हजरत खालिद बिन वलीद-16

हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) इराक़ और सीरिया में

जब विश्व मंच पर इस्लाम का उदय हुआ, तब तत्कालीन विश्व पर दो शक्तियों का प्रभुत्व था, पूर्व में बीजान्टियम (रोमन साम्राज्य) और पश्चिम में फारस साम्राज्य। इन दो साम्राज्य के बीच पिछले हजार बरसों से युद्ध के साथ-साथ शांति के मंत्र भी थे। दुनिया का इतिहास रोमन साम्राज्य और फारस साम्राज्य के बिना अधूरी ही है, अगर यूँ कहा जाए के बिना इन दो साम्राज्य के दुनिया का इतिहास ही नहीं, तो झूठ नहीं होगा। हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और बाद में खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के समय में इन दो साम्राज्य की सीमा आज के सीरिया, और इराक में मिलती है जिसमें सीरिया रोमियो के पास था, और इराक़ फारस के अधीन था। इराक़ और सीरिया की जनसंख्या अरबी थे। जिसमें ज्यादातर ईसाई थे। सीरिया के बड़े अरब जनजाति गसानी के लोग ईसाई थे और अरब और इराक़ में थे, रोमियो के अधीन थे और वह रोमियो के वफादार थे, और रोमियो के साथ मिलकर जब भी फारस और रोमियो के बीच जंग होता लड़ते थे। और दूसरी तरफ इराक़ लखमी कबीले के लोग थे, जो ईसाई ज्यादा थे, और थोड़े थोड़े पारसी थे, वे फारस साम्राज्य के प्रति वफादार थे और वे फारस की सेना के साथ मिलकर जंग लड़ते थे। लखमी लोग इराक़ के बड़े बड़े शहर हीरा, टेसीफोन, उबल्ला आदि स्थान, जो कि जंगी रणनीतिक क्षेत्र के साथ व्यापारिक और खेतीबाड़ी के लिए भी अच्छे थे वहां रहते थे। दूसरी और गसानी के स्थान भी खेतीबाड़ी और माल दौलत से भरपूर थे। दोनों इराक़ और सीरिया के पास काफी अमीर, दौलत और ताकत थी। जिस वज़ह से कई बार फारस और इराक़ के बीच जंग होती रहती थी।

लेकिन जब इस्लाम का उदय हुआ तो जल्द ही हालत बदलने वाले थे। हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने रोमन साम्राज्य के सम्राट और फारस के सम्राट को चिट्ठी भेजकर इस्लाम कबूल करने को कहा था। जिसे दोनों ने इंकार किया।

और उन्होंने उस के बाद से ही इस्लाम के उदय और अरब पर इस्लाम के प्रभुत्व पर नजर रखी हुई थी।

आपको याद होगा के मुताह के जंग में रोमन सम्राट हेराक्लियस ने मुस्लिम सेना से लड़ने के लिए सेना भेजी थी। उसके बाद हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आखिरी दौर में ही एक बार बहुत बड़ी सेना को अरब सीमा पर घुसकर मदीना तक कब्जा करने के लिए अरब और रोमन साम्राज्य के सीरिया सीमा के पास तबुक में लाए थे। जिसका मुक़ाबला करने हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खुद एक बहुत बड़ी सेना को लेकर तबुक पर गए थे। लेकिन रोमी सेना हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेना के आने के खबर पाकर भाग गए थे। तबुक की जंग का घटना मुसलमानों के मक्का विजय के बाद हुआ था। इस में जंग तो नहीं हुई लेकिन मुसलमानों को पता चल गया था के जल्द ही रोमियो और मुसलमानों के बीच जंग होने वाली थी, अब सिर्फ समय का ही इंतजार था कि कब हमला हो। यही वजह थी हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने विसाल से पहले हजरत उसामा (रज़ी अल्लाहू अनहू) की सेना को सीरिया में, रोमन साम्राज्य में जंग लड़ने के लिए तैयार किया था लेकिन आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन्हें रवाना करने से पहले ही इस दुनिया से गुजर गए, और खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने हजरत उसामा (रज़ी अल्लाहू अनहू) की सेना को रोमन साम्राज्य में भेजा।

बहरैन में धर्म-त्यागी और बागियों के साथ लड़ाई के अभियान में, फारसियों ने धर्मत्यागियों की सहायता की थी। अब जबकी धर्मत्यागी और बागियों के खिलाफ़ अभियानों की सफल समाप्ति हो गई, तो अरब सीमा के पार फारसियों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए मंच तैयार था। फारस से मुस्लिम राज्य के लिए किसी भी समय परेशानी मिलने की उम्मीद थी। फारस के साम्राज्य ने इस्लाम के खिलाफ उठने वाले बागियों का साथ देकर मुसलमानों को उनकी चाल के बारे में आगाह कर दिया था।

हजरत मुसन्ना बिन हारिसा बनी बकर की जनजाति के प्रमुख थे जो अरब के उत्तर-पूर्वी भाग में रहते थे। बहरैन में धर्म-त्यागी और बागियों के अभियान में, हजरत मुसन्ना और उनके साथी समूह ने मुसलमानों की तरफ से लड़ाई लड़ी। हजरत मुसन्ना कब मुसलमान बने, इस की जानकारी नहीं मिलती। संभवतः वह पवित्र पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवनकाल के दौरान एक मुस्लिम बन गए थे, लेकिन वह सहाबा में से नहीं थे। जब धर्मत्याग की लहर ने अरब प्रायद्वीप को घेर लिया, तो हजरत मुसन्ना और उनके साथी समूह इस्लाम में अपने विश्वास में दृढ़ रहे।

