सुलतान रुकनुद्दीन बैबर्स – भाग 5

कैसे 12 घंटे के अंदर बैबर्स ने सलीबियों के महल पर विजय प्राप्त की

उन दोनों सल्तनतों में तेज़ व्यापारिक मुकाबला था लेकिन दोनों ही सुल्तान को अपना सच्चा दोस्त मानने लगे थे। पश्चिमी प्रस्तावक ने इस सिलसिले में एक अजीब वाक्य लिखा है जिसे उन्होंने सुल्तान बैबर्स की बहुत अच्छी सियासत बताई है। उन्होंने बताया है कि एक बार इन दोनों रियासतों के संबंध बहुत खराब हो गए थे। तब दोनों पक्षों ने सुल्तान से अपील की कि वह तीसरा व्यक्ति बनकर उनके झगड़े को खत्म करा दे। अतः सुल्तान ने इस मसले पर ऐसा तरीका चुना। कि दोनों रियासतों में सुलह होने की बजाय युद्ध छिड़ गया और इनके समुद्री जहाज बहर-ए-रोम में एक दूसरे के सामने आ गए। इस तरह सुल्तान बैबर्स ने अपनी रणनीति से उनकी ताकत और शक्ति को कमज़ोर और खत्म करके रख दिया।

प्रस्तावकों के इस कथन पर मुस्लिम प्रस्तावक लिखते हैं मालूम नहीं पश्चिमी प्रस्तावको के इस कथन में किस हद तक सच्चाई थी फिर भी यह वाक्य है, कि इन दोनों गतिशील रियासतों के संबंध सुल्तान से पहले की तरह दोस्ताना रहे। वाक्यों के कुछ ही साल बाद ईसाई दुनिया से मेल – जोल के सिलसिले में सुल्तान ने एक कदम और आगे बढ़ाया। इस दौरान सुल्तान बैबर्स को अपने जासूसों के जरिए से मालूम हुआ की इटली सतालिया (इटली का एक द्वीप सतालिया) के शासक ‘मनफ्रेड’ और रोम के पादरियों में झगड़ा हो चुका है यहां तक कि पॉप (कैथोलिक धर्म गुरु) ने इटली सतालिया के बादशाह को गिरजाघर से निकाल दिया है। इसकी वजह यह थी कि इटली और सतालिया का बादशाह मनफ्रेड एक इल्म दोस्त और मुसलमानों पर रहम करने वाला शासक था। 

उसने अपनी सल्तनत के मुसलमान नागरिकों को न सिर्फ पूरी धार्मिक आजादी दे रखी थी बल्कि कई मुसलमानों को उसने अपनी सल्तनत के अंदर बड़े – बड़े पदों पर बिठा रखा था। इन हालात को सामने रखते हुए सुल्तान बैबर्स ने अपनी सल्तनत के बड़े आलिम और न्यायाधीश को ‘इब्नेवासिल’ की देखरेख में दोस्ती करने के लिए इटली सतालिया के बादशाह मनफ्रेड के दरबार में भेजा। मनफ्रेड ने सुल्तान के इन राजदूतों का बेहतरीन और गर्मजोशी से स्वागत किया इस कारण इटली सतालिया के शासक और सुल्तान के बीच दोस्ताना संबंध कायम हो गए थे। जब तक सुल्तान बैबर्स और बादशाह मनफ्रेड जिंदा रहे उनके बीच बहुत अच्छे संबंध रहे। इनके संबंध को इटली और फ्रांस के बादशाह शक और संदेह की नज़र से देखते थे। 

