07 सूरह अल-आराफ़ हिंदी में पेज 4

सूरह अल-आराफ़ हिंदी में | Surat Al-Araf in Hindi

  1. कालल्लज़ीनस्तक्बरू इन्ना बिल्लज़ी आमन्तुम् बिही काफिरून
    तब जिन लोगों को (अपनी दौलत दुनिया पर) घमन्ड था कहने लगे हम तो जिस पर तुम ईमान लाए हो उसे नहीं मानते (76)
  2. फ़-अ-करूनाक-त व अ़तौ अ़न् अम्रि रब्बिहिम् व कालू या सालिहुअ्तिना बिमा तअिदुना इन् कुन् -त मिनल् -मुर्सलीन
    ग़रज़ उन लोगों ने ऊँटनी के कूचें और पैर काट डाले और अपने परवरदिगार के हुक्म से सरताबी की और (बेबाकी से) कहने लगे अगर तुम सच्चे रसूल हो तो जिस (अज़ाब) से हम लोगों को डराते थे अब लाओ (77)
  3. फ़-अ-खज़त्हुमुर्रज्फतु फ़ अस्बहू फी दारिहिम् जासिमीन
    तब उन्हें ज़लज़ले ने ले डाला और वह लोग ज़ानू पर सर किए (जिस तरह) बैठे थे बैठे के बैठे रह गए (78)
  4. फ़ -तवल्ला अ़न्हुम् व का -ल या कौमि ल -क़द् अब्ल़ग्तुकुम् रिसाल -त रब्बी व नसह्तु लकुम् व लाकिल्ला तुहिब्बूनन्नासिहीन
    उसके बाद सालेह उनसे टल गए और (उनसे मुख़ातिब होकर) कहा मेरी क़ौम (आह) मैनें तो अपने परवरदिगार के पैग़ाम तुम तक पहुचा दिए थे और तुम्हारे ख़ैरख़्वाही की थी (और ऊँच नीच समझा दिया था) मगर अफसोस तुम (ख़ैरख़्वाह) समझाने वालों को अपना दोस्त ही नहीं समझते (79)
  5. व लूतन् इज् का-ल लिकौमिही अ-तअ्तूनल्-फ़ाहि-श-त मा स-ब-ककुम् बिहा मिन् अ- हदिम् मिनल-आलमीन
    और (लूत को हमने रसूल बनाकर भेजा था) जब उन्होनें अपनी क़ौम से कहा कि (अफसोस) तुम ऐसी बदकारी (अग़लाम) करते हो कि तुमसे पहले सारी ख़़ुदाई में किसी ने ऐसी बदकारी नहीं की थी (80)
  6. व लूतन् इज् का-ल लिकौमिही अ-तअ्तूनल्-फ़ाहि-श-त मा स-ब-ककुम् बिहा मिन् अ- हदिम् मिनल-आलमीन
    हाँ तुम औरतों को छोड़कर षहवत परस्ती के वास्ते मर्दों की तरफ माएल होते हो (हालाकि उसकी ज़रूरत नहीं) मगर तुम लोग कुछ हो ही बेहूदा (81)
  7. व मा का-न जवा-ब कौमिही इल्ला अन् कालू अख्रीजूहुम् मिन् कर् यतिकुम् इन्नहुम् उनासुंय्य-ततह़्हरून
    सिर्फ करनें वालों (को नुत्फे को ज़ाए करते हो उस पर उसकी क़ौम का उसके सिवा और कुछ जवाब नहीं था कि वह आपस में कहने लगे कि उन लोगों को अपनी बस्ती से निकाल बाहर करो क्योंकि ये तो वह लोग हैं जो पाक साफ बनना चाहते हैं) (82)
  8. फ -अन्जैनाहु व अह़्लहू इल्लम् र-अ-तहू कानत् मिनल ग़ाबिरीन
    तब हमने उनको और उनके घर वालों को नजात दी मगर सिर्फ (एक) उनकी बीबी को कि वह (अपनी बदआमाली से) पीछे रह जाने वालों में थी (83)
