हजरत खालिद बिन वलीद-35

हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) की वफात

यरमुक की जंग हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) की आखिरी जंग थी जिसमें उन्होंने मुस्लिम सेना की कमान सम्भाली थी। इसके बाद उन्होंने हजरत अबु उबैदा (रज़ी अल्लाहू अनहू) के नेतृत्व में दमिश्क और एमेसा को फिर से कब्जा किया और इसके बाद भी कई और जंग लड़ी।

जब हजरत उमर (रज़ी अल्लाहू अनहू) यरूशलम में गए थे हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) उनके साथ थे। जिसके बाद भी उन्होंने लगभग सीरिया प्रांत में कई जंग लड़ी और जीती। इसके बाद हजरत उमर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उन्हें जंग लड़ने से रोक दिया और हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) एमेसा में रहने लगे।

लगभग 18 हिजरी में हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) के कई दोस्त प्लेग के बीमारी में वफात हो गए। खुद उनके 40 बच्चे भी इस बीमार में वफात हो गए।

21 हिजरी में 58 साल की उम्र में हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) बीमार हो गए थे। वह ज्यादतर अपने बिस्तर में ही होते थे। बीमारी की हालत में वह अक्सर अपने जंग में लड़ाई करने की चाहत के बात कहते थे, अपनी शहादत की तमन्ना की बात करते। एक मौके पर उन्होंने कहा कि उनके जिस्म में कोई जगह ऐसी बाकी नहीं जिसमें चोट न हो और वो अब जंग के मैदान की जगह बिस्तर पर अपनी वफात का इन्तजार कर रहे है।

ऐसे ही कुछ दिनों बीमारी से जुझने के बाद 21 या 22 हिजरी में अल्लाह की तलवार हजरत खालिद इब्न वलीद (रज़ी अल्लाहू अनहू) वफात पा गए।

हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) इस्लाम के साथ ही दुनिया के महान कमांडरों में से एक थे। वह हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सहाबी थे जिन्हें, हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह की तलवार (सैफुल्लाह) का नाम दिया था। उन्होंने फारस और बाज़ंटाइन साम्राज्य की बड़ी बड़ी सेना को अपने छोटी सेनाओं के साथ हराया था। अल्लाह तआला हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) के साथ साथ तमाम शहीदों को ऊंचा मकाम दे।

कुछ जरूरी बातें

कुछ जरूरी बातें

इस किताब में जिस जिस किताब से हवाला लिया गया है, उनके नाम य़ह है,
1. इब्न हिशाम की सिराह
2. इब्न साअद की तबकात इब्न साअद
3. तारिख, तबरि
4. वाकदि की मगाजि
5. बलाजारि, आदि बाकी दूसरे किताब से भी लिया गया है लेकिन इसमें तमाम घटना मिल जाएगा

अरबी भाषा के कुछ शब्द, जैसे बनी और बनु दोनों एक ही है कुछ परस्थितियों में इसको बनी और बनु अलग पढ़ा जाता है, जिसे यहां हम बताना जरूरी नहीं समझते, पाठकों को सिर्फ इतना जानना काफी है कि दोनों की अर्थ एक ही है। उसी तरह कई शब्द अरबी भाषा से हिंदी में लिखने में उसकी सही नहीं निकलती, इस वजह से पाठक किसी अरबी जानने वाले और इस्लाम की इतिहास जानने वाले से मिलकर जान ले। और एक बात इतिहास को हमने इस किताब में ज्यादा बना चढाकर नहीं लिखी, सिर्फ तथ्यों को लिखा है, जो तथ्य ज्यादा प्रचलित और इतिहासकारों के द्वारा कबूल किया गया है उसी को लिखा गया है।

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