इसलिए सन् 1266 में पॉप और फ्रांस के बादशाह की संयुक्त सेना ने मनफ्रेड पर आक्रमण कर दिया और उसे हराकर मार दिया। उसके मरने के बाद ही मिस्र और इटली की दोस्ती भी खत्म हो गई। सुल्तान बैबर्स ने अपनी हुकूमत के 5 सालों में मंगोलों की कमर तोड़ कर रख दी थी। उनकी ताकत को अपने सामने कुचल कर रख दिया था। यहां तक की हालाकू और उसकी पत्नी भी मर चुके थे। उसके साथ ही मंगोल बड़ी तेज़ी से इस्लाम कुबूल करने लगे थे। इसलिए सुल्तान ने अब बहर-ए-रोम के साथ – साथ सलीबियों के किलों की तरफ ध्यान देना शुरू किया। इन किलों में ज्यादा महत्वपूर्ण किसारिया, अर्सोफ, सफत, अलकिर्क, बलफूट, याफा, अंतातूस, अंताकिया, हिस्नुलअकराद, अलमुकर्रब, सूर, तराबलस, बैरूत, शाहिदा और अक्का ज्यादा प्रसिद्ध थे। 

यह सारे वह किले थे जो इससे पहले इस्लामी दुनिया के सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी ने ईसाइयों से छीने थे लेकिन सुल्तान सलाहुद्दीन के मरने के बाद जब मुसलमानों में कमज़ोरी के लक्षण सामने आए। तब यूरोप के ईसाइयों की मदद से ईसाइयों ने दुबारा इन किलों पर कब्ज़ा कर लिया और मुसलमानों की कमज़ोरी का फायदा उठाकर उन्हें इन किलो से निकलने पर मजबूर कर दिया। यह सख्त लड़ाका सलीबी मुसलमानों के सबसे बड़े दुश्मन थे। उन्होंने अपनी सल्तनत और उनके उपनगरों के इलाकों के मुसलमानों का जीना मुश्किल कर दिया था। हद यह कि मुस्लिम दुश्मनी के पागलपन में उनकी एक बड़ी संख्या हलाकू की सेना में भी जा शामिल हुई। उन्होंने मुसलमानों के इलाकों को बर्बाद करने और असहाय मुसलमानों को मारने में मंगोलों से भी ज्यादा जंगलीपन दिखाया था। 

अब सुल्तान बर्बादी करने और जंगली मंगोलों से बेफिक्र हो चुका था उनकी कमर तोड़ चुका था और उन्हें इस काबिल ना रहने दिया था कि वह मुसलमानों के खिलाफ हरकत में आए। इसलिए सुल्तान अब अपनी सेना के साथ सलीबियों की तरफ गया। अब तक सुल्तान की ताकत में भी वृद्धि हो चुकी थी मिस्र और सीरिया उसने एक कर लिए थे। अब्बासी खिलाफत भी उसने दुबारा शुरू कर दी थी और उसने देश में शासन के नियम मजबूत और बेहतर कर दिए थे। इन सारे कामों से मुक्त होने के बाद वह सीरिया, फिलिस्तीन और लेबनान के सलीबियों की तरफ ध्यान देने लगा। जो ना सिर्फ पूरे तट पर एक मजबूत शक्तिशाली दीवार बनाए हुए खड़े थे बल्कि कई दूसरे स्थानों पर भी कब्ज़ा जमाए हुए थे। 

ईसाइयों के इन किलो को बड़ी – बड़ी सेनाएं थी। ये सेनाएं ना सिर्फ खुद इन किलों से निकलकर करीबी मुसलमानों पर आक्रमण करती, उन्हें मार देती और लूटमार करती थी। बल्कि वह यूरोप के शासकों के अलावा रोम के पादरियों को भी अक्सर मिस्र पर आक्रमण करने के लिए उकसाने रहते। इस तरह फिलिस्तीन, लेबनान, सीरिया उनकी मौजूदगी में एक ऐसी छोटी तलवार की हैसियत रखती थी, जो इस्लाम की तरफ मुड़ने पर जुड़ी हुई थी। सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी के बाद जब इन लोगों ने इन किलों पर कब्जा कर लिया और मुसलमानों की कमज़ोरी का फायदा उठाया तो यह अत्याचारी बन गए। उन्होंने यही सोचा कि अब मुसलमानों का कोई शासक उनसे किले न छीन सकेगा और वह इन किलों से निकलकर धीरे – धीरे दूसरे इलाकों पर भी कब्जा करके मुसलमानों को फिलस्तीन से निकाल बाहर करेंगे। 

