मुस्लिम योद्धा जिसकी मृत्यु पर सलीबियों और मंगोलों ने मनाई खुशी
फिर अर्मेनिया के बादशाह बिटन की बदकिस्मती कि इस युद्ध के दौरान सुल्तान ने जहां उसके अनगिनत सैनिकों को मौत के घाट उतारा, वहां उसके बेटे को भी ज़िंदा गिरफ्तार कर लिया। अपने बेटे की गिरफ्तारी पर बिटन बड़ा परेशान और बेचैन हुआ। इसलिए अपने बेटे को सुल्तान से छुड़ाने के लिए उसने दंड राशि में एक रकम सुल्तान को अदा की। इसके जवाब में सुल्तान ने उसके बेटे को रिहा कर दिया। सुल्तान शायद कुछ समय और अर्मेनिया में रुकता उसके दूसरे बहुत से शहरों को जीतकर जो माल मिलता उससे अपने लिए और अपनी सेना के लिए फायदे हासिल करता। पर उसी दौरान सुल्तान को अपने जासूसों से ऐसी खबरें मिली जिसके कारण सुल्तान को अर्मेनिया से निकलकर वापस जाना पड़ा।
हुआ यह कि जिन दिनों सुल्तान अर्मेनिया में अपने आक्रमण में व्यस्त था। उसके जासूसों ने बताया कि सुल्तान की जीत की खबरें यूरोप तक पहुंच गई है और यूरोप में फिर एक बार सलीबी युद्ध की तैयारी उसी तरह शुरू हो गई है जिस तरह इससे पहले सुल्तान अम्मादुद्दीन जंगी, सुल्तान नूरुद्दीन जंगी और सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी के दौर में हुई थी। साथ ही सुल्तान को यह भी खबरें पहुंचने शुरू हो गई कि यूरोप वालों ने एक बहुत बड़ी सेना तैयार कर ली है और अब वह सेना सुल्तान के इलाकों पर आक्रमण करने के लिए तैयार है। यह खबरें सुनकर सुल्तान ने अर्मेनिया के अंदर अपना आक्रमण रोक दिया। अर्मेनिया से वह निकला पलटा और यूरोपीय सलीबियों का मुकाबला करने के लिए समय बर्बाद किए बगैर वह काहिरा पहुंचा।
सुल्तान जब काहिरा पहुंचा तो काहिरा के लोगों ने सुल्तान की जीत की वजह से उसका ऐसा शानदार स्वागत किया जिसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलती। साथ ही लोगों ने जीत के बाद सलामती के साथ सुल्तान के वापस आने पर शुकराने की नमाज़े भी पड़ी। यूरोपीय देशों में सबसे पहले फ्रांस का बादशाह लूई मैहम सुल्तान के खिलाफ हरकत में आया। 22 साल पहले भी फ्रांस के बादशाह ने मुसलमानों के इलाकों पर आक्रमण करके सातवीं सलीबी जंग की शुरुआत की थी और सुल्तान बैबर्स ने ही उसे अपमानजनक तरीके से हराया था और उसे गिरफ्तार करके कैदी बना कर रख लिया था।
लेकिन उसका धार्मिक जोश अभी तक ठंडा नहीं हुआ था। जब उसने अंताकिया को मुसलमानों से छीनने के सपने एक बार फिर देखने शुरू किए। उसी बीच में जब उसने अंताकिया की ईसाई सल्तनत के खात्मे की खबर सुनी तो उसका खून खौल उठा।वह पवित्र भूमि अंताकिया को मुसलमानों से छीनने के सपने एक बार फिर देखने लगा। उसी बीच उसको पापा-ए-आज़म क्लिमेंट चाहरन का एक पत्र मिला जिसमें फ्रांस के बादशाह को बताया गया था। कि वह ईश्वर के लिए और पवित्र स्थान अंताकिया को मुसलमानों के पंजे से छुड़ाने की कोशिश करे। पापा-ए-आज़म का पत्र पढ़कर फ्रांस का बादशाह सलीबी युद्ध के लिए बिल्कुल तैयार हो गया और दिन – रात युद्ध की तैयारी में व्यस्त हो गया। सन् 1270 में वह सलीबी सैनिकों की बहुत बड़ी सेना लेकर फ्रांस से अंताकिया की तरफ लेकर रवाना हुआ। जिस समय वह जहाज़ में सवार हो रहा था उस समय उसके कुछ सरदारों ने मशवरा दिया। कि सीधे तौर पर अंताकिया पर जाने और उस पर आक्रमण करने से बेहतर है कि पहले उत्तरी अफ्रीका के मुसलमानों को हरा दिया जाए।
