हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) और मुसैलिमा झूठा के साथ यमामा की जंग
पवित्र पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की मृत्यु के बाद अरब में उठने वाले सभी धोखेबाजों और झूठे नबियों में से, सबसे कुख्यात और खतरनाक मुसैलिमा था जो मध्य अरब के बनू हनीफा में से था। मुसैलिमा ने पवित्र पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जीवनकाल के दौरान अपने कबीले के एक प्रतिनिधि मंडल के साथ मदीना का दौरा किया था।
मदीना से लौटने पर, मुसैलिमा ने खुद के नबी होने का दावा किया और अपना मजहब की स्थापना की। उसने अपने अनुयायियों को रोजा, और जकात के दायित्वों से मुक्त कर दिया। उसने दैनिक नमाज की संख्या कम कर दी। उसने जिना और शराब पीने को वैध बना दिया। पवित्र कुरान की नकल में वह लयबद्ध वाक्यों और कविताओं को पढ़ता था, जो उसने खुद रचा था। लेकिन वह उस बातों को ‘वही’ बताकर अपने अनुयायियों को सुनाता था। वह एक जबर्दस्त वक्ता था और जनता को प्रभावित कर सकता था। बनू हनीफा कबीले के लोग ने उसे अपना नबी मान लिया और उसके अनुयायी बन गए थे।
धीरे-धीरे मुसैलिमा का प्रभाव और उसके अनुयायी की संख्या बढ़ती गई। फिर एक दिन, 10 हिजरी के अंत में, उसने पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुसैलिमा ने अपने आप को नबी बताया और हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को भी रसूल संबोधित कर अरब प्रायद्वीप को दो हिस्सों में विभाजित करने की मांग करते हुए एक पत्र भेजा, एक हिस्सा मुसलमानों के लिए, और दूसरा मुसैलिमा और उनके अनुयायियों के लिए। पवित्र पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन्हें मुसैलिमा कज्जाब (यानी मुसैलिमा झूठा) के रूप में संबोधित किया, और कहा कि सभी भूमि अल्लाह की है और अल्लाह ही जिसे चाहे मुल्क, जमीन (भूमि) देता है। और हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे अरब का हिस्सा देने से इन्कार किया और उसके नबी होने के दावा को भी झूठा बताया।
जब मुसैलिमा अपने कबीले साथ मदीना आया था तो एक आदमी नहर-अर-रज्जाल मदीना ही रुक गया था और इस्लाम की शिक्षा ली थी और इस्लाम के ज्ञानी के रूप में काफी नाम कमाया था। हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे बनी हनीफा में भेजा और वहां जाकर मुसैलिमा और बनी हनीफा के लोगों को इस्लाम की तरफ बुलाने और मुसैलिमा के झूठे होने की बात बताने, समझाने और इस्लाम सिखाने का हुक्म दिया। लेकिन इस नहर-अर-रज्जाल ने बनी हनीफा में जाकर मुसैलिमा को सच्चा नबी बताया। जब उसने ऐसी बात कही तो लोग हर तरफ से मुसैलिमा के अनुयायी बनने लगे और वह काफी ताकतवर बन गया था।
जब खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने झूठे नबियों के खिलाफ सेना का दल भेजा तो मुसैलिमा के खिलाफ करवाई करने यमामा की तरफ हजरत इकरिमा बिन अबु जहल (रज़ी अल्लाहू अनहू) को भेजा और बताया कि जब तक मदद के लिए दूसरे सेना दल ना पहुंचे तब तक हमला ना करे। खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने शुरहबिल बिन हसना (रज़ी अल्लाहू अनहू) को हजरत इकरमा बिन अबु जहल (रज़ी अल्लाहू अनहू) की मदद के लिए भेजा।
