत आमिना अपने ननिहाली रिश्तेदारों से मिलने गयीं, उन के साथ उम्मे ऐमन भी थी वहां से वापसी पर एक जगह जिसका नाम अबवा था वहीं पर हजरत आमिना का इन्तेकाल हो गया।

दादा-चाचा की परवरिश में

वालिदा के इन्तिकाल के बाद 74 वर्ष के बूढें दादा ने पाला पोसा। जब आप आठ वर्ष के हुये तो दादा भी 82 वर्ष की उम्र में चल बसे। इसके बाद चाचा “अबू तालिब” और चाची “हाला” ने परवरिश का हक अदा कर दिया। नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सब से अधिक परवरिश (शादी होने तक) इन्ही दोनों ने की।

आपका बचपन

आपने अपना बचपन और बच्चों से भिन्न गुज़ारा। आप बचपन ही से बहुत शर्मीले थे। आप में आम बच्चों वाली आदतें बिल्कुल ही नही थीं। शर्म और हया आपके अन्दर कूट-कूट कर भरी हुयी थी।

काबा शरीफ़ की मरम्मत के ज़माने में आप भी दौड-दौड कर पत्थर लाते थे जिससे आपका कन्धा छिल गया। आपके चाचा हज़रत अब्बास ने ज़बरदस्ती आपका तहबन्द खोलकर आपके कन्धे पर डाल दिया तो आप मारे शर्म के बेहोश हो गये।

दायी हलीमा के बच्चों के साथ खूब घुल-मिल कर खेलते थे, लेकिन कभी लडाई- झगड़ा नही किया। उनैसा नाम की बच्ची की अच्छी जमती थी, उसके साथ अधिक खेलते थे।

दाई हलीमा की लडकी शैमा हुनैन की लडाई में बन्दी बनाकर आपके पास लाई गयी तो उन्होने अपने कन्धे पर दांत के निशान दिखाये, जो आपने बचपन में किसी बात पर गुस्से में आकर काट लिया था।

पैगम्बर मुहम्मद (स.अ) के अखलाक़

एक ऐसे मुल्क में जहाँ न कोई हुकूमत हो और न कोई कानून, जहाँ बात बात पर कत्ल करना किसी का खून बहाना मामूली बात हो, ऐसे माहौल में नबी के अखलाक की चमक जाहिर हुई तो न सिर्फ उसने लोगों के दिलों को रौशन किया बल्कि आप मुहम्मद स.अ. की जिन्दगी के वाकिआत हर मुल्क हर तबके के लोगों के लिए बेहतरीन नमूना और मिसाल बन गए।

खामोशी और बात करना

नबी करीम मुहम्मद स.अ. अक्सर खामोश रहा करते थे बगैर जरूरत किसी से बात न करते थे और बातों में मिठास थी तल्खी और कड़वाहट जरा न थी। गुफ्तगू ऐसी दिलनशी होती थी सुनने वाले के दिल और रूह पर कब्जा कर लेती थी और नबी की ये खूबी ऐसी थी कि दुश्मन लोग भी इसकी गवाही देते थे और दुश्मन इसी को जादू का नाम दे दिया करते थे।

हँसना और रोना

नबी करीम मुहम्मद (स.अ) कभी खिलखिला कर हँसना पसंद न करते थे और मुस्कराहट ही आपका हँसना था। तहज्जुद की नमाज मे नबी (स.अ) रो पड़ते थे और कभी किसी के मरने पर आँखे नम हो जाती थी।

नबी करीम के बेटे इब्राहीम बचपन में ही गुजर गए। जब उन्हें कब्र में रखा गया तो आप मुहम्मद स. अ. की आँखों में आंसू भर आये।

खाने के मुताल्लिक क्या फ़रमाया

रात को भूखा सोने से मना फरमाते और ऐसा करने को बुढ़ापे की वजह बताते थे। खाना खाते ही सो जाने से मना फरमाते थे। कम खाने की तरफ तवज्जो दिलाते। फरमाया करते कि पेट का एक तिहाई हिस्सा खाने के लिए एक तिहाई हिस्सा पानी के लिए और एक तिहाई हिस्सा खुद पेट (सांस) के लिए छोड़ देना चाहिए।

मर्ज़ और मरीज़

फैलने वाली बीमारियों से बचाओ रखते थे और तन्दुरुस्तों को एहतियात से रहने का हुकम फरमाते बीमार को माहिर हकीम से इलाज का हुक्म फरमाते थे और परहेज का हुक्म देते थे हराम चीजों को दवा के तौर पर लेने से मना फरमाते और इरशाद फरमाते अल्लाह ने हराम चीजों में तुम्हारे लिए शिफा नहीं रखी है।

