हजरत खालिद बिन वलीद-8

हजरत खालिद का इस्लाम कबूल

हुदैबिया की संधि के बाद इस्लाम और ज्यादा फैलने लगा। लोग और ज्यादा इस्लाम को समझने और कबूल करने लगे। तारीख–ए–तबरी, में लिखा है। सैयदुना इमाम जुहरी कहते हैं : जब संघर्ष विराम ने प्रभाव डाला और शांति बहाल हो गई, तो लोग एक-दूसरे से मिलने के लिए जाने लगे और इस्लाम की पुकार फैलने लगी। जिस किसी के पास थोड़ा सा भी सामान्य ज्ञान था, उसने इस्लाम की राह में प्रवेश किया; और हुदैबिया की संधि से मक्का की विजय तक दो साल के भीतर, इस्लाम को गले लगाने वाले लोगों की संख्या उन लोगों के बराबर थी जिन्होंने इस अवधि से पहले इस्लाम को पूरी तरह से अपना लिया था।

हजरत खालिद भी इस्लाम को समझने की कोशिश करने लगे। उनकी सोच में अल्लाह ने बदलाव ला दिया था। अब तक वो इस्लाम से जंग लड़ रहे थे। अब जबकि मक्कावालों और मुसलमानो के बीच शांति बहाल हुआ तो उन्हें इस्लाम के बारे में सोचने और समझने का मौका मिला। अब उन्होंने दुश्मनी को हटा कर अक्ल से इस्लाम की बातों को समझने की कोशिश की और उन्हें इस्लाम की सच्चाई को जानने में देर ना लगी। लेकिन अब भी उन्हें कुछ भ्रम थी जिसके बारे में वे बेचैन थे।

जब कजा उमरा के मौके में अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मक्का में प्रवेश किया, तो हजरत खालिद वहां नहीं थे। हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हजरत खालिद के भाई हजरत अल वलीद बिन वलीद (रज़ी अल्लाहू अनहू) जो पहले ही मुसलमान हो चुके थे उनसे पूछा, “खालिद कहाँ है?” 

उन्होंने कहा: अल्लाह उन्हें ले आयेगा। 

हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा : इस्लाम को नासमझने वालों में खालिद जैसा कोई नहीं है। यदि खालिद द्वारा मुसलमानों पर लाई गई पीड़ा और अगर वह मुसलमानों का समर्थन करके कुफ्फार के खिलाफ उसकी गतिविधि देखा जाए, तो मुसलमानों की दौड़ में खालिद आग रहेगा। (तबकात इब्न साअद, खंड 4, पृष्ठ 259)।

इसका मतलब था के हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हजरत खालिद के मुसलमान होने की उम्मीद रखते थे।

जब हजरत खालिद को ये बात पता चली तो उनके दिल में इस्लाम के प्रति प्यार बढ़ गया और उसने अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की सेवा में पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घर में उपस्थित होने का फैसला किया। उन्होंने अपना मन बना लिया। फिर एक दिन वे पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मिलने के लिए मदीना की तरफ चल पड़े। रास्ते में वह एक ही दिशा में यात्रा कर रहे दो अन्य लोगों से मिले : अम्र बिन अल-आस और उस्मान बिन तलहा। और उनसे बात करने पर पता चला कि तीनों एक ही उद्देश्य के लिए मदीना जा रहे हैं। उन तीनों मे प्रत्येक ने अन्य दो को इस्लाम के कटु शत्रु के रूप में माना था। लेकिन जब पता चला कि वो तीनों एक ही उद्देश्य से मदीना जा रहे है तो खुश हुए और मदीना की तरफ चल दिये।

वे तीनों 8 हिजरी, सफ़र के महीने पहले दिन मदीना पहुँचे। उन्होंने पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ मुलाकात की और सलाम किया, हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बड़ी मुहब्बत के साथ उनका अभिवादन किया। तुरंत, उन्होंने इस्लाम स्वीकार करने की घोषणा की और इस्लाम कबूल किया। 

हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) अब मदीना में रहने लगे। वे अब अन्य सहाबा के साथ मस्जिद– ए- नबवी में आते और हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बातों को सुनते, इस्लाम की सीख लेते। अब वे अन्य सहाबियों की तरह व्यवहार करते। उन्हें भी मुसलमानो से सम्मान और समानता मिला। मुसलमानो के बीच ये नहीं था कि कोई पहले मुसलमान हुआ तो ज्यादा सम्मान करे। लोग सभी का समान रूप से सम्मान करते थे।

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