  9. व अम्तरना अ़लैहिम् म-तरन्, फ़न्जुर कै-फ़ का- न आकि – बतुल् – मुज्रिमीन *
    और हमने उन लोगों पर (पत्थर का) मेह बरसाया-पस ज़रा ग़ौर तो करो कि गुनाहगारों का अन्जाम आखिर क्या हुआ (84)
  10. व इला मदय – न अख़ाहुम् शुऐबन्, का-ल या कौमिअ्बुदुल्ला-ह मा लकुम् मिन् इलाहिन् गैरूहू, कद् जाअत्कुम् बय्यि-नतुम् मिर्रब्बिकुम् फ़-औफुल्के-ल वल्मीज़ा-न व ला तब्खसुन्ना-स अश्या – अहुम् व ला तुफ्सिदू फ़िल्अर्ज़ि बअ् -द इस्लाहिहा, ज़ालिकुम् खैरूल्लकुम् इन् कुन्तुम् मुअ्मिनीन
    और (हमने) मदयन (वालों के) पास उनके भाई शुएब को (रसूल बनाकर भेजा) तो उन्होंने (उन लोगों से) कहा ऐ मेरी क़ौम ख़ुदा ही की इबादत करो उसके सिवा कोई दूसरा माबूद नहीं (और) तुम्हारे पास तो तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से एक वाजे़ए व रौषन मौजिज़ा (भी) आ चुका तो नाप और तौल पूरी किया करो और लोगों को उनकी (ख़रीदी हुयी) चीज़ में कम न दिया करो और ज़मीन में उसकी असलाह व दुरूस्ती के बाद फसाद न करते फिरो अगर तुम सच्चे ईमानदार हो तो यही तुम्हारे हक़ में बेहतर है (85)
  11. व ला तक़अदू बिकुल्लि सिरातिन् तूअिदू-न व तसुद्दू -न अन् सबीलिल्लाही मन् आम-न बिही व तब्गूनहा अि-वजन् वज्कुरू इज् कुन्तुम् कलीलन् फ़-कस्स-रकुम् वन्जुरू कै-फ़ का-न आकि-बतुल मुफ्सिदीन
    और तुम लोग जो रास्तों पर (बैठकर) जो ख़़ुदा पर ईमान लाया है उसको डराते हो और ख़़ुदा की राह से रोकते हो और उसकी राह में (ख़्वाहमाख़्वाह) कज़ी ढूँढ निकालते हो अब न बैठा करो और उसको तो याद करो कि जब तुम (शुमार में) कम थे तो ख़ुदा ही ने तुमको बढ़ाया, और ज़रा ग़ौर तो करो कि (आखि़र) फसाद फैलाने वालों का अन्जाम क्या हुआ (86)
  12. व इन् का-न ताइ-फ़तुम् मिन्कुम् आमनू बिल्लज़ी उर्सिल्तु बिही व ताइ – फतुल – लम् युअ्मिनू फ़स्बिरू हत्ता यह्कुमल्लाहु बैनना व हु – व खैरूल् हाकिमीन
    और जिन बातों का मै पैग़ाम लेकर आया हूँ अगर तुममें से एक गिरोह ने उनको मान लिया और एक गिरोह ने नहीं माना तो (कुछ परवाह नहीं) तो तुम सब्र से बैठे (देखते) रहो यहाँ तक कि ख़ुदा (खुद) हमारे दरम्यिान फैसला कर दे, वह तो सबसे बेहतर फैसला करने वाला है (87)
  13. कालल् म-लउल्लज़ीनस्तक्बरू मिन् कौमिही लनुखिरजन्न-क या शुऐबु वल्लज़ी-न आमनू म-अ-क मिन् कर यतिना औ ल – तअूदुन्-न फ़ी मिल्लतिना, का-ल अ-व लौ कुन्ना कारिहीन
