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जिस तरह नमाज़, रोज़ा औरतों पर फर्ज है, उसी तरह ज़कात भी फ़र्ज़ है। बहुत-सी औरतें ज़कात फर्ज होने के बावजूद, ज़कात अदा नहीं करतीं और गुनाहगार होती हैं। जिस औरत के पास साढ़े बावन तोला चाँदी या साढ़े सात तोला सोना या उसका जेवर या इतने रूपये हों, जिससे चाँदी या सोना ऊपर लिखे हुए वज़न के मुताबिक ख़रीद सके, तो उस पर ज़कात फर्ज है, बशर्ते कि उस जेवर या सोना-चाँदी और रूपए पर पूरे साल गुज़र जाएं।
अगर किसी औरत के पास साढ़े बावन तोला चाँदी या उसका जेवर नहीं, बल्कि इससे कम हो और सोना भी साढे सात तोला नहीं, बल्कि कम हो, तो यह देखना होगा कि अगर सोना बेचकर चाँदी ख़रीद ली जाए तो साढ़े बावन तोला हो जाएगा या चाँदी बेचकर सोना ख़रीदा जाए तो साढ़े सात तोला सोना हो जाएगा तो ऐसी सूरत में ज़कात फर्ज है। रूपये जो भी हैं, सबका चालीसवाँ हिस्सा निकालना फर्ज है, चाहे कीमत दी जाए या सोना-चाँदी दिया जाए।
सदका फ़ित्र और कुरबानी
जिन औरतों के पास रूपए या सोने-चाँदी या इतना जेवर मौजूद हो, जिस पर ज़कात फ़र्ज़ होती है, तो अगर औरत ईद के दिन उसकी मालिक हो (चाहे उस पर अभी साल न गुज़रा हो) तो उस पर खुद अपना सदका फ़ित्र अदा करना ज़रूरी है। अस्सी तोली के सेर से एक आदमी का सदका फिल, एक सेर तेरह छटांक गेहूं या तीन सेर दस छटांक जौ या उसकी कीमत है। इसी तरह अगर औरत कुरबानी के 3 दिनों में ऊपर लिखी हुई मिकदार के मुताबिक सोना या चाँदी या जेवर या रूपये की मालिक हो तो उस पर कुरबानी भी फ़र्ज़ है। बड़े जानवरों में एक हिस्सा और एक ख़स्सी बकरी कर देने से कुरबानी अदा हो जाएगी।
गलतफ़हमी-
बहुत जगह यह मशहूर है कि कुरबानी हर साल वाजिब नहीं। इसीलिए बहुत से लोग किसी साल अपने नाम और किसी साल बाप-दादा के नाम या हुजूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के नाम, कुरबानी करते हैं और अपने नाम को छोड़ देते हैं, ऐसा समझना गलत है। जिस तरह नमाज़, रोज़ा, जकात हर साल और हर वक्त फ़र्ज़ है, इसी तरह कुरबानी भी हर साल वाजिब है। जिस मर्द व औरत पर कुरबानी वाजिब है, उसको अपनी कुरबानी करना ज़रूरी है, चाहे वह पिछले साल भी कर चुका हो। अगर अपनी कुरबानी छोड़ देगा, तो गुनाहगार होगा। अपनी तरफ से कुरबानी कर लेने के बाद जिस दूसरे की तरफ से करना चाहे, करे।
हज
औरतों पर हज भी फर्ज है। जिस औरत को अल्लाह तआला ने इतने रूपए और माल दिया हो कि वह मक्का मुकर्रमा तक अपने पैसों से आ जा सके और किसी किस्म का कर्ज भी उस पर न हो या हो, लेकिन कर्ज अदाएगी के बाद भी इतने रूपए उसके पास हों तो उस पर हज फर्ज हो जाता है। ऐसी औरत को जितना जल्द हो सके, हज अदा कर लेना ज़रूरी है। अगर हज करने से पहले इंतिकाल हो जाए, तो औरत के वारिसों पर हज्जे बदल कराना जरूरी है, अगर औरत वसियत कर गयी हो। ऐसी औरतों को हज्जे बदल कराने की वसीयत करना ज़रूरी है। और अगर औरत को खुद हज करने की तौफीक हो जाए तो औरत तन्हा हज का सफ़र नहीं कर सकती, बल्कि अपने साथ किसी महरम या शौहर को साथ ले जाना होगा।
अगर औरत किसी महरम या शौहर को साथ ले जाए तो उस महरम या शौहर का ख़र्च भी औरत को अदा करना होगा। अगर इतने रूपए न हों कि महरम या शौहर को साथ ले जाए तो खुद औरत को हज अदा करना ज़रूरी न होगा, बल्कि मरने से पहले हज्जे बदल की वसीयत करना होगा और वसीयत के बाद वारिसों पर उसका हज्जे बदल कराना लाज़िम होगा। हज को भी फर्ज हो जाने के बाद जवानी ही में अदा करना चाहिए। बूढ़ी होने तक का इंतिज़ार करना या किसी दुनियावी काम के होने तक रुकना गुनाह है।
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