अगर ऐसा न किया जाएगा तो अंताकिया में हमारे लिए कठिनाईयां उठ खड़ी होगी। वह चाहते थे पहले मिस्र और सीरिया की सल्तनत को नुकसान पहुंचा कर उसे अपने सामने पराजित कर दिया जाए। ऐसा करने के बाद अंताकिया पर भी किसी परेशानी के बगैर कब्ज़ा हो जाएगा। फ्रांस के बादशाह ने अपने सरदारों की इस सलाह को मान लिया। अपनी सेना के साथ रवाना हुआ सबसे पहले वह अफ्रीका में ट्यूनस के तट पर उतर गया ट्यूनस में उस समय ‘बनू मरीन’ की हुकूमत थी और यहां हुकूमत करते हुए उन्हें अभी सिर्फ दो – तीन वर्ष ही गुजरे थे। जिसकी वजह से वह अपने तटीय इलाकों का कोई खास प्रबंध नहीं कर सके थे। फिर भी वह तटीय इलाकों को छोड़कर अपने देश के अंदरूनी इलाकों में आक्रमणकारी सलीबियों से दो-दो हाथ करने के लिए पूरी तरह तैयार हो गए थे।
दूसरी तरफ सुल्तान बैबर्स काहिर में बैठकर पूरी स्थिति पर कड़ी नज़र रखे हुए था। कि उसके जासूस उसे यूरोपीय आक्रमणकारियों की एक-एक हरकत की खबर दे रहे थे और उसने भी उसे यूरोपीय सलीबियों का मुकाबला करने के लिए ज़ोरदार तरीके से सैन्य तैयारियां शुरू कर दी थी। इसके अलावा फ्रांस का बादशाह लूई मैहम सुल्तान बैबर्स के लिए अजनबी और अनजान तो न था। पर इससे पहले मुसलमान मंसूरा के मैदान में लूई मैहम बहुत बुरे तरीके से पराजित कर चुके थे। जिस समय लूई मैहम ट्यूनस के तट पर उतरा। उस समय बनू मरीन उन को नुकसान पहुंचाने के लिए देश के अंदरूनी हिस्सों में पूरी तरह तैयार थे। दूसरी तरफ सुल्तान बैबर्स भी फ्रांसीसियों को हराने के लिए अपनी तैयारियों को पूरा कर चुके थे। लेकिन इन दो शक्तियों के अलावा एक और शक्ति भी इसी दौरान हरकत में आ गई और वह कुदरत की तरफ से थी।
हुआ यह कि जिस समय लूई मैहम अपनी सेना के साथ ट्यूनस के तट पर उतरा। वह चाहता था कि आगे बढ़कर मुसलमानों पर आक्रमण करें और उनको मारे। तब ही उसकी सेना में प्लेग की बीमारी फैल गई। बड़ी तेज़ी के साथ उसके सैनिक मरने लगे। उसका वही हाल हुआ जो मक्का में हमले के समय अबराहा की सेना का हुआ था। ट्यूनस के तट पर हजारों सलीबी अपने बादशाह समेत ताऊन की चपेट में आ गए और मर गए। जो बाकी बच गए उनमें भगदड़ मच गई और जिसका जिधर मुँह था वह वहां भाग गया। इस तरह फ्रांस का शहंशाह लूई मैहम जिस आठवीं सलीबी जंग की शुरुआत मुसलमानों के खिलाफ करना चाहता था। उसकी बदनसीबी कि उसे नाकामी और असफलता हाथ लगी।
फ्रांसीसी सेना की तबाही – बर्बादी और उनके बादशाह के मर जाने के बाद इंग्लैंड में भी धार्मिक जोश उठ खड़ा हुआ। इंग्लैंड के बादशाह ‘हेनरी शॉन’ का बेटा ‘एडवर्ड’ धार्मिक जोश और जज़्बे में आकर मुसलमानों के खिलाफ सलीबी युद्ध की शुरुआत करने पर तैयार हुआ। हेनरी शॉन का यही बेटा एडवर्ड उसके बाद एडवर्ड प्रथम के नाम से इंग्लैंड का बादशाह बना था। एडवर्ड ने मुसलमानों के खिलाफ सलीबी युद्ध की शुरुआत करने के लिए बहुत से सरदारों को अपने साथ मिला लिया। इस तरह वह एक बहुत बड़ी सेना लेकर फिलस्तीन के तरफ रवाना हुआ। फिलस्तीन के तरफ सफर करते हुए एडवर्ड रास्ते में कुछ समय सतालिया में भी रुका। यहां तक की अपनी बहुत बड़ी सेना के साथ फिलस्तीन के शहर अक्का पहुंच गया। लेकिन इंग्लैंड की इस सेना का अंजाम भी फ़्रांसीसी सेना के अंजाम से मिलता-जुलता ही हुआ।
