हजरत खालिद बिन वलीद-2

इस्लाम का आरंभ और मक्का का इस्लाम के खिलाफ दुश्मनी

अरब उस समय अंधकार के दौर में था। अमीर लोग गरीबों और असहायों के साथ अन्याय, बेवजह खूनखराबा, महिलाओं को किसी घरेलु पशु से बेहतर नहीं माना जाता था। अरबों मे नवजात बेटियों की हत्या एक भयानक प्रथा था। पिता बच्ची को पांच या छह साल की उम्र तक सामान्य रूप से बड़ा होने देता था। फिर उससे कहते कि वह उसे टहलने के लिए ले जाएगा। वह उसे शहर या बस्ती से बाहर उसके लिए पहले से खोदी गई कब्र के स्थान पर ले जाता और वहां ले जाकर उसको जिन्दा दफना कर मार देता। यह सब प्रथा किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के अनुमान करने के लिए काफी है कि अरब में इस्लाम से पहले मुर्खता के दौर में किस तरह की परिस्थितिया रही होंगी।

काबा का निर्माण पैगंबर इब्राहिम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह के घर के रूप में अल्लाह के हुकुम से किया था। लेकिन ज़माने गुजर जाने के बाद अरब में कुफ्र फैला और अपने हाथों से बनाई हुई लकड़ी और पत्थर के देवताओं को काबा में रखकर अशुद्ध किया गया। अरब के हर कुल- कबीले का अपना खुदा होता था। हर कबीले के लोग अपना खुदा बनाते थे और अरब इन झूठे देवताओं के लिए बलि देते थे। काबा में और उसके आसपास 360 मूर्तियाँ रखी गयी थी, जिनमें सबसे अधिक पूज्य हुबल, उज्जा और लाट थीं। हुबल अरब के देवताओं में सबसे बड़ा था और अरब उसको अपना गौरव मानते थे। ये लाल रंग की एक मूर्ति थी जिसको मक्का के निवासियों ने सीरिया से आयात किया था। खरीदते समय उसका एक हाथ नहीं था बाद में मक्का वालों ने उस पर एक हाथ बनाकर लगा दिया था।

अरब के कबीलों के बीच अक्सर बात-बात पे जंग होती रहती थी। हर अरब को अपनी बहादुरी का गुरूर और खानदान और कबीले पर गर्व और अहंकार रहता था। अगर एक कबीले के लोगों ने दूसरे कबीले के किसी आदमी को मार दिया तो जबतक कबीले के लोग उसका बदला नहीं ले लेते तो अरब में ये समझते थे कि वो मरा आदमी भूत बनकर भटकता रहता है और जब उसका बदला ले लिया जाता है तब उसको शांति मिलती है। ऐसे कई वजहों से पूरे अरब में जंग होती रहती थी। और कई-कई जंग तो 40 साल तक चलने का प्रमाण किताबों में मिलता है।

यह कहना सही नहीं होगा कि अरब संस्कृति के साथ सब कुछ गलत था। उनके जीवन के तरीके में बहुत कुछ था जो गौरवशाली और शिष्ट था। अरब चरित्र में साहस, आतिथ्य और व्यक्तिगत और सम्मान की भावना बहुत थी। जब कोई अरब वादा करते तो उसको कभी ना तोड़ते थे। अरब के यहाँ अगर कोई दुश्मन मेहमान बनके या मुसाफिर के हालात में आए तो वो उनको कुछ नहीं करते थे और उनकी अच्छी तरह मेहमान नवाजी करते, अगर बीमार हो तो उनका इलाज करते और उनका खयाल रखते थे। अरब के लोग शायर, कवि, और कमाल के बहादुर होते थे। अक्सर अरब कुश्ती खेलते रहते थे और शिकार के लिए कई कई दिनों तक बाहर रहते थे। अगर कोई अरब किसी को अपने यहा पनाह देते तो उनकी रक्षा जान रहते तक करते थे।