बीमारों की अयादत

कोई बीमार पड़ता तो उसकी तबियत पूछने जरूर जाते और मरीज के करीब बैठ कर उसको तसल्ली देते, मरीज को पूछते कि किस चीज का दिल चाहता है अगर वो चीज उसको नुकसान न पहुंचती तो उसका इंतजाम कर दिया करते, एक यहूदी लड़का नवी मुहम्मद स.अ. की खिदमत किया करता उसकी बीमारी के वक्त उसकी अयादत के लिए गए।

सदक़ा व हदिया

सदका की कोई चीज हरगिज इस्तेमाल न करते, हां हदिया (गिफ्ट) होता तो कुबूल फरमा लेते। सहाबा या यहूदी और इसाई जो चीजे तोहफे में भेजते उनको कुबूल फरमा लेते और उनके लिए खुद भी तोहफे भेजते मगर मुशरिकीन के तोहफे से इनकार फरमाते। जो कीमती तोहफे नबी मुहम्मद स.अ. के पास आया करते अक्सर उन्हें अपने सहाबा में बाँट दिया करते।

बच्चों पर मेहरबानी

बच्चों के करीब से गुजरते तो उनको अस्सलाम अलैकुम कहा करते उन्हें गोद में उठाते।

आदाब

मजलिस में कभी पाँव फैला कर नहीं बैठते। जो कोई मिलता उसे सलाम पहले खुद कर लेते। मुसाफा के लिए हाथ पहले खुद बढ़ाते। बीच में किसी की बात कभी न काटते। अगर नफ़्ल नमाज में होते और कोई शख्स पास आ कर बैठ जाता तो नमाज को मुख्तसर (छोटी) कर देते और उसकी मन्नत पूरी करने के बाद फिर नमाज में मशगुल हो जाते। अक्सर मुस्कुराते रहते।

शफ़क़त व महेरबानी

हजरत आयेशा र.अ. फरमाती हैं कि कोई शख्स भी अच्छे अखलाक में नबी स.अ. के जैसा न था, चाहे कोई सहाबी बुलाता या घर का कोई शख्स नबी स.अ. जरूर तशरीफ ले जाते। नफ्ल इबादत छुप कर अदा करते ताकि उम्मत पर इबादत ज्यादा भारी न हो। जब किसी मामले में दो चीजें सामने आ जाती तो आसान चीज़ को अपनाते। फरमाया कि एक दुसरे की बातें मुझे न सुनाया करो, मैं चाहता हूँ कि जब मैं इस दुनिया से जाऊ तो सब की तरफ से दिल साफ होकर जाऊ।

इन्साफ और रहम

अगर दो शख्सों के दरमियान झगडा होता तो इन्साफ फरमाते और अगर खुद अपने (नबी) साथ किसी ने कुछ किया तो उसको माफ़ फरमाते।

फातिमा नाम की एक औरत ने मक्का में चोरी की, लोगों ने उसामा से जो नबी स.अ. को बहुत प्यारे थे, से शिफारिश कराई तो नबी (स.अ) ने फ़रमाया क्या तुम अल्लाह की बनाई हुई हुदूद में शिफारिश करते हो सुनो अगर फातिमा बिन्त मुहम्मद भी चोरी करे तो उसके भी हाथ काटने का हुक्म देता।

दुश्मनों पर रहम

मक्का में सख्त भुकमरी के दिन थे यहाँ तक की लोग मुरदार और हड्डियाँ भी खाने लगे थे अबू सुफियान बिन हर्ब जो उन दिनों सख्त दुश्मन था। नबी स.अ. की खिदमत में आया और कहा मुहम्मद स.अ. आप तो सिला रहमी ( रिश्तों को जोड़ना) करते हैं और उसकी तालीम देते हैं देखिये आप की कौम हलाक हो रही है खुदा से दुआ कीजिये नबी ने दुआ फरमाई तो उसके बाद खूब बारिश हुई।

सुमामा बिन उसाल ने मक्का जाने वाला खाने पीने का सामान बंद कर दिया इस वजह से कि मक्का वाले नबी के दुश्मन है लेकिन जब नबी स.अ. को मालूम हुआ तो ऐसा करने से मना फरमा दिया।

