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Toggleप्रश्न: इस्लाम और राजनीति मे क्या अन्तर है।
उत्तर: इस्लाम शब्द सलाम शब्द से आया है जिसका अर्थ है शांति। और जो व्यक्ति अल्लाह के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करता है वह मुस्लिम कहलाता है। इस्लाम मतलब अमन हासिल करना, अल्लाह के आदेश का पालन करने के बाद। राजनीति को अंग्रेजी मे कहते हैं पॉलिटिक्स, पॉलिटिक्स से किस तरीके से राज जो चलाना, किस तरिके से देश को चलाना।
इस्लाम एक संपूर्ण धर्म है (Islam is a complete religion). इस्लाम के पास मानवता की सभी समस्याओं का समाधान है (Islam has the solution to the all the problems of the humanity). इस्लाम केवल कुछ चीजों के बारे मे बात नही करता, बल्कि एक इंसान को किस तरीके से जिंदगी गुजारना चाहिये उसके बारे मे बात करता है। आज की तारीख में राजनीति शब्द अक्सर गंदा हो चुका है। तो लोग जब पॉलिटिक्स शब्द बोलते है तो समझते है कि ये गन्दा शब्द है।
लेकिन इस्लाम मे किस तरीके से देश मे राज किया जाये, उसके बारे मे भी हुक्म है। आज की पॉलिटिक्स और इस्लाम मे जमीन आसमान का फ़र्क है। लेकिन इस्लाम मे पॉलिटिक्स है। इस्लाम मानता है खिलाफ़त मे। एक खलीफ़ा होता है, और वो खलीफ़ा खिलाफत में सबसे ऊंचा दर्जा रखता है। वो निर्णय करता है कुरान और हदीस के अनुसार, तो कुरान जिस तरीके से हर देश का एक कांस्टीट्यूशन होता है। आखिरी कांस्टीट्यूशन दुनिया का क़ुरान है। Quran is the world constitution. सारी दुनिया का कांस्टीट्यूशन कुरान है। किस तरीके से जिंदगी को गुजारना चहिये, क्या चीज हराम है, क्या चीज मुबा है। इसमे सारी डीटेल है। इस की जो डिटेल है वो है सहीह हदीस। अल्लह के रसूल की सहीह हदीस। जो अल्लाह के रसूल ने कहा, वो सहीह हदीस है। अगर आप इन दोनों को लेकर देश या दुनिया को चलाएंगे, तो इस्लाम के अनुसार चलेंगे और देश में और दुनिया मे हमेशा शांति रहेगी।
अफ़सोस की बात है कि आज दुनिया मे एक भी देश नही है जो १००% कुरान और सहीह हदीस पर चल रहा है। एक समय था पैगम्बर मुहम्मद के दौर में और उनके बाद पहले चार खलीफ़ा मे दौर मे, हजरत उमर, हजरत अबू बकर, हजरत उसमान और हजरत अली. May Allah peace be on all these khalifa. ये दौर सबसे सुनहरा दौर था। और सही राजनीति आप देखना चाहते है तो इनको देखिये। इसमें आप को सबसे अच्छा उदाहरण मिलेगा कि किस तरह से हुकुमत करना चहिये। अफसोस की बात है कि हम मुसलमान कुरान और सहीह हदीस से दूर हो गये और सबसे पीछे को गये।
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प्रश्न: इस्लाम के अनुसार एक धार्मिक इंसान की क्या पहचान है।
उत्तर: इस्लाम के अनुसार जो अल्लाह/खुदा/ईश्वर/भगवान जो कहते है उसपे अमल करता है वो धार्मिक है। और अल्लाह कहते है: कि अल्लाह की बात मानो और अल्ल्लाह के रसूल की बात मानो।
तो अगर आप कुरान की कही बात पर अमल करेंगे और सहीह हदीस की लिखी बातो पर अमल करेंगे तो आप धार्मिक है।
इस्लाम के अंदर कुछ चीजे ५ हिस्सो मे बाटी जा सकती है। एक है फर्ज या कंपलसरी – ये करना ही चाहिए हर मुसलमान को। दूसरा है हराम: जो गलत है जिंदगी में करना ही नहीं चाहिए। ये दोनो एक दूसरे के अपोजिट है। इनके बीच तीन चीजे और है। जो हलाल केटेगरी में है। हराम के अलावा सब चीज हलाल हो जाती है। हलाल मे ४ केटेगरी है। एक है फर्ज जो करना ही चाहिए, दूसरा है मुस्तहब यानी सुन्ना. यानी करे तो बेहतर है. आपको प्लस प्वाइंट मिलेंगे। तीसरा है – मुबा-ऑप्शनल. करे तोह भी हरज नहीं, ना करे तोह भी कोई हरज नहीं। चोथा है मकरूह, यानी नही करे तो बेहतर है. और पांचवा है हराम.