यह दौर मुसलमानों के लिए बड़ा खराब दौर था। मुसलमान आशा कर रहे थे कि लेबनान, फिलिस्तीन और सीरिया के इन सलीबियों का मुकाबला करने के लिए कुदरत उनके लिए किसी दूसरे सलाहुद्दीन अय्यूबी को खड़ा कर दे। कुदरत ने मुसलमानों की इस इच्छा को पूरा किया और सुल्तान बैबर्स दूसरे सलाहुद्दीन अय्यूबी बनकर सामने आए और इन सलीबियों से इसने बुरे कर्मों का बदला लेने के लिए इरादा कर लिया था। कुदरत ने वैसे भी इन लोगों को बड़ी आज़ादी दे दी थी कि वह अपने अत्याचार से बाज़ आए। लेकिन उन्होंने कोई सबक न सीखा। लेकिन कुदरत ने जब सुल्तान बैबर्स को दूसरा सलाहुद्दीन अय्यूबी बनाकर उनके सामने खड़ा किया। तो उनका सहारा जोश, उनके सारे इरादे चूर – चूर हो गए। 

पूरब और पश्चिम के अत्यधिक प्रस्तावक इस बात पर सहमत हैं कि सलीबियों के खिलाफ सुल्तान बैबर्स का युद्ध सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी के हमलों और तुर्क मूर्तियों के जैसा था। पश्चिमी प्रस्तावकों ने इन हमलों को न सिर्फ कम करके इतिहास के पन्नों में जगह दी है बल्कि अपनी तरफ से इसमें बढ़ा चढ़ाकर एक तरह से सुल्तान बैबर्स की अहमियत और उसकी वीरता को कम करने की कोशिश की है। पश्चिमी प्रस्तावक सुल्तान बैबर्स को एक बहुत बड़ा विजेता तो स्वीकार करते हैं। लेकिन साथ ही साथ ज़ालिम और बर्बादी करने वाला साबित करने की कोशिश भी करते हैं। लेकिन अरब प्रस्तावक ने इनके इल्ज़ामों को रद्द करके सलीबियों के खिलाफ सुल्तान बैबर्स की मार का सही नक्शा पेश करके रख दिया था। आखिरकार सुल्तान उन्हीं लड़ाका और ज़ालिम सलीबियों पर प्रहार करने के लिए काहिरा से तूफानी अंदाज में अपनी सेना के साथ निकला। फिलस्तीन में दाखिल होने के बाद वह बिजली की गति से उत्तरी इलाकों की तरफ बढ़ा। 

सलीबियों ने सोचा कि मुसलमानों का सुल्तान या तो आगे लेबनान की तरफ निकल जाएगा या अंताकिया या बैरूत पर आक्रमण करेगा और उन्हें उम्मीद थी कि बैरूत और  अंताकिया में सलीबियों की बड़ी – बड़ी सेनाएं हैं और उनके मुकाबले सुल्तान बैबर्स कामयाब नहीं हो सकेगा। इस कारण वह अपनी तरफ से बिल्कुल बेफिक्र और निश्चिंत थे। लेकिन उस समय सलीबी भी हैरान रह गए जब उत्तर की तरफ बढ़ते हुए अचानक रात के समय सुल्तान मुड़ा आंधी और तूफान की तरह उसने दक्षिण का रुख किया और दक्षिण में उनके मजबूत और पक्के अलकिर्क की तरफ गया। अलकिर्क एक पुराना और ऊंचे दर्जे का मॉसकहकम किला था और इस पर बहुत कमीन स्वभाव के सलीबी बैठे थे। 

सुल्तान सलाहुद्दीन अय्यूबी के दौर में भी यहां सख्ती करने वाले स्वभाव के सैनिक कब्ज़ा जमाए हुए थे और इस किले में रहने वाले सलीबी हमेशा मुस्लिमों पर अत्याचार करने और बर्बाद करने का पेशा बनाए हुए थे। यही वह लोग थे जो अक्सर मिस्र से जाने वाले हाजियों के समूह पर आक्रमण करके उन्हें लूट लेते थे उनको मार देते थे। मिस्र से अर्ज़-ए-हिजाज़ की तरफ जाने वाला रास्ता क्योंकि अलकिर्क के पास से गुज़रता था इसलिए अगर मुसलमानों का कोई व्यापारिक समूह या हाजियों का समूह यहां से गुजरता तो यहां के सलीबी उन पर आक्रमण करके भेड़िए की तरह उन पर टूट पड़ते। मुसलमानों को मारते और उनका माल लूट लेते। अलकिर्क में जो सलीबी सैनिक थे। वह तो यही उम्मीद लगाए बैठे थे कि मुसलमानों का सुल्तान अपनी सेना लेकर उत्तर की तरफ निकल गया है। 