सखावत

मांगने वाले को कभी खाली हाथ न लौटाते अगर कुछ भी देने को न होता तो मांगने वाले से ऐसे उज्र करते जैसे माफी माग रहे हो। फरमाया करते अगर कोई शख्स कर्जे की हालत में मर जाये और अपने पीछे कोई माल न छोड़े तो हम उसे अदा करेंगे और अगर कोई माल छोड़ कर मरे तो वो वारिसों का हक है।

माफ़ करना

हजरात आयशा र. अ. फरमाती है कि खुद अपने पर किये गए जुल्म का बदला नवी स.अ. ने कभी नहीं लिया। हबार ने नबी स.अ. की बेटी को एक नेजा मारा वो ऊंट से नीचे गिर गयी पेट का हमल साकित हो गया और यही सदमा हजरत जैनब की वफात की वजह बना लेकिन जब हबार ने माफी मांगी तो आप स.अ. ने उसे माफ कर दिया।

कैदियों की खबरगीरी

जंग में कैद किये जाने वालों की मेहमानों की तरह खिदमत की जाती थी। जंगे बदर में जो कैदी मदीना मुनव्वर में कुछ रोज तक मुसलमानों के पास कैद रहे उन में से एक का बयान है” ख़ुदा मुसलमानों पर रहम करे वो अपने घर वालों से भी अच्छा हम को खिलाते थे और अपने खानदान से पहले हमारी फिक्र करते थे।

आम तौर पर जब कैदी कैद होकर आते तो जबी स.अ. सब से पहले उनके लिबास की फ़िक्र किया करते थे।

तिजारत (व्यवसाय) का आरंभ

12 साल की उम्र में आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अपना पहला तिजारती सफ़र आरंभ किया जब चचा अबू तालिब अपने साथ शाम के तिजारती सफ़र पर ले गये। इसके बाद आपने स्वंय यह सिलसिला जारी रखा। हज़रत खदीजा का माल बेचने के लिये शाम ले गये तो बहुत ज़्यादा लाभ हुआ। आस-पास के बाज़ारों में भी माल खरीदने और बेचने जाते थे।

खदीजा (र.अ.) से निकाह

एक बार हज़रत खदीजा ने आपको माल देकर शाम(Syria Country) भेजा और साथ में अपने गुलाम मैसरा को भी लगा दिया। अल्लाह के फ़ज़्ल से तिजारत में खूब मुनाफ़ा हुआ। मैसरा ने भी आपकी ईमानदारी और अच्छे अखलाक की बडी प्रशंसा की। इससे प्रभावित होकर ह्ज़रत खदीजा ने खुद ही निकाह का पैगाम भेजा।

आपने चचा अबू तालिब से ज़िक्र किया तो उन्होने अनुमति दे दी। आपके चचा हज़रत हम्ज़ा ने खदीजा के चचा अमर बिन सअद से रसुल’अल्लाह के बडे की हैसियत से बातचीत की और 20 ऊंटनी महर (निकाह के वक्त औरत या पत्नी को दी जाने वाली राशि या जो आपकी हैसियत में हो) पर चचा अबू तालिब ने निकाह पढा।

हज़रते खदीजा(र.अ.) का यह तीसरा निकाह था, पहला निकाह अतीक नामी शख्स से हुआ था जिनसे 3 बच्चे हुये। उनके इन्तिकाल (देहान्त) के बाद अबू हाला से हुआ था, फिर उनका भी इन्तेकाल हुआ। आखिर में हज़रते खदीजा (र.अ) का निकाह आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से हुआ और आपको उम्माहतुल मोमिनीन यानी उम्मत की माँ का शर्फ़ हासिल हुआ, निकाह के समय आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की आयु 25 वर्ष और खदीजा की उम्र 40 वर्ष थी।

गारे-हिरा में इबादत

हज़रत खदीजा से शादी के बाद आप घरेलू मामलों से बेफ़िक्र हो गये। पानी और सत्तू साथ ले जाते और हिरा पहाडी के गार (गुफ़ा) में दिन-रात इबादत में लगे रहते। मक्का शहर से लगभग तीन मील की दूरी पर यह पहाडी पर स्थित है और आज भी मौजुद है।

हज़रत खदीजा बहुत मालदार थी इसलिये आपकी गोशा-नशीनी (काम/इबादत/ज़िन्दगी) में कभी दखल नही दिया और न ही तिजारत का कारोबार देखने पर मजबूर किया बल्कि ज़ादे-राह (रास्ते के लिये खाना) तय्यार करके उनको सहूलियत फ़रमाती थीं।