तो एक धार्मिक इंसान को १००% फर्ज वाली चीजे करनी चहिये और हराम ना करे। तो मिनिमम रिक्वायरमेंट है कि वो १००% जो फ़र्ज है वो करे और जो हराम है वो कुछ भी ना करे। और धार्मिक बनना चाहता है तो जो मुस्तहब है जो एनकरेजड है जो सुन्नत है उसके ऊपर अमल करे। जितना ज्यादा अमल करेगा उतना ज्यादा धार्मिक होगा। और जितना मक्रूह है, डिसकरेजड है, अवायडेबल है, उससे दूर रहे। इन शॉर्ट अगर आप कुरान और सहीह हदीस पर अमल करेगे तो आप इस्लाम मे धार्मिक कहलाएगे।
प्रश्न: धर्म के नाम पर कत्ल हो रहा है जहा एक धर्म बहुमत मे है, वहा कम बहुमत वाले धर्म के लोगो का कत्ल हो रहा है। ऐसा क्यो है? तो अल्लाह, भगवान ने एक ही धर्म क्यो नही बनाया।
प्रश्न: अगर एक मुस्लिम लड़का एक हिन्दू लड़की से शादी करता है, और लड़का, हिन्दू लड़की के घर मे नमाज पढ़े, और हिन्दू लड़की उसके घर मे जाकर पूजा करे। तो ये क्या जायज है या नाजायज है?
उत्तर: सबसे पहले किसी चीज के कुछ नियम होते हैं। आप अगर गाड़ी रखेंगे, और गाड़ी का एक पहिया साईकिल का रखेंगे, एक पहिया टैक्टर का रखेंगे, तो क्या गाड़ी चलेगी? नहीं चलेगी। या चारो साईकिल के कर दो, या चारो टैक्टर का कर दो, इसलिए कुरान की आयत है सूरह बकराह की, सूरह न २, आयत न 221 मे अल्लाह तआला फ़र्माते है।
कि आप मुश्रिका से शादी नही कर सकते जब तक वो ईमान ना लाये। मतलब जो गैर मुस्लिम है और शिर्क कर रही है उससे आप शादी नही कर सकते जब तक वो ईमान ना लाये। और एक ईमान लाने वाली औरत, चाहे कितनी भी बदसूरत हो वो एक मुश्रिका से बेहतर है।
और आगे आयत कहती है की लड़की मुशरिक लडके से शादी नही कर सकती जब तक वो ईमान ना लाये। एक मोमिन आदमी चाहे कितना भी बदसूरत हो वो बेहतर है बजाये उससे जो शिर्क करता है। इसकी वजह ये है, कि इस्लाम में लिखा है कि अगर आप खुदा के अलावा किसी और को पूजते है। किसी और की इबादत करते है ये सबसे बडा गुनाह है।
और अल्लाह फ़रमाते है सूरह निसा मे, सूरह नम्बर 4, आयत नम्बर 48 मे, और आयत नम्बर 116 मे कि अल्लाह अगर चाहे तो कोई भी गुनाह को माफ़ कर सकता है लेकिन शिर्क को कभी नही माफ़ करेगा। अगर एक इंसान मुश्रिक जैसा मर गया तो अल्लाह उसे कभी भी माफ़ नही कर सकता कयोकि मुश्रिक वो शख्स है जो शिर्क करता है और ये सबसे बडा गुनाह है।
क्योंकि हमारा खालिक, हमारा मालिक, हमारा ईश्वर, हमारा खुदा , हमारा भगवान, अगर हम उसको गाली देंगे। ये सबसे बडा गुनाह है। जिसने हमें जिंदगी दी, जिसने ये सारी चीजे दी हमे दुनिया मे, अगर हम उसको गाली देगे। उसके अलावा किसी और की इबादत करेगे। ये शिर्क हुआ।
तो इसलिए इस्लाम में इजाजत नही है कि एक मुस्लिम लड़का या लड़की किसी मुश्रिक लड़का या लड़की से शादी करे। ये इजाजत नही है।
जहा तक की सवाल है कि एक आम मुसलमान हिंदू घर में नमाज पढ़ सकता है. अगर उसके सामने कोई मूर्ति नहीं है तो वह नमाज कही भी पढ़ सकता है अगर जगह साफ़ है. हमारे रसूल मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम फरमाते हैं कि सारी दुनिया, सारी धरती मोमिन के लिये मस्जिद है. यानी सारी दुनिया में आप कहीं भी नमाज पढ़ सकते है। देखना चाहिए कि साफ है तो हम नमाज पढ़ सकते है।
तो अगर आप हिन्दु के यहा जाते है और कोई मूर्ती आगे नही है तो नमाज पढ़ने मे कोई हर्ज नही है। तो हिंदू के यहां नमाज पढ़ सकते है, नमाज पढ़ने के लिये शादी करना जरूरी नही है।