फिलस्तीन के तट पर पहुंचकर सबसे पहले एडवर्ड को बहुत तेज़ बुखार आ गया। कई हफ्तों तक लगातार बुखार में पड़े रहने के बाद जब वह तंदुरुस्त हुआ बुखार से वह ठीक हुआ। तो एक दिन एक मुसलमान क़ासिद किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति का पत्र लेकर उसके पास पहुंचा। एडवर्ड ने जब पत्र पढ़ना शुरू किया, तो आने वाले उस कासिद ने एक चाकू निकाला और उसको घोंप दिया। एडवर्ड बहुत ज़ख्मी हुआ। लेकिन कई महीनों तक इलाज चलने के बाद उसकी जान बच गई। लेकिन वह खौफ और डर का शिकार हो गया था। एडवर्ड पर इस हमले से उसकी सेना में भी डर फैल चुका था। यह स्थिति देखते हुए एडवर्ड का सारा धार्मिक जोश निकल गया उसका दिल टूट गया। दूसरी तरफ इंग्लैंड में उसके पिता हेनरी शॉन को जब खबर हुई कि फिलस्तीन में उसके बेटे पर चाकू से हमला हुआ है जिससे वह मर भी सकता था। तो उसने पत्र पर पत्र भेजकर उसको वापस आने पर ज़ोर देना शुरू कर दिया। अतः एडवर्ड 14 महीने फिलस्तीन में रहने के बाद असफल और नाकाम अपने देश लौट गया।
फिलस्तीन में उसके रहने के दौरान इंग्लैंड के सलीबियों को मुसलमानों के किसी भी इलाके पर आक्रमण करने या अत्याचार करने की हिम्मत न पड़ी। खुद सुल्तान बैबर्स ने भी उनको कोई महत्व न दिया। वास्तव में सुल्तान चाहता था कि जब इंग्लैंड की सेना आगे बढ़ने की कोशिश करेगी तो वह उनका रास्ता रोकेगा और समुद्र के रास्ते भाग जाने पर मजबूर कर देगा। फिलस्तीन में सुल्तान बैबर्स की लगातार जीत ने उसका खौफ और दबदबा बिठा दिया था और यह सब हारे हुए सलीबी फिलस्तीन से भागकर अब कबरस में जमा होना शुरू हो गए थे। वहां उन्होंने अपनी रहने की जगह बना ली। अब एक बहुत बड़ा समुद्री जहाज़ तैयार करना शुरू किया ताकि इस समुद्री जहाज़ की मदद से सुल्तान बैबर्स के इलाके पर आक्रमण करके अपनी पहले की हारों की भरपाई कर सकें।
सुल्तान को जब उनके इरादों की खबर हुई तो उनका खात्मा करने के लिए एक जंगी समुद्री जहाज़ कबरस की तरफ रवाना किया। लेकिन बदकिस्मती से यह समुद्री जहाज़ कबरस न पहुंच सका। इसलिए कि रास्ते में एक खौफनाक समुद्री तूफान का शिकार हो गया था सुल्तान को अपने समुद्री जहाज़ के नुकसान का बहुत दुख और सदमा हुआ। फिर भी उसने हिम्मत नहीं हारी और आदेश दिया कि तुरंत एक समुद्री जहाज़ का काम शुरू कर दिया जाए। अतः कम समय में सुल्तान एक बहुत बड़ा और नया जहाज़ तैयार करने में कामयाब हो गया जो पहले समुद्री जहाज़ से बहुत बड़ा और मजबूत था। इस समुद्री जहाज़ की तैयारी के बाद उस से काम लेने का मौका न मिला। इसलिए कि कबरस में जो सलीबी जाकर जमा हुए थे और वह मुसलमानों के इलाकों पर आक्रमण करने की सोच रहे थे। जब उन्हें खबर हुई कि सुल्तान ने एक बहुत बड़ा समुद्री जहाज़ तैयार कर लिया है तो उनके हौसले कमज़ोर हो गए और अपने इरादे उन्होंने स्थगित कर दिए।