इन तमाम गुणों के बावजूद अरब समाज में व्यभिचार, चोरी, जुआ, कत्ल और जुल्म आम था। किसी कमजोर के माल को कब्जा करना आम था। सभी ताक़तवर कमजोर पर जुल्म करते रहते थे।

ऐसा नहीं कि सिर्फ अरब में ही ऐसा हो रहा हो, पूरी दुनिया में उस समय अंधकार और जुल्म का बाजार गरम था। यूरोप अपने काले अध्याय का मानो किताब लिख रहा हो। चाहे हिन्दुस्तान हो या चीन हर जगह अन्याय का दौर चल रहा था।

ऐसे ही दौर में जब पूरी दुनिया कुफ्र और जुल्म से भरी हुई थी तब अगस्त, 610 ई. के महीने में किसी सोमवार को पैगंबर हजरत मुहम्मद मुस्तफा (सल्लललाहू अलैही वसललम) ने अपना पहला वही प्राप्त किया था। और यहा से इस्लाम का आरंभ हुआ। अल्लाह ने जो धर्म हजरत आदम से लेकर तमाम नबियों को प्रचार करने को दिया, जिस धर्म को अल्लाह ने तमाम जिन्न और इंसान के लिए दिया वो इस्लाम ही था। समय के साथ लोगों ने उस धर्म को बदल दिया और शैतान की बातों में आकर हर तरह की गुमराही को धर्म से जोड दिया और असली धर्म को भुला दिया। लेकिन अल्लाह ने अपने आखिरी नबी हजरत मुहम्मद मुस्तफा (सल्लललाहू अलैही वसललम) को इस धर्म, जो इस्लाम है इसका प्रचार करने और लोगों को अपने असली खुदा को जानने और उसकी इबादत करने के लिए भेजा। हजरत आदम (अलैहिस्सलाम) से लेकर तमाम नबियों ने इस्लाम का ही लोगों को प्रचार और दावत दी थी। इस धर्म को इस्लाम नाम हजरत इब्राहिम (अलैहीस सलाम) ने दिया था।

जब हजरत मुहम्मद मुस्तफा (सल्लललाहू अलैही वसललम) को वही मिली, तब हजरत खालिद लगभग 24 से 28 वर्ष के थे। 

पैगंबर हजरत मुहम्मद मुस्तफा (सल्लललाहू अलैही वसललम) को वही मिलने के बाद उन्होंने अल्लाह के धर्म की व्याख्या शुरू किया, और उन्होंने पहले अपने परिवार के लोगों को इस्लाम की दावत दी, शुरुआत में हजरत खदीजा (रजी अल्लाहू अनहा), हजरत अबु बकर (रजी अल्लाहू अनहू), हजरत जैद बिन हारिस(रजी अल्लाहू अनहू) और हजरत अली (रजी अल्लाहू अनहू) ने इस्लाम कबुल की। फिर हजरत अबु बकर (रजी अल्लाहू अनहू) की मेहनत से कुछ लोगों ने इस्लाम काबुल की। अब तक इस्लाम की प्रचार पैगंबर ने छुपकर की थी। मक्का के लोगों को मालूम ना था कि आप हजरत मुहम्मद मुस्तफा (सल्लललाहू अलैही वसललम) नए धर्म का प्रचार कर रहे है। लेकिन ये हालत जल्द ही बदलने वाले थे।

धीरे-धीरे सच्चाई फैलने लगी और हुजूर ने इस्लाम का पैगाम खुलेआम देना शुरू किया। और कुछ व्यक्ति, ज्यादातर युवा या कमजोर, गुलाम, असहाय लोगों ने कुफ्र के बीच नए धर्म इस्लाम को स्वीकार किया। ये लोग ज्यादातर समाज के पिछड़ों में से थे। इनकी संख्या कम थी पर इस्लाम कबूल करने के बाद उनकी हिम्मत और इस्लाम के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार थे।