नबुव्वत-रिसालत

चांद के साल के हिसाब से चालीस साल एक दिन की आयु में नौ रबीउल अव्वल के दिन आप पर पहली वही (सन्देंश) उतरी। उस समय आप गारे-हिरा में थे। नबुव्वत की सूचना मिलते ही सबसे पहले ईमान लाने वालों में खदीजा (बीवी), अली (भाई), अबू बक्र (मित्र), ज़ैद बिन हारिसा (गुलाम) शामिल हैं।

दावत-तब्लीग :- तीन वर्ष तक चुपके-चुपके लोगों को इस्लाम की दावत दी। बाद में खुल्लम-खुल्ला दावत देने लगे। जहां कोई खड़ा -बैठा मिल जाता, या कोई भीड़ नज़र आती, वहीं जाकर तब्लीग करने लगे।

कुनबे में तब्लीग: – एक रोज़ सब रिश्ते-दारों को खाने पर जमा किया। सब बनी हाशिम कबीले के थे। उनकी तादाद चालीस के लगभग थी। उनके सामने आपने तकरीर फ़रमाई। हज़रत अली इतने प्रभावित हुये कि तुरन्त ईमान ले आये और आपका साथ देने का वादा किया।

आम तब्लीग: – आपने खुलेआम तब्लीग करते हुये “सफ़ा की पहाड़ी पर चढ़कर सब लोगों को इकट्ठा किया और नसीहत फ़रमाते हुये लोगों को आखिरत की याद दिलाई और बुरे कामों से रोका। लोग आपकी तब्लीग में रोड़ा डालने लगे और धीरे-धीरे ज़ुल्म व सितम इन्तहा को पहुंच गये। इस पर आपने हबश की तरफ़ हिजरत करने का हुक्म दे दिया। हिज़रत-हबश: चुनान्चे (इसलिये) आपकी इजाज़त से नबुव्वत के पांचवे वर्ष रजब के महीने में 12 मर्द और औरतों ने हबश की ओर हिजरत की। इस काफ़िले में आपके दामाद हज़रत उस्मान और बेटी रुकय्या भी थीं। इनके पीछे 83 मर्द और 18 औरतों ने भी हिजरत की। इनमें हज़रत अली के सगे भाई जाफ़र तय्यार भी थे जिन्होने बादशाह नजाशी के दरबार में तकरीर की थी। नबुव्वत के छ्ठें साल में हज़रत हम्ज़ा और इनके तीन दिन बाद हज़रत उमर इस्लाम लाये। इसके बाद से मुस्लमान काबा में जाकर नमाज़े पढ़ने लगे। घाटी में कैद: मक्का वालों ने ज़ुल्म-ज़्यादती का सिलसिला और बढ़ाते हुये बाई-काट का ऎलान कर दिया। यह नबुव्वत के सांतवे साल का किस्सा है। लोगों ने बात-चीत, लेन-देन बन्द कर दिया, बाज़ारों में चलने फ़िरने पर पाबंदी लगा दी। चचा का इन्तिकाल (देहान्त): – नबुव्वत के दसवें वर्ष आपके सबसे बडे सहारा अबू तालिब का इन्तिकाल हो गया। इनके इन्तिकाल से आपको बहुत सदमा पहुंचा। बीवी का इन्तिकाल (देहान्त): – अबू तालिब के इन्तिकाल के ३ दिन पश्चात आपकी प्यारी बीवी हज़रत खदीजा रजी० भी वफ़ात कर गयीं। इन दोनों साथियों के इन्तिकाल के बाद मुशरिकों की हिम्मत और बढ़ गयी। सर पर कीचड़ और उंट की ओझडी (आंते तथा उसके पेट से निकलने वाला बाकी पदार्थ) नमाज़ की हालत में गले में डालने लगे।

ताइफ़ का सफ़र

नबुव्वत के दसवें वर्ष दावत व तब्लीग के लिये ताइफ़ का सफ़र किया। जब आप वहा तब्लीग के लिये खडें होते तो सुनने के बजाए लोग पत्थर बरसाते। आप खुन से तरबतर हो जाते। खुन बहकर जूतों में जम जाता और वज़ु के लिये पांव से जूता निकालना मुश्किल हो जाता। गालियां देते, तालियां बजाते। एक दिन तो इतना मारा कि आप बेहोश हो गये।