    तो उनकी क़ौम में से जिन लोगों को (अपनी हशमत(दुनिया पर) बड़ा घमण्ड था कहने लगे कि ऐ शुएब हम तुम्हारे साथ इमान लाने वालों को अपनी बस्ती से निकाल बाहर कर देगें मगर जबकि तुम भी हमारे उसी मज़हब मिल्लत में लौट कर आ जाओ (88)
  14. क़दिफ़्तरैना अलल्लाहि कज़िबन इन् अद्ना फी मिल्लतिकुम् बअ्- द इज् नज्जानल्लाहु मिन्हा, व मा यकूनु लना अन्-नअू-द फ़ीहा इल्ला अंय्यशा – अल्लाहु रब्बुना वसि -अ रब्बुना कुल् – ल शैइन् अिल्मन्, अलल्लाहि तवक्कल्ना रब्बनफ़्तह् बैनना व बै-न कौमिना बिल् – हक्क़ि व अन्-त खैरूल्-फ़ातिहीन
    हम अगरचे तुम्हारे मज़हब से नफरत ही रखते हों (तब भी लौट जाए माज़अल्लाह) जब तुम्हारे बातिल दीन से ख़ुदा ने मुझे नजात दी उसके बाद भी अब अगर हम तुम्हारे मज़हब मे लौट जाए तब हमने ख़ुदा पर बड़ा झूठा बोहतान बाधा (ना) और हमारे वास्ते तो किसी तरह जायज़ नहीं कि हम तुम्हारे मज़हब की तरफ लौट जाएँ मगर हाँ जब मेरा परवरदिगार अल्लाह चाहे तो हमारा परवरदिगार तो (अपने) इल्म से तमाम (आलम की) चीज़ों को घेरे हुए है हमने तो ख़ुदा ही पर भरोसा कर लिया ऐ हमारे परवरदिगार तू ही हमारे और हमारी क़ौम के दरमियान ठीक ठीक फैसला कर दे और तू सबसे बेहतर फ़ैसला करने वाला है (89)
  15. व क़ालल् म-लउल्लज़ी-न क-फरू मिन् क़ौमिही ल-इनित्तबअ्तुम् शुऔबन् इन्नकुम् इज़ल-लख़ासिरून
    और उनकी क़ौम के चन्द सरदार जो काफिर थे (लोगों से) कहने लगे कि अगर तुम लोगों ने शुएब की पैरवी की तो उसमें शक ही नहीं कि तुम सख़्त घाटे में रहोगे (90)
  16. फ़-अ-ख़ज़त्हुमुर्रज्फतु फ़अस्बहू फ़ी दारिहिम् जासिमीन
    ग़रज़ उन लोगों को ज़लज़ले ने ले डाला बस तो वह अपने घरों में औन्धे पड़े रह गए (91)
  17. अल्लज़ी -न कज़्ज़बू शुऐबन कअल्लम् यग्नौ फ़ीहा, अल्लज़ी-न कज़्ज़बू शुऐबन् कानू हुमुल खासिरीन
    जिन लोगों ने शुएब को झुठलाया था वह (ऐसे मर मिटे कि) गोया उन बस्तियों में कभी आबाद ही न थे जिन लोगों ने शुएब को झुठलाया वही लोग घाटे में रहे (92)
  18. फ़-तवल्ला अन्हुम् व का-ल या कौमि ल-कद् अब्लग्तुकुम् रिसालाति रब्बी व नसह्तु लकुम् फ़कै-फ़ आसा अला कौमिन् काफ़िरीन *
    तब शुएब उन लोगों के सर से टल गए और (उनसे मुख़ातिब हो के) कहा ऐ मेरी क़ौम मैं ने तो अपने परवरदिगार के पैग़ाम तुम तक पहुँचा दिए और तुम्हारी ख़ैर ख़्वाही की थी, फिर अब मैं काफिरों पर क्यों कर अफसोस करूँ (93)
  19. व मा अरसल्ना फी कर यतिम् मिन् नबिय्यिन् इल्ला अख़ज़्ना अह़्लहा बिल्बअ्सा-इ वज़्ज़र्रा-इ लअ़ल्लहुम् यज़्ज़र्रअून