फिर भी सुल्तान को अपने समुद्री जहाज़ का इतना फायदा तो जरूर हुआ कि आने वाले समय में मुसलमानों के दुश्मनों को समुद्र के रास्ते से सुल्तान की सल्तनत पर आक्रमण करने की कभी हिम्मत न हुई। यूरोप के तरफ से जब सलीबी युद्ध की शुरुआत करने का खतरा टल गया इंग्लैंड और फ्रांस की सेनाएं असफल हो गईं। तब सुल्तान ने फिर अपने पहले वाले काम शुरू करने का इरादा किया और फिलस्तीन में वह इलाके जो अभी तक फिलस्तीन में सलीबियों के कब्ज़े में थे उन पर आक्रमण करके उन्हें जीतने का इरादा कर लिया। अतः सुल्तान सन् 1271 में अपनी सेना के साथ काहिरा से निकला और ‘हिस्नुलअकराद’ की तरफ गया।
सुल्तान बैबर्स का एक जगह से दूसरी जगह जाना इतनी तेज़ था कि सलीबी उसके इरादों को समझ न सके। सुल्तान अब काहिरा से निकलकर उनके किस किले या शहर की तरफ जाएगा। अभी वह सुल्तान के बारे में बातें ही कर रहे थे कि वह किस शहर को अपना निशाना बना सकता है। कि सुल्तान अपनी सेना के साथ हिस्नुलअकराद के सामने आ गया और जल्द ही उसका जायज़ा कर लिया। यह किला एक कोहिस्तानी सिलसिले की चोटी पर बना हुआ था बहुत मज़बूत किला समझा जाता था और पुराने दौर के किलो में बहुत मज़बूत समझा जाता था। यह किला तराबलस, तरतूस, हमस और हम्माद शहरों के बीच में पड़ता था। इस किले में हर समय दो हजार सलीबी सैनिक रहते थे। सुल्तान ने जब हिस्नुलअकराद पर आक्रमण किया। तब उसकी सुरक्षा पर टैंपलर्स की एक सेना लगी थी पहले उन्होंने इरादा किया कि युद्ध को बढ़ावा देंगे। सुल्तान का मुकाबला करेंगे, सुल्तान को चारों तरफ से घेर लेंगे।
लेकिन जब सुल्तान ने ताकतवर अंदाज़ में हमले शुरू किए और उनके कई सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया तो वह सुल्तान के सामने हथियार डालने पर मजबूर हो गए। सुल्तान ने हिस्नुलअकराद के इस किले पर कब्ज़ा करने के बाद इसकी मरम्मत कराई और हिस्नुलअकराद की दीवार पर अपनी जीत का एक लेख भी लिखवाया। हिस्नुलअकराद को जीतने के बाद सुल्तान अपनी सेना के साथ फिर जोश में आया और एक बार फिर तराबलस के सामने आया। इससे पहले भी सुल्तान एक बार तराबलस के सामने आया था फिर एकदम वहां से हटकर अंताकिया की तरफ गया और उसे जीत लिया। इस बार जब सुल्तान तराबलस के सामने आया तब तराबलस के लोग कांप गए। उन्हें यक़ीन हो गया कि सुल्तान इस बार तराबलस को नहीं छोड़ेगा।
इसके बाद वही हुआ जो इससे पहले हो चुका था एक दिन जब तराबलस के लोग उठे तो उन्होंने देखा कि सुल्तान और उसकी सेना वहां नहीं थी इसलिए कि सुल्तान ने पूरा जायज़ा ले लिया और बेरूत, शाहिदा और सूर को एक तरफ छोड़ते हुए उसने एकदम ‘अलकरीम’ नाम के किले पर आक्रमण कर दिया। इस किले को ‘माउंट फॉर्ट’ के नाम से भी जाना जाता था। किले में रहने वाले सलीबियों के लिए यह हमला बिल्कुल उनकी सोच से बाहर था। इसलिए कि अभी कुछ दिन पहले तो सुल्तान तराबलस के पास पड़ाव किए हुए था अचानक जब वह इनके सामने आया तो वे दंग रह गए। अपने आप को बचाने के लिए उन्होंने अक्का के सलीबियों से मदद मांगी ताकि दो सेनाएं मिलकर सुल्तान से बचाव करें।