लेकिन अचानक एक दिन सुल्तान अपनी सेना के साथ उनके सामने आया तो वह हैरान रह गए। यद्यपि उन्होंने शहर की चारों दीवारों को बहुत मजबूत बना रखा था। शहर के अंदर काफी बड़ी सेना भी थी लेकिन सुल्तान जब अपने अनुमान के मुताबिक हमलावर हुआ। तो सलीबियों की सारी ताकत उसने निकाल कर रख दी। सुल्तान तलवार की ताकत पर शहर को जीतता हुआ अलकिर्क में दाखिल हुआ। इस प्रवेश के समय सुल्तान को सूचना दी गई कि सलीबियों ने अलकिर्क के अंदर ‘नासिरा’ नाम का एक किला जैसा ऐतिहासिक गिरजाघर बना रखा था और इसी गिरजाघर को वह अपनी युद्ध के उत्साह का केंद्र बनाए हुए थे सुल्तान ने उस गिरजाघर को गिरवा दिया और अलकिर्क की दीवारें भी ज़मीन में मिला दी। 

इसके बाद फिर कभी अलकिर्क सलीबियों का केंद्र न बन सका और मिस्री हाजियों के समूह सलीबियों के हमलों से हमेशा – हमेशा के लिए बच गए। अलकिर्क को जीतने के बाद सुल्तान अपनी सेना के साथ मिलकर मिस्र की तरफ चला गया था। कुछ महीने उसने बिल्कुल शांति से गुज़ारे साथ ही तैयारी भी करता रहा। दूसरी तरफ सलीबी बेफिक्र थे कि शायद मुसलमानों का सुल्तान अलकिर्क ही जितना चाहता था इसलिए लौट गया है। लेकिन सुल्तान की यह खामोशी किसी नए तूफान के आने का संकेत दे रही थी। कुछ महीने रुकने के बाद सुल्तान अपनी सेना के साथ फिर निकला फिलस्तीन में दाखिल हुआ। मिस्र से उसके निकलने के साथ ही बहर-ए-रोम के पास जिस कदर सलीबियों के किले थे। वहां की सेनाएं सुल्तान का मुकाबला करने के लिए बिल्कुल तैयार हो गई थी और वह सुल्तान की एक – एक हरकत पर गहरी नज़र रखने लगी थी। 

इस बार सुल्तान ने सलीबियों को फिर हैरत में डाल दिया सुल्तान ने एक लंबा चक्कर काटा और सलीबियों के समझ में कुछ न आया। कि सुल्तान क्या करना चाहता है। अचानक आंधी और तूफान की तरह सुल्तान उनके शहर किसारिया के सामने आया। इस शहर को ‘किसारिया’ और ‘कैसरिया’ दोनों ही नाम से जाना जाता है। यह शहर यद्यपि आजकल वीरान पड़ा है लेकिन पहले यह बड़ा आबाद, बड़े मज़बूत किले और शहर में शामिल किया जाता था। सुल्तान ने किसारिया का घेराव कर लिया। किसारिया के अंदर जो सेना थी उसने सुल्तान के हमले को कोई महत्व न दिया। इसलिए कि किसारिया शहर एक महत्वपूर्ण बंदरगाह और सलीबियों का एक मजबूत केन्द्र था। वह यह सोच रहे थे कि अलकिर्क का मज़बूत किला संयोग से मुसलमानों को मिल गया है। लेकिन मुसलमान किसारिया को नहीं जीत पाएंगे। किसारिया और इस जैसे दूसरे के लिए सारे के सारे बंदरगाहों की सूरत में जहाजों के रुकने के लिए बनाए गए थे। 