पैगंबर (सल्लललाहू अलैही वसललम) की इस्लाम की प्रचार और दावत देने की गतिविधि का क्षेत्र चौड़ा हो गया था। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) मक्के में आने वाले मुसाफिर या नए पर्यटकों को इस्लाम के बारे में बताते और उन्हें इस्लाम कबुल करने को कहते। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को जब भी उनसे कोई मिलने आते इस्लाम के बारे में बताते। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) की मेहनत से इस्लाम की बाते मक्का के घर घर में होने लगी। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) मक्कावालों को बताते कि असली खुदा एक है, उसकी इबादत करो अपने हाथों से बनाई हुई मूर्तियों की पूजा बंद करो, छोटी बच्चीयों को जिंदा मरना बंद करो, व्यभिचार, जुआ, झूठी कसम ना दो, औरतों का सम्मान करो, गुलामों से अच्छा सुलूक करो, अल्लाह के नजदीक हर इंसान बराबर है, आदि बातों का हुजूर प्रचार करते और समझाते।

मक्कावालों को जब हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) कहते की उनके बनाए हुए खुदा झूठे और कुछ काम के नहीं तो उनको बर्दास्त ना होता। जब कूफ्फार के घर घर में इस्लाम के बारे में पता चला तो वो गुस्से में आ गए। उनसे अपने झूठे खुदाओं की बुराई नहीं सुनी जाती। मक्का के कूफ्फारों ने हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) और सहाबाओं पर जुल्म करना शुरू किया उनपर जुल्म और अत्याचार की हदें पार कर दी। पर हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) कुरैश द्वारा किए गए फटकार और अपमान और जुल्म के बावजूद मक्का के कूफ्फारों को इस्लाम के रास्ते और सच्चे खुदा की इबादत की तरफ बुलाते रहे और इस्लाम के प्रचार को ना रोका। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) तमाम अत्याचारों को झेल कर भी मक्का के कूफ्फारों को उनकी लकड़ी और पत्थर की मूरतों की पूजा से रोकते और उन्हें सच्चे परमेश्वर की उपासना के लिए बुलाते और कयामत के दिन से और अल्लाह से डरने को कहते। लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे गतिविधियाँ बढ़ती गईं, कुरैश का विरोध और ज्यादा सख्त होता गया।

यूँ तो हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के विरोध में पूरे मक्का वाले ही थे लेकिन इतिहास के पन्नों में जिन लोगों के नाम ज्यादा आते है वे कुरैश और मक्का के सरदार और नेता होते जो अपने अपने कबीलों (कुलों) के प्रमुख होते उनके होते। जिन में अबू सुफियान (जिनका व्यक्तिगत नाम साखर बिन हर्ब था, और जो बानी उमय्याह का नेता थे), अल वलीद (हजरत खालिद के पिता, बनी मखजुम के नेता), अबू लहब (पैगंबर मुहम्मद (सल्लललाहू अलैही वसललम) के चाचा, बनू हाशिम के नेता में से) और अबुल हकम (अबु जहल), हकम बिन आस, ऊटबा आदि थे। 

कुरैश के इन प्रमुख व्यक्तियों को जब लगा कि पैगंबर मुहम्मद (सल्लललाहू अलैही वसललम) को रोकना नामुमकिन है तो उन्होंने पैगंबर मुहम्मद (सल्लललाहू अलैही वसललम) के चाचा अबु तालिब के पास आए और हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को धन और अन्य प्रलोभन देने की कोशिश की लेकिन हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) ने अपने इस्लाम की प्रचार से ना हटे।

अबु तालिब से कूफ्फार के मिलने के दौरान ही वलीद (हजरत खालिद के पिता) ने अपने बेटे अम्मारा बिन वलीद को अबु तालिब को हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के बदले देने की बात कही थी। जिसको अबु तालिब ने ठुकरा दिया। अबु तालिब ने उनसे कहा कि तुम मुझे अपना बेटा देते हो और उसके बदले मेरे भतीजे को चाहते हो ताकि तुम उसको मार डालो।