इसलिए शादी के लिये शर्त है कि दोनो में ईमान हो।
और अगर आप हिंदू मजहब पढ़ेंगे तो हिन्दु मजहबी किताबो मे भी यही लिखा है: ना तस्य प्रतिमा अस्ति उस भगवान उस खुदा का कोई अक्स नही, कोई मूर्ति नही, कोई फ़ोटोग्राफ़ नही, कोई पेंटिंग नही, कोई पोर्ट्रेट नही, कोई आइडल नही, कोई स्टैचू नहीं
अगर ये मान ले कि कम से कम जो एक समान है हिन्दू और इस्लाम की मजहबी किताब मे, कम से कम उसके ऊपर अमल करे तो अक्सर हमारी मुश्किल दूर हो जाएगी जो एक समान नहीं है उसको कल डिस्कस करेंगे। और अगर आप तहकीक करते है हिन्दू मजहब की किताब पढ़ते है और इस्लाम मजहब की किताब पढ़ते हैं दोनो मे लिखा है कि खुदा एक है, दोनो मे लिखा है कि खुदा का कोई अक्स नही है, दोनो मे लिखा है कि खुदा का कोई बुत नही है, दोनो मे लिखा है कि खुदा के अलावा किसी और की इबादत नही करनी चाहिये, दोनों में लिखा है कि आखरी पैगम्बर पैगंबर मोहम्मद सल्लल्लाहो वसल्लम है,
दोनों धर्मों की किताबों में में लिखा है कि शराब नही पीना चहिये। अगर आप पढ़े कुरान मजीद सूरह मायेदा चैपटर नम्बर ५ आयत नम्बर ९० मे लिखा है शराब पीना हराम है।
और मनुस्मृति अध्याय ९ वर्स नम्बर २२५ उसमे लिखा है शराब पीना हराम है।
कुरान मजीद मे सूरह मायेदा चैपटर नम्बर ५ आयत नम्बर ३, सूरह बकराह चैपटर नम्बर २ आयत नम्बर १७३, सूरह अनआम चैपटर नम्बर ६ आयत नम्बर १४५ , सूरह नहल चैपटर नम्बर १६ आयत नम्बर ११५
इन्नमा हर्र-म अलैकुमुल् मैत-त वद्द-म व लह़्मल् – खिन्जीरि व मा उहिल् -ल लिग़ैरिल्लाहि बिही मे लिखा है
कि आप के लिए हराम है मरा हुए जानवर का गोस्त, खून, सुअर का गोस्त और वह खाना जिस पर अल्लह के अलावा किसी और का नाम लिया गया है ।
आप अगर हिंदू मजहबी किताब पढ़ेंगे तो उसमें भी लिखा हुआ है कि सुअर का गोस्त खाना हराम है।
अगर आप तहकीक करेंगे काफी यकसानियत है।
इस्लाम की मजहबी किताब मे लिखा हुआ है सूरह नूर चैपटर नम्बर २४ आयत नम्बर २४, ३०, ३१ मे हिजाब के बारे मे लिखा है। औरत को हिजाब मे होना चहिये, सर से ढका हुआ होना चहिये, उसका जिस्म सिर्फ़ जो दिख सकता है वो है चेहरा और हथेली।
आप अगर हिंदू मजहबी किताब पढ़ेंगे ऋग्वेद बुक नंबर ८, हिम नुम्बर ३३ श्लोक नम्बर १९ और बुक नंबर १०, हिम नुम्बर ८५ श्लोक नम्बर ३० मे लिखा हुआ है। की औरत को अपने सिर के पल्लू को डालना चाहिए चेहरे पे। ऋग्वेद मे भी लिखा हुआ है कि जब मर्द को देखे तो नजर नीचे करना चाहिये।
ये लिखा हुआ है कुरान में सूरह नूर, चैप्टर २४, आयत नम्बर ३० और ३१ मे
जब भी कोई मर्द खातून को देख ता है जो उसका करीबी रिश्तेदार नहीं है तोह उसे नजर नीचे करना चाहिये। इसी तरह जब भी कोई खातून मर्द को देखती है जो उसका शौहर और करीबी रिश्तेदार नहीं है तोह उसे नजर नीचे करना चाहिये।
तो इस तरीके से जो एक जैसा है उस पर तो अमल करो। लेकिन मजहब के ठेकेदार इस चीज का जिक्र ही नही करते। क्यों?
इसलिए गाड़ी चलने के लिये दोनो का रुल और रेगुलेशन एक ही होना चाहिये। इसी लिये दोनो लोग मोमिन होना जरूरी है।
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प्रश्न: इस्लाम कबूल करने पर क्या शाकाहारी को मांसाहारी होना जरूरी है?
उत्तर: इस्लाम में गोश्त खाना जरूरी नही है। इस्लाम में १००% शाकाहारी बनने के बाद भी एक इंसान अच्छा मुस्लिम हो सकता है। गोश्त खाना इस्लाम में फर्ज नहीं है।