जब बागियों से जंग खत्म हुआ तो अपने साथियों के साथ, हजरत मुसन्ना ने इराक में अपने छापे मारने शुरू किए। पहले वह रेगिस्तान की तरफ से छुपकर हमला करते, ताकि खतरे के मामले में, वह रेगिस्तान की तरफ सुरक्षित में वापस लौट सके। उनके अधिकांश छापे टाइगरिस और यूफ्रेट्स नदी की निचली घाटियों में उबल्ला के क्षेत्र में किए गए थे। इन छापों से, हजरत मुसन्ना बहुत सारा लूट का माल इकट्ठा करने में सक्षम हुए। फारसी हजरत मुसन्ना के खिलाफ कोई कार्रवाई करने में असमर्थ थे क्योंकि हजरत मुसन्ना भूत जैसी तेजी से फारसीयों से टकराते थे और फिर जल्द गायब हो जाते थे। हजरत मुसन्ना को इन छापेमारी से फारस साम्राज्य के संगठन की जानकारी मिली। फारस और उसके शासन के मामलों में काफी अव्यवस्था थी, और फारसी क्षेत्र में अरब जनजातियां फारसी शासन से असंतुष्ट थे। फारस साम्राज्य इराक़, ईरान मध्य-एशिया, से उस समय के भारत के सीमा सिंध तक फैला हुआ था। और हजरत मुसन्ना ने इराक़ पर छापेमारी से जो कुछ जानकारी मिली वह अब हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) को बताने वाले थे।

हजरत मुसन्ना मदीना गए और हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के साथ मुलाकात की। उन्होंने खलीफा को बताया कि इराक के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले लोग अरब थे और जो वैध रूप से अरब प्रायद्वीप के थे, और यदि मुसलमानों ने फारसियों के चिड़चिड़े शासक से ऐसी जनजातियों को मुक्त करने के लिए अभियान चलाया, तो यह एक बड़े अरब मुल्क के निर्माण की दिशा में एक बड़ा कदम होगा। हजरत मुसन्ना ने बताया कि “मुझे मेरे लोगों के नेतृत्व के रूप में नियुक्त करें, ताकि मैं फारस में छापेमारी करू, और हमारी सीमा की फारस से रक्षा करू”। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उनकी इस बात स्वीकर किया और बनी बकर के नेता और सेना की कमान संभालने के पद पर नियुक्त कर भेजा। हजरत मुसन्ना मदीना से लौट कर इस्लाम का प्रचार किया, कई लोग, कबीले मुस्लमान हुए। उन्होंने नए मुसलमानों और अपने लोगों को साथ मिलाकर लगभग 2000 की संख्या की एक सेना बनाई और उससे उन्होंने फारस पर और भी ज्यादा छापेमारी करना शुरू कर दिया। 

हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) अहजाब की जंग के दौरान हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिए हुए भविष्यवाणी को जानते थे, जिसमें हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बताया था कि फारस, सीरिया, यमन में मुसलमानों की जंग जीतने और उनपर मुसलमानों की हुकूमत करने की बात बताई थी। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने फारस साम्राज्य के साथ बड़ा जंग करने का फैसला कर लिया। जंग का पहला पड़ाव अरब प्रायद्वीप के सीमा वाले फारस साम्राज्य के इराक़ प्रांत था, जहां हजरत मुसन्ना छापेमारी कर रहे थे।

इसे ध्यान में रखते हुए, उसने खालिद को इराक पर आक्रमण करने और फारसियों से लड़ने का आदेश भेजा। उन्होंने हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को उन लोगों को बुलाने का निर्देश दिया, जिन्होंने धर्मत्यागियों से लड़ाई लड़ी थी और अल्लाह के रसूल की मृत्यु के बाद अपने विश्वास में दृढ़ रहें। उन्होंने हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को लिखा कि

“जो कोई भी अपने घर लौटना चाहता है, वह ऐसा कर सकता है।”

जब हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) उस समय यमामा में ही थे, और यमामा की जंग हुए लगभग 2 महीने गुजर चुके थे। जब खलीफा के इस संदेश को उन्होंने अपने सेना को सुनाई तो कई लोग अपने अपने घर लौट गए और उनके पास सिर्फ 2000 सैनिक बाकी रहे जो इराक़ जाने को तैयार थे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने इस हाल को खलीफा को बताया। जब खलीफा को ये बात मालूम हुई तो उन्होंने हजरत मुसन्ना को संदेश और उन्हें जंग के लिए नई सेना गठन करने को कहा और बताया कि जब हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) आ जाए तो उन्हें पूरे सेना की कमान देने को कहा। उसके बाद हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने हजरत खालिद को कुछ सेना और एक संदेश भेजा जिसमें उन्हें हजरत मुसन्ना के सेना से मिलने का आदेश दिया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने संदेश मिलते ही तैयारी शुरू की और उन्होंने यमामा और उसके करीब और कई इलाकों से नई मुस्लिम सेना बनाई। जिससे उनकी सेना लगभग 10,000 की हो गई थी। नई सेना बनते ही हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) इराक़ की तरफ चल दिये।

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