इस्रा और मेराज का वाकिया -

रात में आसमान का सफ़र क्या ही महिमावान है वह जो रातों-रात अपने बन्दे (मुहम्मद) को मस्जिद-अल-हरम से अल-मस्जिद अल-अक्सा तक ले गया, जिसके चतुर्दिक को हमने बरकत दी, ताकि हम उसे अपनी कुछ निशानियाँ दिखाएँ। निस्संदेह वही सब कुछ सुनता, देखता है

अनस (रज़ि.) ने बयान किया कि अबूज़र (रज़ि.) बयान करते थे कि नबी करीम (स.अ) ने फ़र्माया, मेरे घर की छत खोली गई। मेरा क़याम उन दिनों मक्का में था। फिर जिब्रईल (अलै.) उतरे और मेरा सीना चाक किया और उसे ज़मज़म के पानी से धोया। उसके बाद सोने का एक तश्त लाए जो हिक्मत और ईमान से लबरेज़ था, उसे मेरे सीने में उण्डेल दिया। फिर मेरा हाथ पकड़कर आसमान की तरफ़ लेकर चले, जब आसमाने दुनिया पर पहुँचे तो जिब्रईल (अलै.) ने आसमान के दारोग़ा से कहा कि दरवाज़ा खोलो, पूछा कि कौन jus साहब है? उन्होंने जवाब दिया कि मैं जिब्रईल, फिर पूछा कि आपके साथ कोई और साहब भी हैं? जवाब दिया कि मेरे साथ मुहम्मद (स.अ) हैं, पूछा कि उन्हें लाने के लिये आपको भेजा गया था। जवाब दिया कि हाँ, अब दरवाज़ा खुला, जब हम आसमान पर पहुँचे तो वहाँ एक बुज़ुर्ग से मुलाक़ात हुई, कुछ इंसानी रूहें उनके दाएँ जानिब थी और कुछ बाएँ जानिब, जब वो दाएँ तरफ़ देखते तो हंस देते और जब बाएँ तरफ़ देखते तो रो पड़ते। उन्होंने कहा ख़ुश आमदीद, नेक नबी नेक बेटे! मैंने पूछा, जिब्रईल (अलै.)! ये स़ाइब कौन बुजुर्ग हैं? तो उन्होंने बताया कि ये आदम (अलै.) हैं और ये इंसानी रूहें उनके दाएँ और बाएँ तरफ़ थीं उनकी औलाद बनी आदम की रूहें थीं उनके जो दाएँ तरफ़ थीं वो जन्नती थीं और जो बाएँ तरफ़ थीं वो जहन्नमी थीं, इसीलिये जब वो दाएँ तरफ़ देखते तो मुस्कुराते और जब बाएँ तरफ़ देखते रोते। 

फिर, जिब्रईल (अलै.) मुझे ऊपर लेकर चढ़े और दूसरे आसमान पर आए, उस आसमान के दारोग़ा से भी उन्होंने कहा कि दरवाज़ा खोलो, उन्होंने भी उसी तरह के सवालात किये जो पहले आसमान पर हो चुके थे, फिर दरवाज़ा खोला, अनस (रज़ि.) ने बयान : किया कि हज़रत अबू ज़र (रज़ि.) ने तफ्सील से बताया कि ऑहज़रत (६) ने मुख़्तलिफ़ आसमानों पर इदरीस, मूसा, ईसा और इब्राहीम (अलै.) को पाया, लेकिन उन्होंने उन अंबिया किराम के मकामात की कोई तख़्सीस नहीं की, सिर्फ इतना कहा कि औहज़रत ने आदम (अलै.) को आसमाने दुनिया (पहले आसमान पर) पाया और इब्राहीम (अलै.) को छठे पर और हज़रत अनस (रज़ि.) ने बयान किया कि फिर जब जिब्रईल (अलै.) इदरीस (अलै.) के पास से गुज़रे तो उन्होंने कहा खुश आमदीद, नेक नबी नेक भाई, मैंने पूछा कि ये कौन साहब हैं? जिब्रईल (अलै.) ने बताया कि ये इदरीस (अलै.) हैं, फिर मैं ईसा (अलै.) के पास से गुज़रा, उन्होंने भी कहा ख़ुश आमदीद नेक नबी नेक भाई, मैंने पूछा ये कौन साहब हैं? तो बताया कि ईसा (अलै.)। फिर मैं इब्राहीम (अलै.) के पास से गुज़रा तो उन्होंने फ़र्माया कि ख़ुश आमदीद नेक नबी और नेक बेटे, मैंने पूछा ये कौन साहब हैं? जवाब दिया कि ये इब्राहीम (अलै.) हैं, इब्ने शिहाब से जुहूरी ने बयान किया और मुझे अय्यूब बिन हज़म ने ख़बर दी कि इब्ने अब्बास (रज़ि.) और अबू हय्या अंसारी (रजि.) बयान करते थे कि नबी करीम (स.अ) ने फ़र्माया फिर मुझे ऊपर लेकर चढ़े और मैं इतने बुलन्द मुकाम पर पहुँच गया जहाँ से क़लम के लिखने की आवाज़ साफ़ सुनने लगी थी, अबूबक्र बिन हज़म ने बयान किया और अनस बिन मालिक (रज़ि.) ने बयान किया कि नबी करीम (स.अ) ने फ़र्माया फिर अल्लाह तआला ने पचास वक़्त की नमाज़े मुझ पर फ़र्ज़ की। 