लेकिन हजरत इकरिमा (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने सहायता सेना के आने से पहले ही मुसैलिमा पर हमले कर दिए। मुसैलिमा के पास लगभग 40,000 की संख्या की मजबूत सेना थी और मुस्लिम बहुत ही कम थी। मुस्लिम सेना ने काफी नुकसान उठाया और पीछे हट गए। मुसैलिमा भी अपनी स्थान लौटा और जंग ज्यादा नहीं बढ़ी। मुस्लिम सेना मुसैलिमा की सेना के करीब ही रही और पैनी नजर रखने लगे। मुसलमानों ने काफी नुकसान उठाया था। खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) को हालत बतायी गयी तो उन्होंने हजरत इकरिमा (रज़ी अल्लाहू अनहू) की गलती पर बहुत नाराज हुए और उन्हें यमन में जाकर बाकी झूठे नबियों से लड़ने के लिए भेज दिया। हजरत इकरिमा (रज़ी अल्लाहू अनहू) एक साहसी और जबर्दस्त सेनापति थे लेकिन इस गलती से खलीफा को बहुत नाराजगी हुई, हजरत इकरिमा (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने अपनी बाकी की कारवाई को पूरा किया। अब तक हजरत शुरहबिल बिन हसना (रज़ी अल्लाहू अनहू) भी यमामा पहुंच गए थे और खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उन्हें मुसैलमा पर नजर रखने को कहा, जब तक कि सहायता सेना और अगला हुक्म ना आए। इधर हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को यमामा जाने के लिए तैयार होने को कहा और बताया की मूहाजिरिन और अनसार की सेना दल सहायता सेना की तौर पर हजरत खालिद की तरफ भेजा जाएगा, जब वह सेना दल आ जाए तो हजरत खालिद की सेना से उसे मिलाकर उसकी कमान हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को करने और यमामा तुरंत जाकर हजरत शुरहबिल (रज़ी अल्लाहू अनहू) के सेना को भी अपने सेना से मिलाकर मुसैलिमा के खिलाफ जंग की कमान संभालने का हुक्म दिया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) उस समय बुटाह में थे।
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने संदेश पाते ही अपने सेना को तैयार किया और मदीना से आने वाले सहायता सेना वाहिनी का इंतजार करने लगे।
हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने मदीना से बुटाह की सेना भेजा। उस सेना में हजरत साबित बिन कैस (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने अंसार की टुकड़ियों का नेतृत्व किया, जबकि हजरत अबू हुजैफा बिन उतबा (रज़ी अल्लाहू अनहू) और हजरत जैद बिन खट्टाब (रज़ी अल्लाहू अनहू) जो हजरत उमर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के बड़े भाई थे, उन्होंने मुहाजरीन की टुकड़ी का नेतृत्व किया। हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने बदर और उहूद के जंग के दिग्गज सहाबा को हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) की सेना में शामिल होने की इजाजत दी। अन्य दिग्गज सहाबा भी शामिल हुए जिन में : हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के बेटे हजरत अब्दुर रहमान (रज़ी अल्लाहू अनहू) ; हजरत उमर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के बेटे हजरत अब्दुल्लाह (रज़ी अल्लाहू अनहू) ; उहुद के प्रसिद्ध योद्धा जिन्होंने हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तिलों से बचाया था हजरत अबू दुजाना (रज़ी अल्लाहू अनहू) ; और हजरत मूआवियाह (रज़ी अल्लाहू अनहू का) जिन्होंने बाद में उमय्यद शासन की स्थापना की, आदि शामिल थे। ये सेना बुटाह पहुंची तो हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) सेना से मिल गए। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने अब सेना की कमान संभाली और यमामा की तरफ चले गए।