    और हमने किसी बस्ती में कोई नबी नही भेजा मगर वहाँ के रहने वालों को (कहना न मानने पर) सख़्ती और मुसीबत में मुब्तिला किया ताकि वह लोग (हमारी बारगाह में) गिड़गिड़ाए (94)
  20. सुम् -म बद्दल्ना मकानस्सय्यि – अतिल् ह-स-न-त हत्ता अफ़ौ व कालू कद् मस् – स आबा अनज़्ज़र्रा उ वस्सर्रा – उ फ़- अख़ज्नाहुम् ब़ग्त – तंव् व हुम् ला यश्अुरून
    फिर हमने तकलीफ़ की जगह आराम को बदल दिया यहाँ तक कि वह लोग बढ़ निकले और कहने लगे कि इस तरह की तकलीफ़ व आराम तो हमारे बाप दादाओं को पहुँच चुका है तब हमने (उस बढ़ाने के की सज़ा में (अचानक उनको अज़ाब में) गिरफ्तार किया (95)
  21. व लौ अन् -न अह़्लल्कुरा आमनू वत्तकौ ल-फ़तह़्ना अलैहिम् ब-रकातिम् मिनस्समा-इ वल्अर्जि व लाकिन् कज़्ज़बू फ़-अख़ज़्नाहुम् बिमा कानू यक्सिबून
    और वह बिल्कुल बेख़बर थे और अगर उन बस्तियों के रहने वाले इमान लाते और परहेज़गार बनते तो हम उन पर आसमान व ज़मीन की बरकतों (के दरवाजे़) खोल देते मगर (अफसोस) उन लोगों ने (हमारे पैग़म्बरों को) झूठलाया तो हमने भी उनके करतूतो की बदौलत उन को (अज़ाब में) गिरफ्तार किया (96)
  22. अ-फ़ अमि-न अह़्लुल्कुरा अंय्यअ्ति-यहुम् ब अअ्सुना बयातंव-व हुम् ना इमून
    (उन) बस्तियों के रहने वाले उस बात से बेख़ौफ हैं कि उन पर हमारा अज़ाब रातों रात आ जाए जब कि वह पड़े बेख़बर सोते हों (97)
  23. अ-व अमि-न अह़्लुल्कुरा अंय्यअ्ति – यहुम् ब अअ्सुना जुहंव्वहुम् यल्अ़बून
    या उन बस्तियों वाले इससे बेख़ौफ हैं कि उन पर दिन दहाड़े हमारा अज़ाब आ पहुँचे जब वह खेल कूद (में मशग़ूल हो) (98)
  24. अ – फ़अमिनू मक्रल्लाहि फ़ला यअ्मनु मक़्रल्लाहि इल्लल् कौमुल – खासिरून*
    तो क्या ये लोग ख़ुदा की तद्बीर से ढीट हो गए हैं तो (याद रहे कि) ख़ुदा के दाव से घाटा उठाने वाले ही निडर हो बैठे हैं (99)
  25. अ-व लम् यह़्दि लिल्लज़ी-न यरिसूनल्-अर्-ज़ मिम् -बअ्दि अह़्लिहा अल्लौ नशा – उ असब्नाहुम् बिजुनूबिहिम् व नत्बअु अला कुलूबिहिम् फ़हुम् ला यस्मअून
    क्या जो लोग एहले ज़मीन के बाद ज़मीन के वारिस (व मालिक) होते हैं उन्हें ये मालूम नहीं कि अगर हम चाहते तो उनके गुनाहों की बदौलत उनको मुसीबत में फँसा देते (मगर ये लोग ऐसे नासमझ हैं कि गोया) उनके दिलों पर हम ख़ुद (मोहर कर देते हैं कि ये लोग कुछ सुनते ही नहीं (100)

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