मैं उस फ़रीज़े के साथ वापस हुआ और जब मूसा (अलै.) के पास से गुज़रा तो उन्होंने पूछा कि आपकी उम्मत पर क्या फ़र्ज़ की गई है? मैंने जवाब दिया कि पचास वक़्त की नमाज़े उन पर फ़र्ज़ हुई है। उन्होंने कहा कि आप अपने रब के पास वापस जाएँ, क्योंकि आपकी उम्मत में इतनी नमाज़ों की ताकत नहीं है, चुनाँचे मैं वापस हुआ और रब्बुल आलमीन के दरबार में मुराजिअत की, उसके नतीजे में उसका एक हिस्सा कम कर दिया गया, फिर मैं मूसा (अलै.) के पास आया और इस बार भी उन्होंने कहा कि अपने रब से फिर मुराजिअत करें फिर उन्होंने अपनी तफ़्सीलात का ज़िक्र किया कि रब्बुल आलमीन ने एक हिस्से की फिर कमी कर दी, फिर मैं मूसा (अलै.) के पास आया और उन्हें ख़बर की, उन्हों ने कहा कि आप अपने स्ब से मुराजिअत करें, क्योंकि आपकी उम्मत में उसकी भी ज़ाकत नहीं है, फिर मैं वापस हुआ और अपने रब से फिर मुराजिअत की, अल्लाह तआला ने इस बार फर्मा दिया कि नमाज़े पाँच वक़्त की कर दी गई और सवाब पचास नमाज़ों ही का बाकी रखा गया, मेरा क़ौल बदला नहीं करता। फिर मैं मूसा (अलै.) के पास आया तो उन्होंने अब भी ज़ोर दिया कि अपने रब से आपको फिर मुराजिअत करनी चाहिये। लेकिन मैंने कहा कि मुझे अल्लाह पाक से बार-बार दरख्वास्त करते हुए अब शर्म आती है। फिर ज जिब्रईल (अलै.) मुझे लेकर आगे बढ़े और सिदरतुल मुन्तहा के पास लाए जहाँ मुख़्तलिफ किस्म के रंग नज़र आए, जिन्होंने उस पेड़ को छुपा रखा था में नहीं जानता कि वो क्या थे। उसके बाद मुझे जन्नत में दाख़िल किया गया तो मैंने देखा कि मोती के गुम्बद बने हुए हैं और उसकी मिट्टी मुश्क की तरह खुश्बूदार थी।

हिजरत: 27 सफ़र, 13 नबुव्वत, जुमेरात (12 सितंबर 622 ईसंवीं) के रोज़ काफ़िरों की आखों में खाक मारते हुये घर से निकले। मक्का से पांच मील की दुरी पर “सौर” नाम के एक गार में 3 दिन ठहरे। वहां से मदीना के लिये रवाना हुये। राह में उम्मे मअबद के खेमें में बकरी का दुध पिया।

कुबा पहुंचना: 8 रबीउल अव्वल 13 नबुव्वत, पीर (सोमवार) के दिन (23 सितंबर सन 622 ईंसवीं) को आप कुबा पहुंचें। आप यहां 3 दिन तक ठहरे और एक मस्ज़िद की बुनियाद रखी। इसी साल बद्र की लड़ाई हुयी। यह लड़ाई 17 रमज़ान जुमा के दिन हुयी। 3 हिजरी में ज़कात फ़र्ज़ हुयी। 4 हिजरी में शराब हराम हुयी। 5 हिजरी में औरतों को पर्दे का हुक्म हुआ।