इधर यमामा में हजरत शुरहबिल (रज़ी अल्लाहू अनहू) को लगा कि वो बिना सहायता सेना के जीत सकते हैं। तो उन्होंने भी मुसैलिमा की सेना पर हमला कर दिया। उन्होंने भी गलती कर दी और मुस्लिम सेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा। मुस्लिम सेना पीछे हट कर अपने स्थान पर आ गए और मुसैलिमा पर नजर रखने लगे। मुसैलिमा ने भी और हमला नहीं किया। उसने अपने अनुयायियों को इसे अपना जीत और अपने नबी होने का दावे के तौर पर प्रचार किया। उसी बीच मुसैलिमा के जासूसों ने उसे हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) के नेतृत्व में मुस्लिम सहायता सेना यमामा की तरफ आने की खबर दी। मुसैलिमा को ये पता चला तो उसने अपने 40,000 की संख्या के सेना को यमामा की घाटी से हटाकर अकरबा के मैदान में ले आए और वहां मुस्लिम सेना से लड़ने के लिए इंतजार करने लगा।
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) जब यमामा आ रहे थे, तो उन्हों रास्ते में मुसैलिमा के एक प्रमुख सेनापति मूजआ बिन मूरारा के नेतृत्व में कुछ सेना को पाया। ये लोग पास के ही एक कबीले को लूट आ रहे थे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू का) को जब पता चला कि वह सब मुसैलिमा के साथी है तो उन्होंने उन सब को मार डाला, सिर्फ उनके सेनापति मूजआ बिन मूरारा को कैद कर लिया और जंजीरों से कैद कर सेना के साथ यमामा में हजरत शुरहबिल (रज़ी अल्लाहू अनहू) की सेना के पास लाया गया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) हजरत शुरहबिल (रज़ी अल्लाहू अनहू) का मुसैलिमा के साथ जंग की बात मालूम हुई तो काफी गुस्सा हो गए।
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने अब पूरी सेना की कमान संभाली और अकरबा में मुसैलिमा से जंग लड़ने गए। पर दुश्मन की 40 हजार की सेना पूरी तरह से तैयार थी, वे मुसलमानों से लड़ने अकरबा के मैदान से आगे आकर हनीफा के वादी में आ गए। दोनों सेनाओं को हनीफा के वादी में आमने सामने खड़े किया और अपनी सेना की युद्ध की रणनीतिक गठन किया। मुसैलिमा ने अपनी सेना को तीन हिस्सों में गठन किया। बाईं, दाईं, और बीच में। बाईं ओर की सेना वाहिनी की नेतृत्व नहर-अर-रज्जाल को दिया, दाईं ओर सेना वाहिनी का नेतृत्व मूहकिम बिन तुफैल को दिया और खुद बीच वाले सेना वाहिनी का नेतृत्व किया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने भी अपनी 13,000 की सेना को उसी तरह तीन हिस्सों में बाट दिया था। बीच वाले हिस्से की सेना का हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) खुद नेतृत्व कर रहे थे, बाईं वाले हिस्से को हजरत अबू हूजैफा (रज़ी अल्लाहू अनहू) और दाईं वाले हिस्से को हजरत जैद बिन खत्ताब (रज़ी अल्लाहू अनहू) नेतृत्व कर रहे थे।
दिसम्बर 632 ईस्वी, इस्लामी तारीख के, 11 हिजरी शव्वाल के महीने में एक सुबह जंग की शुरुआत हुई।
मुसैलिमा ने पहले हमला ना करके मुस्लिम हमले को प्रतिरोध करने का फैसला किया था। दूसरी ओर मुस्लिम सेना भी खड़ी थी। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को मुस्लिम सेना के संख्या कम होने के बावजूद जंग में जीत का पूरा विश्वास था।
उन्होंने जब देखा कि दुश्मन सेना की रणनीति पहले हमला ना करके प्रतिरोधक लड़ाई लड़ने की है, तो हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने अल्लाह का नाम लेकर मुसलमानों को जंग में पहले हमला करने का आदेश दिया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने दुश्मन को उनके ही रणनीति में फ़साने के लिए जबर्दस्त हमला किया। लड़ाई काफी घमासान की थी। मुस्लिम सेना ने हमले में बागी सेना को पीछे तो हटा दिया लेकिन, जल्द ही मुस्लिम सेना के शृंखला में अनियमितता दिखाई देने लगी। मुस्लिम सेना में कई नई इकाइयाँ थीं और कई अलग-अलग नई कबीले पहली बार जंग कर रहे थे, उन सब के बीच एक साथ जंग करने की अनुभव ना होने के कारण ये अनियमितता दिखाई दी। बागी सेना ने इस अश्रंखलता का फ़ायदा उठाया और जवाबी हमला कर के मुस्लिम सेना को पीछे धकेलने लगे। मुस्लिम सेना पीछे हटती गई, यहां तक कि मुस्लिम सेना अपने तंबुओं के पास पहुंच गई। अब यहा मुसलमानो ने जैसे तैसे मुसैलिमा की सेना को थोड़ा हमला कर पीछे हटाया और अपने श्रंखला को सुधारने के लिए थोड़ा समय निकाला। और यही पर जंग का पहला दिन समाप्त हुआ। रात हो गया तो सब लोग अपने-अपने स्थान में लौट आए।