लेकिन जब तक अक्का से उन लोगों को मदद पहुंचती, सुल्तान ने अपने हमलों में तेज़ी और अधिकता पैदा करते हुए किले की सारी मज़बूती को खत्म कर दिया और किले में दाखिल हो गया। इस तरह यह किला भी सुल्तान के हाथों जीत लिया गया और इस किले पर कब्ज़ा करके सुल्तान ने इसे बिल्कुल बर्बाद और तबाह कर देने का आदेश दिया और उस समय वहां से निकला जब उस मज़बूत किले की बुनियादें तक खोदकर तबाह और बर्बाद कर दी गई। ऐसा सुल्तान ने इसलिए किया था क्योंकि आने वाले समय में फिर कोई सलीबी सेना वहां रहकर मुसलमानों के लिए खतरा न बने और जो किले सुल्तान ने अभी जीते नहीं थे और उन पर आक्रमण करने का इरादा रखता था उन किलों को भी अपना आने वाला समय नज़र आ रहा था। उनके सलीबी शासक सर जोड़कर बैठे और काफी बहस के बाद फैसला किया गया कि सुल्तान से सुलह कर लेनी चाहिए।
अगर ऐसा न किया गया तो सुल्तान एक-एक करके सबको जीतते हुए फिलस्तीन से उन्हें मिटाकर रख देगा। अतः बाकी बचने वाले सभी किलों ने अपने राजदूतों को एक साथ सुल्तान की खिदमत में भेजा। जब यह राजदूत सुल्तान की खिदमत में आए तो बहुत परेशानी और बेबसी के अंदाज में सुलह का पैगाम दिया और अब हमेशा आज्ञाकारी और फरमाबरदार बने रहने का वादा किया। सुल्तान क्योंकि बड़ा रहम दिल और सच्चा इंसान था इसलिए सलीबियों के अनुरोध पर उसका दिल भर आया और उसने कुछ शर्तों पर सुलह करने पर तैयार हो गया। पहली शर्त यह थी कि सलीबी अपने किलो की मौजूदा स्थिति में कोई मज़बूती नहीं करेंगे, दूसरी शर्त यह थी कि वह इन किलो और शहरों में रहने वाले मुसलमानों से सम्मान का बर्ताव करेंगे और नए इलाकों के मुसलमानों से भी छेड़छाड़ नहीं करेंगे। सलीबियों ने सुल्तान की इन शर्तों को तुरंत मान लिया।
इस तरह सलीबियों ने समझौता करने के बाद अब आगे के लिए सुल्तान का आज्ञाकारी और फरमाबरदार बने रहने का वादा किया। इस समझौते का महत्व इस बात से और बढ़ गया की इस समझौते पर इंग्लैंड के बादशाह के भी हस्ताक्षर हुए थे। अतः सबने सुल्तान बैबर्स की अधीनता और फरमाबरदारी स्वीकार कर ली। मंगोलो और सलीबियों को अपने सामने झुकाने और उनकी ताकत और शक्ति का खात्मा करने के बाद अब सुल्तान एक तीसरी शक्ति के तरफ ध्यान देने लगा और यह ‘बातिनी’ थे। जिन्हें हशीशैन भी कहते थे। इसकी बुनियाद एक व्यक्ति ‘हसन-बिन-सबा’ ने रखी थी। वह दुनिया के हिसाब से एक मामूली हैसियत का आदमी था लेकिन उसने अपनी असाधारण समझ और ऊंची हिम्मत की वजह से बड़ी तरक्की हासिल की। उसने पहले किला ‘तुलमौत’ पर कब्ज़ा किया जो मज़नदान में बहुत पेचीदा घाटियों के अंदर एक ऊंचे पहाड़ की चोटी पर बना हुआ था और किसी दुश्मन के लिए खून की नदी में तैरे बगैर इस पर कब्ज़ा करना असंभव था।