इसका फायदा यह था कि मुसलमान अगर जहाजों के रुकने के स्थान की घेराबंदी करें, तो समुद्र का रास्ता हर हालत में खुला रहे। समुद्र ही के रास्ते से यूरोप के साथ इन सलीबियों का संपर्क रहता था। इसके अलावा यूरोप से नए सैनिक, स्थिति के अनुसार सामान तथा ज़रूरत का और भी सामान इन लोगों को मिलता रहता था। इन बंदरगाहों में प्रवेश करने की जगह पर बड़ी – बड़ी मीनारें बनाई गई थी जिनके कारण किले और शहर की देख – रेख की जाती थी। लेबनान और फिलिस्तीन के तटों पर ऐसी मीनारें आज भी कई जगह मौजूद है। किसारिया सलीबियों के किलो में बहुत ही महत्वपूर्ण समझा जाता था। किले के अंदर जो सेना थी उसने जमकर सुल्तान का मुकाबला करने का इरादा कर लिया था। किसारिया के सलीबियों को उम्मीद थी। कि उन्हें दूसरे सलीबी-किलों से सुल्तान के खिलाफ मदद मिलती रहेगी। 

लेकिन सुल्तान ने ऐसी अकलमंदी और योग्यता का सबूत देते हुए किले पर हमले किए की सलीबी दंग रह गए सुल्तान ने पहले किसारिया की घेराबंदी कर ली। इस घेराबंदी के दौरान वहां के सलीबियों को किसी दूसरी तरफ से कोई मदद न पहुंच सकी। इस तरह 7 दिन के खूनी युद्ध के बाद वह कमज़ोर पड़ गए। अत्यधिक असहाय और अपमान के साथ उन्होंने सुल्तान के सामने हार मान ली और सुल्तान जीतने की हैसियत से किसारिया में दाखिल हुआ। शहर के अंदर जो सलीबियों  ने मज़बूत किला बनाया हुआ था सुल्तान ने उसे गिरवा दिया और किले की नींव खुदवा दी। इस प्रकार किसारिया को जीतने के बाद सुल्तान ने इस प्रकार उसकी सुरक्षा की। कि सलीबियों की दुबारा उस पर कब्जा करने की हिम्मत न हुई। किसारिया के मज़बूत किले और शहर को तबाह करने तथा जीतने के बाद अब सुल्तान बैबर्स दक्षिण की तरफ गया। 

बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ते हुए उसने सलीबियों के एक और अत्यधिक मज़बूत किले ‘अर्सोफ’ की तरफ गया। सुल्तान ने आगे बढ़कर अपनी सेना के साथ अर्सोफ को चारों तरफ से घेर लिया। अर्सोफ हॉस्पीटलर्स (धार्मिक आदेश का सदस्य) का केंद्र और उनका मज़बूत गढ़ समझा जाता था यह हॉस्पीटलर्स सलीबी सैनिकों का एक मज़बूत समूह समझा जाता था और उन्होंने सलीबी युद्धो में भी बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया था। किसारिया शहर का अंजाम देखकर अर्सोफ के सलीबियों ने सुल्तान का मुकाबला करने के लिए अपने युद्ध की तैयारियों में वृद्धि कर दी थी। सुल्तान ने उन पर जब ताबड़तोड़ हमले करने शुरू कर दिए और उनकी सारी मज़बूती और बचाव को रौंदना शुरू कर दिया। तब हॉस्पीटलर्स बड़े परेशान और चिंतित हुए। आखिर उन हॉस्पीटलर्स के किलों को तोड़ते हुए सुल्तान अंदर दाखिल हुआ। 