रात को हजरत खालिद ने अपनी रणनीति बदला। मुस्लिम सेना में कई सारी नए टुकड़ियां थी और कई अलग अलग कबीले पहली बार जंग कर रहे थे, उन सब के बीच एक साथ जंग करने की अनुभव ना होने के कारण ये अनियमितता दिखाई दिए। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने इस गलती को सुधारा, उन्होंने एक ही कबीले के लोगों को एक साथ कर दिया, जिन्हें साथ लड़ने की आदत थी। और अब जब उन्होंने ये काम कर लिया तो सब की श्रंखला को ठीक किया सब को अपने अपने हिस्सों के नेता को दिया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उसी के साथ एक हजार घुड़सवार सेना की टुकड़ी बनाई, जिसको अपने नेतृत्व में संरक्षित रखा।
दूसरे दिन जब दोनों सेना युद्ध के लिए उतरे तो, हर हिस्सा अपने हिस्से से लड़ रहा था। दाईं हिस्से में मुस्लिम सेना के कमान संभालने वाले हजरत जैद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने दुश्मन के बाईं हिस्से के नेता नहर-अर-रज्जाल को मार डाला।
मुस्लिम सेना काफी तेजी से हमले कर रहे थे। उनका वार काफी घातक था, बागी सेना को पता चल गया था कि पहले दिन की तरह मुसलमानों की सेना गलती नहीं कर रहे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) के साथ के कई साथियों ने मुसैलमा को मारने के लिए आगे बढ़ने की कोशिश की लेकिन, वह जंग के मैदान से अपने को बचाते हुए दूर सुरक्षित जगह से जंग का हाल देख रहा था। मुस्लिम सेना के वार से उनके कई लोग मर रहे थे। मुस्लिम सेना की आक्रामक हमलों से अपने आपको बचाते बचाते, बागी सेना काफी थक गए और बागी सेना सुस्त होने लगे थे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने, उस समय का सही फायदा उठाते हुए पूरे मुस्लिम सेना को एक साथ जोरदार हमला करने को कहा। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) अपनी घुड़सवार सेना को एक तरफ से हमला करने को कहा। मुसलमानों के इस हमले से बागियों के पाँव उखड़ गए और वह भागने लगने। हनीफा के वादी के पीछे अकरबा का मैदान शुरू होता है, उसी मैदान में एक बहुत बड़ा बाग था जिसे ‘अबज’ कहते थे, ये बाग बहुत बड़ा था और उसकी एक खासियत थी कि ये किला जैसा था जिसके अंदर कई हजार लोग घुसकर और उसके दरवाजे बंद कर सुरक्षित रह सकते थे। बागी सेना और मुसैलिमा उसी की तरफ भागने लगे। मुस्लिम सेना भी उनका पीछा कर रही थी। पीछा करते समय बागी सेना के दाईं हिस्सा के नेता मूहकिम बिन तुफैल को खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के बेटे हजरत अब्दुर रहमान (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने तीर से मार गिराया। मुसैलिमा और उसके साथ 7000 बागी अबज़ के बाग में घुस गए और दरवाजा बंद कर दिया। मुसलमान सेना उनका पीछा करते हुए आकर बाग के बाहर रुक गये । हनीफा की वादी के जंग को इतिहास में वादी ए हनीफा की जंग भी कहते हैं। ये जंग का पहला हिस्सा था। अब बाग़ के अंदर घुसे हुए बागियों से भी जंग खत्म करना था।