हसन-बिन-सबा ने इस किले को अपना रहने का स्थान बनाया और फिर कई दूसरे किलो पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया। सुल्तान मलिक शाह सल्ज़ूकी के आखिरी समय में हसन के नेतृत्व में बातिनियों ने बड़ी तेज़ी से अनगिनत किलो पर कब्जा करके अपने उद्देश्य को बहुत मज़बूत और अटूट बना लिया था। हसन-बिन-सबा ने कठिनाइयां पैदा करने वाले पहाड़ों से घिरी हुई एक पुर्फज़ा घाटी में एक बनावटी जन्नत भी बनवाई। प्रस्तावकों इस बनावती जन्नत का एक ऐसा नक्शा बताया है कि आंखों के सामने असली जन्नत के नज़ारे घूम जाते हैं। हसन अपने कुछ शिष्यों को भांग पिला कर मदहोश कर देता और फिर उनको इसी मदहोशी की हालत में इस बनावट जन्नत में भेज दिया जाता। जहां बहुत खूबसूरत लड़कियां रख दी जाती थी। कुछ दिन उनको अंदर रखा जाता। फिर दुबारा मदहोश करके जन्नत से बाहर निकाल दिया जाता और फिर उसे कोई काम दे दिया जाता और उससे कहा जाता कि वह काम करोगे तो दुबारा उसी जन्नत में जाओगे। इसलिए वह लोग दुबारा उस जन्नत में जाने के लिए कठिन से कठिन काम करने पर भी तैयार हो जाते थे।
इतनी ताकत और शक्ति हासिल करने के बाद हसन-बिन-सबा और उसके उत्तराधिकारी जिस व्यक्ति को विरोधी पाते उसे किसी शिष्य के हाथों मरवा देते। उनके पास मारने के लिए हथियार ज़हर लगी हुई तेज़ धार की छोरी या छोटी तलवार होती थी। उन्होंने मुसलमानों के बहुत से सरदारों, शासकों और सियासी पथ-प्रदर्शकों को मारा जिनमें कुछ शासकों के नाम भी आते हैं इन ज़ालिमों ने मुसलमानों के सहायक और बहादुर योद्धा सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी पर भी हमला करने पर अफसोस न किया। यह अलग बात है कि सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी अपनी किस्मत की वजह से उनके हाथों से बच निकले। यह बातिनी लगभग 170 साल तक इस्लामी दुनियां के लिए शरीर का ज़ख्म बने रहे। खुदा की कुदरत कि उनकी केंद्रीय शक्ति का खात्मा भी एक इस्लाम दुश्मन समूह के हाथों हुआ।
हलाकू खाँन मुसीबत की रैली की तरह किला तुलमौत की तरफ बढ़ा। उसकी ईंट से ईंट बजा दी उस समय बातिनियों का शासक रुकनुद्दीन खुरशाह था। हलाकू ने बातिनियों के लगभग 100 से ज्यादा किले बर्बाद कर दिए और 12 हज़ार से ज़्यादा बातिनियों को मार दिया। हलाकू ने यद्यपि बातिनियों को बड़ी गहरी चोट पहुंचाई थी लेकिन वह उनका पूरे तौर पर खात्मा नहीं कर सका। इसलिए की बातिनियों के कुछ किले सीरिया के इलाकों में स्थित थे। सुल्तान बैबर्स ने क्योंकि मंगोलों को सीरिया से बाहर निकाल दिया था इसलिए बातिनियों के वह किले उनके हमलों से बच गए थे यह किले पहाड़ी इलाकों में बहुत सुरक्षित स्थान पर बनाए गए थे और इनकी सुरक्षा के लिए सैनिक हर समय लड़ने के लिए तैयार रहते थे।
उन लोगों ने हलाकू के हाथों अपने दूसरे किलो से कोई सबक हासिल न किया बल्कि सलीबी सैनिकों के साथ मिलकर यह मुसलमानों को नुकसान पहुंचाया करते थे साथ ही उन्होंने यूरोप के ईसाई बादशाहो से भी मुसलमानों के खिलाफ दोस्ती शुरू कर दी थी। बातिनियों ने सुल्तान बैबर्स के खिलाफ साजिश की थी और इधर – उधर के मुसलमानों को भी नुकसान पहुंचाया था। सुल्तान ने कई साल तक उनकी हरकतों को सहन किया लेकिन आखिर उसके सब्र का पैमाना भर गया और सलीबियों को अपने सामने पूरे तौर पर परास्त करने के बाद उनकी तरफ गया। एक तूफानी आक्रमण में सुल्तान ने उनके किलों पर हमले किए एक के बाद दूसरे की ईंट से ईंट बजाता चला गया। जिन लोगों ने उसका मुकाबला किया वह सुल्तान और उसकी सेना से बहुत ज़िल्लत और अपमान के हाथों मारे गए। इस तरह बातिनियों को जहां हलाकू के हाथों नुकसान पहुंचा वहां बातिनियों को सुल्तान बैबर्स ने अंजाम तक पहुंचाया।