अन्य मक्कावालों की तरह हजरत खालिद भी पहले इस्लाम के सख्त दुश्मन थे। उनके घर पर अक्सर इस्लाम के चर्चे होते रहते थे। मक्कावालों को अपने पुराने खुदाओं के बारे में बुरा सुनना नापसंद था। वो लोग इस्लाम कबूल करने वालों के बारे में जानकारी लेते, लोगों की जासूसी करते, की आज कौन मूसलमान हुआ, और जब उन्हें किसी की खबर मिलती तो बाजारों में कहते फिरते की आज फला आदमी मूसलमान हुआ और लोग उस मूसलमान को मारते, उनको कुछ ना बेचते ना उनसे खरीदते। ऊपर अपने पढ़ा कि वलीद ने अपने बेटे को हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के बदले अबु तालिब को देने के लिए पेश किया। उनसे आपको अंदाजा होगा कि हजरत खालिद के पिता और उनके घर के लोग किस तरह हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) और इस्लाम से घृणा और दुश्मनी रखते थे।

अबु तालिब से कुरैश की मुलाकात और उसमें मिली नाकामयाबी के बाद से उन्होंने मूसलमानों पर और भी ज्यादा जुल्म करना शुरू कर दिया था। मुसलमानो को हर तरह से उन्होंने बहिष्कार किया। उनसे व्यापार और रिश्ता तोड़ा। पैगंबर खुद शारीरिक नुकसान से काफी हद तक सुरक्षित थे, क्योंकि आंशिक रूप से अपने कबीले की सुरक्षा में थे। क्योंकि अबु तालिब हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के कबीले बनू हाशिम के सरदार थे और वे हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को बाकी कुफ्फरों से जितना हो सके बचाते। लेकिन एक बार तमाम मक्का के कबीलों ने मिलकर हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) और मुसलमानो और मुसलमानो से हमदर्दी रखने वाले तमाम लोगों को तीन साल के लिए शब-ए-अबी तालिब (मक्का के करीब दो पहाड़ों के बीच की वादी का नाम) में बॉयकोट किया। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के साथ अबु तालिब भी उस में थे। उस में कुफ्फार न खाना पहुँचने देते ना ही किसी को मिलने जाने देते। मक्कावाले बाहर से निगरानी रखते थे। ये तीन साल काफी कठिनाइयों से गुज़रे।

शब-ए-अबी तालिब के तीन साल की बॉयकोट से निकलने के बाद अबु तालिब बीमार हुए। 619 में, पहले हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के वही मिलने के दस साल बाद, अबू तालिब की मृत्यु हो गई। पैगंबर मुहम्मद (सल्लललाहू अलैही वसललम) की स्थिति अब अधिक नाजुक हो गई। क्यूंकि अबु तालिब के मृत्यु के बाद कुरैश की मुश्किलें आसान हो गई, और वो अब हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) से और भी ज्यादा दुश्मनी करने लगे। अबु तालिब मुसलमान तो नहीं हुए लेकिन अपनी जिंदगी में हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) का साथ दिया। अपने प्यारे भतीजे हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को उन्होंने ही बचपन से पाल कर बढ़ा किया था। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को उनके मृत्यु का बहुत दुख हुआ। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) के लिए वो हमेशा एक मजबूत सहारा थे। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को उनसे बेहद मुहब्बत थी। अभी हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) को अबु तालिब की मृत्यु का दुख खत्म भी नहीं हुआ था कि हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) की बीवी उम्मुल मुमिनिन हजरत खदिजा (रजी अल्लाहू अनहा) का भी इंतकाल हो गया। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) इन दोनों की इंतकाल से बहुत दुख हुए। हुजूर (सल्लललाहू अलैही वसललम) ने इस साल को ग़मों का साल बताया। 

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