उहुद की लडाई: 7 शव्वाल 3 हिजरी को शनिवार के दिन यह लड़ाई लड़ी गयी। इसी लड़ाई में रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के चन्द सहाबा ने नाफ़रमानी की, जिसकी वजह से कुछ देर के लिये पराजय का सामना करना पड़ा और आपके जिस्म पर ज़ख्म आये।

सुलह हुदैबिय्या: 6 हिजरी में आप उमरा के लिये मदीना से मक्का आये, लेकिन काफ़िरों ने इजाज़त नही दी। और चन्द शर्तों के साथ अगले वर्ष आने को कहा। आपने तमाम शर्तों को मान लिया और वापस लौट गये।

बादशाहों को दावत: 6 हिजरी में ह्ब्शा, नजरान, अम्मान, ईरान, मिस्र, शाम, यमामा, और रोम के बादशाहों को दावती और तब्लीगी खत लिखे। हबश, नजरान, अम्मान के बादशाह ईमान ले आये।

सात हिजरी: 7 हिजरी में नज्द का वाली सुमामा, गस्सान का वाली जबला वगैरह इस्लाम लाये। खैबर की लड़ाई भी इसी साल में हुई।

फ़तह: मक्का 8 हिजरी में मक्का फ़तह हुआ। इसकी वजह 6 हिजरी मे सुलह हुदैबिय्या का मुआहिदा तोड़ना था। 20 रमज़ान को शहर मक्का के अन्दर दाखिल हुये और ऊंट पर अपने पीछे आज़ाद किये हुये गुलाम हज़रत ज़ैद के बेटे उसामा को बिठाये हुये थे। इस फ़तह में दो मुसलमान शहीद और 28 काफ़िर मारे गये। आप सल्लल्लाहुए अलैहि ने माफ़ी का एलान फ़रमाया।

आठ हिजरी: 8 हिजरी में खालिद बिन वलीद, उस्मान बिन तल्हा, अमर बिन आस, अबू जेहल का बेटा ईकरमा वगैरह इस्लाम लाये।

हुनैन की जंग: मक्का की हार का बदला लेने और काफ़िरों को खुश रखने के लिये शव्वाल 8 हिजरी में चार हज़ार का लश्कर लेकर हुनैन की वादी में जमा हुये। मुस्लमान लश्कर की तादाद बारह हज़ार थी लेकिन बहुत से सहाबा ने रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की नाफ़रमानी की, जिसकी वजह से पराजय का मुंह देखना पडा। बाद में अल्लाह की मदद से हालत सुधर गयी।

नौ हिजरी: इस साल हज फ़र्ज़ हुआ। चुनांन्चे इस साल हज़रत सिद्दीक रज़ि० की कियादत (इमामत में, इमाम, यानि नमाज़ पढाने वाला) 300 सहाबा ने हज किया। फ़िर हज ही के मौके पर हज़रत अली ने सूर: तौबा पढ़ कर सुनाई।

आखिरी हज: 10 हिजरी में आपने हज अदा किया। आपके इस अन्तिम हज में एक लाख चौबीस हज़ार मुस्लमान शरीक हुये। इस हज का खुत्बा (बयान या तकरीर) आपका आखिरी वाज़ (धार्मिक बयान) था। आपने अपने खुत्बे में जुदाई की तरह भी इशारा कर दिया था, इसके लिये इस हज का नाम “हज्जे विदाअ” भी कहा जाने लगा।

नबी (स.अ) का आख़िरी खुत्बा (तक़रीर):

नबी (स.अ) का आख़िरी खुत्बा जिसमें एक एक बात पर मुसलमानों का अमल होना चाहिए।

वो आख़िरी खुत्बा जो नबी पाक (स.अ) ने अपने आखिरी हज में तक़रीबन सवा लाख सहाबा के सामने मैदाने अराफ़ात में दिया था जिसमें आप ने पूरे इस्लाम का खुलासा बयान कर दिया था और तारीख 9 जिल्हिज्जा 10 हिजरी थी तो आज उस पूरे खुत्बे में से सिर्फ़ 15 अहम् बातें हम आपके सामने बयान करेंगे

  1. ए लोगों! सुनो, मुझे नहीं लगता अगले साल मैं यहाँ तुम्हारे बीच मौजूद रहूँगा. इसलिए मेरी बातों को गौर से सुनो, और उन लोगों तक पहुँचाओ जो लोग यहाँ नहीं पहुँच सके।