जंग लड़ते हुए अभी दोपहर हो गई थी और जल्द ही अंधेरा होने वाला था। मुसलमान इस जंग को जल्द खत्म करना चाहते थे। उन्होंने बाग की दीवार का हर तरफ से जायजा लिया लेकिन कहीं कोई रास्ता ना मिला, जिससे वे अंदर घुस सके। मुस्लमान सेना कोई उपाय सोच ही रही थी कि उसी समय हजरत बरा’अ बिन मालिक (रज़ी अल्लाहू अनहू) जो मशहूर सहाबी हजरत अनस बिन मालिक (रज़ी अल्लाहू अनहू) के भाई थे उन्होंने मुसलमानों से कहा कि “मुझे उठाकर दीवार की तरफ फ़ेंक दो”। मुसलमानों ने पहले ऐसा करने से इंकार कर दिया लेकिन हजरत बरा’अ (रज़ी अल्लाहू अनहू) के बार बार कहने पर ऐसा किया गया। जब उन्हें फैंका गया तो वे दीवार तक पहुंच गए और दीवार हाथ से पकड़ लिया। उन्होंने उसके बाद दीवार पर चढ़ कर दूसरी तरफ झलांग लगायी और दुश्मन सेना की दरवाजे के पहरेदारों से लड़कर, दो – तीन सैनिकों को मारकर दरवाजे पर पहुंचे और इससे पहले कि दुश्मन की बाकी सेना आए, जल्दी से दरवाजा खोल दिया। दरवाजे के खुलते ही मुस्लिम सेना बाग के अंदर घुस गई और अब जंग फिर से शुरू हुई। मुस्लिमों ने बागियों को जबर्दस्त मार मारी। जंग के बीच ही वहसी (जिसने उहुद की जंग में हजरत हमजा (रज़ी अल्लाहू अनहू) को शहीद किया था, उसने अपने भाले से मुसैलिमा पर वार किया जिससे मुसैलिमा निचे गिर गया। हजरत अबु दुजाना (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने मुसैलिमा के जमीन पर गिरते ही तलवार से सर काट दिया। मुसैलिमा के मरने की खबर मिलते ही बागियों का जोश खत्म हो गया। उनका सुस्त जिस्म और मुसलमानों की तेज हमलों के सामने टिक ना सकीं। जो लोग लड़े उनको मौत मिली। कुछ लोग भाग गए और बाकियों ने आत्मसमर्पण कर दिया। जंग बंद हो गयी और मुसलमानों ने रात वही गुज़ारी अपने तंबुओं के पास नहीं गए। मुस्लिम सेना जंग जीत गये। अबज बाग की ये जंग बहुत ही खून खराबे वाली थी जिसकी वजह वह ‘मौत की बाग’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दूसरे दिन सुबह हजरत खालिद के पास मूजआ बिन मूरारा को लाया गया जिसे हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने कैद कर रखा था। जंग के दौरान वो कैदी ही बना रहा। क्यूंकि अब बागियों में कोई दूसरा बड़ा नेता नहीं था तो हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उससे बागियों के दूसरे ठिकानों की जानकारी ली। मूजआ बिन मूरारा ने हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को बताया कि उन्होंने जरूर ये जंग जीती। लेकीन इससे भी कई बड़ी संख्या की सेना यमामा की किलों में मौजूद है। उसने हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को जंग के बजाए समझोता करने के लिए कहा। उसने हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को उसे किला भेजने को कहा। उसने कहा कि वहां जाकर वो बागियों को मुसलमानों के सामने समझौता कर आत्मसमर्पण करवाने की बात करेगा। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) मान गए। उन्होंने और मूजआ बिन मूरारा ने एक संधि बनाई जिसमें लिखा था कि मुस्लिम सेना यमामा के सारे हथियार, घोड़े, तलवार और रक्षा-कवच, और सोना ले लेगा और आधे बागी जनसंख्या को कैद कर लेंगे, बाकियों को छोड़ देंगे। मूजआ बिन मूरारा ये संधि लेकर यमामा शहर चला गया। थोड़ी देर बाद, वह लौट कर आया, और हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को बताया कि यमामा की लोगों ने संधि को मानने से इंकार कर दिया। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) मुस्लिम सेना और मूजआ बिन मूरारा को साथ लेकर यमामा शहर गए, उन्होंने शहर के अंदर जाने वाले रास्ते के किलों को देखा, तो हैरान हो गए कई सैनिक किलों में खड़े थे। उन सभी सैनिकों ने रक्षा-कवच पहने हुए थे। मूजआ बिन मूरारा शहर के अंदर से आया और हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को बताया कि अगर किसी को भी मुस्लिम सेना कैद ना करे तो वे लोग संधि को मानने तैयार है। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने इस बात को कबूल कर लिया और संधि को दोनों तरफ से मान लिया गया। यमामा शहर के किलों के दरवाजे खोल दिए गए। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) अप नी सेना और मूजआ बिन मूरारा के साथ जब अंदर गए तो हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने सिर्फ औरतों, बच्चों और बुढ़े लोगों को देखा।
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) हैरान हुए उन्होंने मूजआ को पूछा कि, “सेना कहाँ हैं?” तो उसने ज़वाब दिया, “कोई सेना नहीं, जो सेना आपने किले पर देखा था, वो सब औरतें थी जिसे, मैंने सैन्य कवच पहना कर खड़ा किया था।”
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) को गुस्सा आया उन्होंने, कहा कि, “तुमने मुझसे चालाकी की।” मूजआ ने कहा, “यह मेरे लोग हैं, मैं इनके लिए और कुछ नहीं कर सकता था।”
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने संधि को पहले ही मान लिया था, इसलिए उन्होंने मूजआ बिन मूरारा और बाकियों को कुछ नहीं किया। उन्हें सब हक दिया गया और वो लोग शहर में आजादी से जी रहे थे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) खलीफा को संदेश भेजा और जंग का हाल बताया और यमामा शहर के संधि के बारे में बताया। उन्होंने खलीफा को बताया कि वो खलीफा के आदेश जिसमें जो बागी था उसको मरने का हुक्म था वो यमामा शहर वालों पर नहीं कर पाए क्यूंकि उनसे पहले समझोता कर लिया गया था। खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) को ये बात पता छली तो उन्होंने ने भी मान लिया और संधि ना तोड़ने की बात कही।
लेकिन संधि सिर्फ यमामा शहर और उसके किलों में रहने वालों के साथ था। अभी भी मुसैलिमा के मानने वाले बनी हनीफा के लोग यमामा के आसपास थे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) कई सैन्य दस्ते उन को ढूँढने और लड़ने के लिए भेजा कुछ ही दिनों में यमामा के आसपास के सभी बागियों से जंग छिड़ गई। जिसने जंग लड़ी उन्हें ख़तम किया गया और जिन्होंने आत्मसमर्पण किया उनके साथ अच्छा व्यवहार किया गया। उनके साथ समझौता किया गया।
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) का यमामा में काम पूरा हो गया। उनके नेतृत्व में मुसलमानों ने बड़ी जीत हासिल की। यमामा की जंग झूठे नबियों की जंगों में सबसे ज्यादा कठिन जंग था। मुसैलिमा के पास 40, 000 की सेना थी जिससे 13,000 की मुस्लिम सेना ने जंग लड़ी और जीती। यमामा की जंग में बागियों के 21,000 सेना मारे गए। और मुसलमानों के लगभग 1200 शहीद हुए। मुसलमानों में अंसार और मुहाजिरीन काफी संख्या में शहीद हुए। हजरत अबु दुजाना (रज़ी अल्लाहू अनहू), हजरत जैद (रज़ी अल्लाहू अनहू) जो हजरत उमर (रज़ी अल्लाहू अनहू), हजरत अबु हुजैफा (रज़ी अल्लाहू अनहू) जैसे सहाबा के साथ ही लगभग 300 से 600 तक बड़े बड़े हाफिज सहाबा शहीद हुए। जिसकी वजह से बाद में “कुरआन” को किताब के तौर में जमा करने का फैसला लिया गया।
यमामा की जंग के बाद अरब में बागियों को पूरा खत्म कर दिया गया था। कुछ जो बाकी थे उन्हें हजरत इकरिमा (रज़ी अल्लाहू अनहू) खत्म करने वाले थे। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) अब यमामा में थे। उन्हें अब खलीफा हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के द्वारा ईराक और सीरिया की जंगों में जाने का हुक्म मिलने वाला था।