इस किले का भी सुल्तान ने वही हाल किया जो किसारिया का हुआ था सुल्तान ने इसकी ईंट से ईंट बजाकर रख दी। और इसकी मज़बूत दीवारें और ऊंची मीनारें गिरा दी। अर्सोफ को जीतने के बाद सुल्तान काहिरा चला गया और सलीबी यही सोचने लगे कि सुल्तान अब बार – बार पलटकर फिलिस्तीन पर आक्रमण नहीं करेगा। लेकिन वह दंग रह गए कुछ ही महीनों बाद सन् 1266 में सुल्तान अपनी सेना के साथ फिर फिलस्तीन में आ गया। सुल्तान तूफानी आक्रमण करता हुआ आगे बढ़ा और सलीबियों के इस किले का उसने चारों तरफ से घेर लिया। जिसका नाम ‘सफत’ था। कहते हैं यह किला बड़ी ऊंचाई पर स्थित था इसके नीचे बड़ा गहरा गड्ढा खुदा हुआ था। जिनमें उतरना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुंकिन समझा जाता था। इस किले में हैकली सैनिक रहते थे जो अपने आपको हमेशा विजेता समझते थे। 

यह टैंपलर्स का एक समूह था जो बड़े अत्याचारी लोग थे। वह येरुशलम में हैकल-ए-सुलेमानी के पास रहते थे इसलिए टैंपलर्स या हैकली नाम से प्रसिद्ध हो गए। शुरू में उनका इरादा सिर्फ लोगों की सेवा करना था। धीरे-धीरे बाद में यह एक सैनिक दल बन कर सामने आए और मुस्लिम दुश्मनी को इसने अपनी आदत में बना लिया था। उन सबने मिलकर फैसला किया कि वह मुसलमानों के सुल्तान का मुकाबला करेंगे और उसे सफत पर काबिज़ नहीं होने देंगे। लेकिन शायद वह सुल्तान की ताकत, शक्ति और उसके आक्रमण करने के अंदाज़ से परिचित न थे। सुल्तान ने जब उनके किले का घेराव किया उसके बाद जब उसने उन पर जानलेवा हमले किए। तो इन हैकली सैनिकों के पैरों से जमीन खिसकना शुरू हो गई।

सुल्तान के ताबड़तोड़ हमलो की वजह से इन हैकली सैनिकों की लाशें गिरने लगी थी। यहां तक कि सुल्तान ने बहुत तेज हमले करते हुए शहर को जीत लिया। सुल्तान जब शहर में दाखिल हुआ। तो विरोध करने वालों ने उनके सामने हार मान ली। सुल्तान ने किले में दाखिल होकर आम लोगों को तो पूरे तौर पर सुरक्षा दे दी। उनसे यह कहा कि वह अपने घरों में रहे कोई उनसे कुछ नहीं कहेगा उनकी जान को कोई खतरा नहीं। लेकिन सफत शहर में जो 2000 हैकली सैनिक बचे थे जिन्होंने मुसलमानों की दुश्मनी को अपना पेशा बना रखा था सुल्तान ने उन्हें माफ़ी न दी और उन 2000 हैकली सैनिकों को उसने मौत के घाट उतार देने का आदेश दे दिया था। 

सुल्तान ने उनके साथ ऐसा सलूक इस लिए किया था कि यह लोग सफत के उपनगरों में जिस कदर शांत और निर्दोष मुसलमानों रहते थे। अक्सर उन पर आक्रमण करते, उन्हें मार देते, उनका माल लूट लेते, उनके घरों को जला देते और कुछ को गिरफ्तार करके अपने साथ ले जाते और उन्हें तरह – तरह की तकलीफें पहुंचाते रहते थे। इसलिए सुल्तान के नज़दीक उनका यह जुर्म माफी के लायक नहीं था इसलिए उसने उन सब को मौत के घाट उतार देने का आदेश दे दिया था। सफत की विजय पर मुसलमानों ने सुल्तान बैबर्स को ‘अम्मादुद्दीन’ और ‘सिकंदर-ए-ज़मा’ की उपाधियां दी और प्रसिद्ध प्रस्तावक फ्लिप के अनुसार आज भी सफत की दीवार पर एक लेख मौजूद है। जिस पर लिखा हुआ है सिकंदर-ए-ज़मा अम्मादुद्दीन सफत को जीतने के बाद सुल्तान ने जनता की भलाई का बहुत अच्छा काम किया। उसने वहां उर्दन नदी पर एक बेहतरीन पुल बनवाया इस पुल को बनवाने के बाद वहां भी सुल्तान ने एक लेख लिखवाया था। 