इनमें से जो लोग बचे और सुल्तान से माफी मांगी, तो सुल्तान ने उन्हें अपनी सेना की निगरानी में मिस्र के अंदर बसाया और उन्हें सुकून और चैन की ज़िंदगी गुजारने का मौका दिया। सुल्तान ने अब तीन शक्तियों को अपने सामने पराजित कर दिया था। एक मंगोल, दूसरे सलीबी और तीसरे बातिनी। इसके बाद वह अपनी सेना के साथ काहिरा वापस आ गया। लेकिन जल्द ही उसके लिए एक और अभियान उठ खड़ा हुआ। इसलिए की सूडान के ईसाई बादशाह डेविड ने सुल्तान के इलाकों पर आक्रमण करके मुसलमानों को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया था। सुल्तान को जब उसके इरादों की खबर हुई तो सुल्तान सेना लेकर काहिरा से निकला और डेविड के खिलाफ उसने तूफानी आक्रमण का इरादा कर लिया। डेविड ने जल्द एक स्थान पर सुल्तान के साथ मुकाबला किया। लेकिन उसे बहुत बुरी हार का सामना करना पड़ा। यहां तक की सुल्तान डेविड के इलाकों में आक्रमण करता हुआ उसके बहुत मज़बूत शहर ‘नौबा’ तक जा पहुंचा।
डेविड ने जब देखा कि कहीं भी उसके कदम सुल्तान के सामने जम नहीं सकते और सुल्तान जगह-जगह उसे हराता हुआ उसकी पूरी सल्तनत को अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। तो उसे समझ आ गया कि सुल्तान उसकी पूरी सल्तनत पर कब्ज़ा कर लेगा। इसलिए परेशान होकर वह सुल्तान के पास आया और गिड़-गिड़ाकर माफी मांगने लगा और आगे हमेशा सुल्तान का आज्ञाकारी और फरमाबरदार बने रहने का वादा किया। साथ ही उसने तावान (वह रकम और सम्मान जो पराजित राज्य विजेता को देता है) देने के साथ-साथ सालाना राजस्व भी देने का वादा किया। सुल्तान ने इस वादे पर उसकी जान नहीं ली। सुल्तान इस अभियान से मुक्त हुआ ही था। कि उसके लिए एक और अभियान उठ खड़ा हुआ और ये हलाकू खाँन के बेटे यह ‘इबाका खाँन’ की तरफ से था।
हलाकू खाँन मारा जा चुका था क्योंकि मंगोलो पर आक्रमण करके एक तरह से सुल्तान ने उनकी कमर तोड़ दी थी इसलिए गैर-मुस्लिम मंगोलों ने हलाकू खाँन के बेटे इबाका खाँन की अधीनता में शक्ति पकड़ते हुए सीरिया पर आक्रमण करके मुसलमानों के इलाकों पर कब्ज़ा करने की कोशिश की। लेकिन सुल्तान बिल्कुल तैयार था। मंगोलों को उसने सीरिया पर चढ़ाई करने की फुर्सत ही न दी। सुल्तान ने अपने सेनापति ‘अमीर क्लांप’ को उनसे युद्ध लड़ने के लिए रवाना किया। जिसने हलाकू खाँन के बेटे इबाका खाँन की सेना को लगातार पराजित करते हुए इस्लामी सीमाओं से भाग जाने पर मजबूर कर दिया।