  2. ए लोगों! जिस तरह आज का ये दिन, ये महीना, और ये जगह इज्जत और हुरमत वाले हैं बिलकुल इसी तरह हर मुसलमान की जिन्दगी इज्जत और माल इज्जत और हुरमत वाले हैं (तुम उस में छेड़ छाड़ नहीं कर सकते)

  3. लोगों के माल और उनकी अमानतें उनको वापस करो।

  4.  किसी को तंग न करो और न ही किसी का कोई नुकसान करो, ताकि तुम भी हिफ़ाजत से रहो।

  5. याद रखो! आपको अल्लाह से मिलना है और अल्लाह तुम से तुम्हारे आमाल के बारे में सवाल करेंगे।

  6. अल्लाह तआला ने सूद को ख़त्म कर दिया है, इस लिए आज से सूद का लेनदेन ख़त्म कर दो।

  7. तुम औरतों पर हक रखते हो, और वो तुम पर रखती हैं, जब वो हुकूक पूरे कर रही हैं तो तुम पर जरूरी है कि तुम उनकी जिम्मेदारियां पूरी करो।

  8.  औरतों के बारे में नर्म रवैया रखो, क्यूंकि वो जीवन-साथी हैं और बेइंतेहा खिदमत गुज़ार होती हैं।

  9.  कभी जिना के करीब भी मत जाना।

  10.  “ए लोगों! सिर्फ अल्लाह की इबादत करो, 5 फ़र्ज नमाज़े पढ़ो, रमज़ान के रोजे रखो और जकात अदा करते रहो, वित्तीय स्थिति ठीक हो तो हज भी करो।

  11.  हर मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है तुम सब अल्लाह की नज़र में बराबर हो।

  12.  याद रखो! तुम सबको एक दिन अल्लाह के सामने अपने आमाल की जवाब देही के लिए पेश होना है।

  13.  खबरदार रहो! मेरे बाद गुमराह न हो जाना, और याद रखना मेरे बाद कोई नबी नहीं आने वाला, और ना ही कोई नया दीन लाया जायेगा।

  14. और याद रहे! मैं तुम्हारे दरमियान दो चीजें छोड़ कर जा रहा हूँ एक है कुरान और दूसरी है सुन्नत (हदीस), अगर तुमने इनकी पैरवी की तो तुम कभी गुमराह नहीं होगे।

  15.  सुनो! तुम में से जो लोग यहाँ मौजूद हैं तो ये बात अगले लोगों तक पहुंचाएं फिर तो अगले लोगों तक पहुंचाएंगे।

फिर मुहम्मद (स.अ) ने अपना चेहरा आसमान की तरफ़ उठा कर फरमाया: ए अल्लाह! गवाह रहना मैंने तेरा पैग़ाम तेरे बन्दों तक पहुंचा दिया

वफ़ात (देहान्त): 11 हिजरी में 29 सफ़र को पीर के दिन एक जनाज़े की नमाज़ से वापस आ रहे थे की रास्ते में ही सर में दर्द होने लगा। बहुत तेज़ बुखार आ गया। इन्तिकाल से पांच दिन पहले पूर्व सात कुओं के सात मश्क पानी से गुस्ल (स्नान) किया। यह बुध का दिन था। जुमेरात को तीन अहम वसियतें फ़रमायीं। एक दिन कब्ल अपने चालीस गुलामों को आज़ाद किया। सारी नकदी दान कर दी।

अन्तिम दिन पीर (सोमवार) का था। इसी दिन 12 रबीउल अव्वल 11 हिजरी चाश्त के समय आप इस दुनिया से रुख्सत कर गये। चांद की तारीख के हिसाब से आपकी उम्र 63 साल 4 दिन की थी।

यह बात खास तौर पर ध्यान में रहे की आपकी नमाजे-जनाज़ा किसी ने नही पढाई। बारी-बारी, चार-चार, छ्ह:-छ्ह: लोग आइशा रजि० के घर (हुजरे) में जाते थे और अपने तौर पर पढकर वापस आ जाते थे।

यह तरीका हज़रत अबू बक्र (र.अ.) ने सुझाया था और हज़रत उमर (र.अ.) ने इसकी मन्ज़ुरी की और सबने अमल किया। इन्तिकाल के बाद हज़रत आइशा (रज़ि) के कमरे में जहां इन्तिकाल फ़रमाया था दफ़न किये गये।

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