प्रस्तावक लिखते हैं क्योंकि आने वाले समय में उर्दन नदी ने अपना रास्ता बदल लिया था फिर भी सुल्तान बैबर्स का बनवाया हुआ पुल आज भी मौजूद है। लेकिन अब यह नष्ट होने की कगार पर आ गया है। सफत शहर को जीतने के बाद सुल्तान बैबर्स फिलिस्तीन के प्रसिद्ध शहर ‘याफा’ की तरफ गया। याफा का मौजूदा समय में नाम ‘तेल अवीव’ है और यह रियासत इजराइल की राजधानी भी है। सुल्तान काहिरा से अपनी सेना के साथ निकला और सीधे याफा की तरफ गया। उन दिनों याफा सलीबियों के एक बहुत बड़े केंद्र में शामिल किया जाता था। इसलिए उन्होंने बहुत डटकर सुल्तान बैबर्स का मुकाबला किया। वह हर सूरत में चाहते थे कि याफा शहर उनके हाथ से न निकल जाए। 

लेकिन सुल्तान ने इस अंदाज में इस कदर जिंदादिली, दिलेरी और बहादुरी दिखाते हुए याफा पर अपनी सेना के साथ हमले शुरू किए कि सुल्तान के सिर्फ 12 घंटे के हमले को याफा के सैनिक बर्दाश्त न कर सके और याफा को सुल्तान ने जीत लिया और किले की दीवार पर सुल्तान ने अपना परचम लहरा दिया। याफा को जीतने के बाद सुल्तान अपनी सेना के साथ एक बहुत महत्वपूर्ण ‘सकीफ-अरनून’ की तरफ गया। यह शहर और किला दमिश्क और समुद्र के तट के बीच स्थित है और मानेयान शहर से पास पड़ता है। अरनून एक व्यक्ति का नाम था जिसने यह बसाया था इसलिए उसके नाम पर यह सकीफ-अरनून कहलाता था। यह अत्यधिक ऊंचे दर्जे का मज़बूत किला था एक ऊंची पर्वत श्रंखला के ऊपर बने होने के कारण से इसकी ऊंचाई में अत्यधिक वृद्धि हुई थी। 

यह किला सूर और सहदा आ शहर के तटीय इलाकों को अब्का और दमिश्क से मिलाने वाले दक्षिणी दर्रे के पास ही स्थित था। इस किले का महत्वपूर्ण होना इस बात से पता चलता है कि यह सैनिक टैंपलर्स का केंद्र था और उन्होंने यहां इतनी सैनिक ताकत और शक्ति जमा कर रखी थी। कि दो कारण से यह समझा जाता था कि उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता। पहला कारण यह कि अत्यधिक ऊंचाई पर स्थित था और दूसरा कारण उसे कोई पराजित नहीं कर सकता क्योंकि यह टैंपलर्स का केंद्रीय शहर था और यहां उन्होंने अपनी सारी ताकत जमा कर रखी थी। यह किला एक सीधी चट्टान पर बनाया गया था। लितानी नदी से इसकी ऊंचाई 1500 फीट और समुद्र की सतह से यह 2199 फीट ऊंचा था।

इसकी दीवार का एक हिस्सा पत्थरों की चुनाई से दूसरा हिस्सा चट्टानें तराश करके बनाया गया था और इन चट्टानों के कारण इसकी ऊंचाई में वृद्धि हुई थी। कहते हैं इस किले का कुल क्षेत्रफल 490 मुरब्बा गज था इसकी दीवार की चौड़ाई 99 फीट, दीवार की ऊंचाई 57 फीट और कहीं दीवार की ऊंचाई 78 फीट के लगभग थी। इस किले के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से की तरफ एक खाई थी जो ठोस चट्टान काटकर बनाई गई थी यह खाई कहीं से 48 फीट गहरी थी और कहीं इसकी गहराई 144 फीट के आस – पास थी। इस खाई में चट्टानें काटकर छोटी-छोटी कोठरी बनाई गईं थीं जिनके अंदर मीठे पानी के झरने प्रवाहित थे।

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