पराजित होने के बाद हलाकू खाँन के बेटे इबाका खाँन ने सलीबियों से मदद हासिल करके और उनकी सहायता से एक बार फिर मुसलमानों के इलाकों पर आक्रमण करके अपनी पहले की हारों का बदला लेना चाहा। लेकिन अभी वह आगे ही बढ़ रहा था कि सीरिया की सीमा के पास एक मैदान में इबाका खाँन और सुल्तान का टकराव हुआ। इस टकराव में सुल्तान ने मंगोलों को ऐसे बुरी तरह पराजित किया कि इससे पहले एन-ए-जालूत में मंगोलो को जो हार हुई थी यह हार उस हार से भी ज्यादा अपमानजनक थी। इससे मंगोलों पर एक तरह से सुल्तान का खौफ जारी हो गया था और आने वाले दौर में उन्हें कभी भी मुसलमानों के इलाकों पर आक्रमण करके फायदे हासिल करने की हिम्मत और बहादुरी न हुई।
इस युद्ध में मंगोलों को पराजित करने और मार भगाने के बाद, सुल्तान जिस समय दमिश्क में रहता था। वह तेज़ बुखार में पड़ गया। चिकित्सकों ने बहुत इलाज किया लेकिन क्योंकि सुल्तान का आखिरी समय आ चुका था। इसलिए किसी भी चिकित्सक का कोई इलाज असरदार साबित न हुआ और सुल्तान सन् 1277 को इस्लामी दुनियां के महान नायक और दुनियां का प्रसिद्ध सेनापति 57 वर्ष की उम्र में इस दुनियां से चला गया। सुल्तान की मृत्यु पर इस्लामी दुनियां में बहुत दुख हुआ और उसकी मगफिरत के लिए दुआएं मांगी गई। इसके विपरीत सलीबियों, मंगोलों और इसी तरह की दूसरी शक्तियों ने अपने सबसे बड़े दुश्मन की मौत पर बहुत खुशी का इज़हार किया।
दमिश्क को एक बार फिर यह श्रेय हासिल हुआ कि इसने अपने दौर के सबसे बड़े इस्लामिक योद्धा को अपनी मिट्टी के अंदर मिला लिया। इससे पहले अलमुल्कुल आदिल, सुल्तान नूरुद्दीन ज़ंगी, योद्धा सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी भी वहीं दफन हुए थे। सुल्तान बैबर्स को भी वही दफन किया गया। संयोग की बात इस्लाम के इतिहास की इन तीनों बड़ी शख्सियतों ने सलीबियों के खिलाफ युद्धों में अपना नाम कमाया और सलीबी शक्तियों को खत्म करते हुए मुसलमानों की रक्षा की तथा तीनों ही दमिश्क में मर गए और तीनों दमिश्क ही में दफन हुए। दमिश्क में सुल्तान बैबर्स का मकबरा उसके लकब ‘अलमुल्कुज़्ज़ाहिर’ के संबंध से ‘अज़्ज़ाहिर’ कहलाता है। कहते हैं वहाँ आजकल बहुत बड़ा पुस्तकालय है।
प्रसिद्ध अमेरिकी प्रस्तावक फ्लिप के विचारों के अनुसार इस पुस्तकालय में दुनियां का एक सबसे महान नुस्खा मौजूद है वह कागज पर लिखा गया है वह मसाइले इमाम अहमद बिन हंबल कहलाता है और इस पर जो तारीख लिखी है वह हिजरी 226 है। सुल्तान की मृत्यु के बाद सलीबियों और मंगोलों ने मुसलमानों के इलाकों पर आक्रमण करके फायदे हासिल करने की कोशिश की। लेकिन वह ऐसा न कर सके। इसलिए कि सुल्तान ने जो सेना तैयार की थी और उस सेना में जो सेनापति था उन्होंने सुल्तान के बाद भी उन शक्तियों को सुल्तान ही के अंदाज में जवाब दिया।
इस तरह सुल्तान ने इस्लामी दुनियां की सुरक्षा के लिए जो घेरा बनाया था वह उसके बाद भी लंबे समय तक बना रहा और कोई इस्लाम दुश्मन शक्ति इस घेरे को पार करके मुसलमानों के लिए नुकसान का कारण न बन सकी। अपने बेमिसाल कारनामों की वजह से सुल्तान जब तक ज़िंदा रहा, सार्वजनिक
तौर पर इस्लामी दुनियां के लिए और खास तौर पर मिस्र के लोगों और सीरिया की आंखों का तारा बना रहा और जब वह इस दुनिया से चला गया। तो उसके बड़े-बड़े कारनामे इस्लामी इतिहास के सुनहरे अध्याय का हिस्सा बन गए।