हजरत खालिद बिन वलीद-1

हजरत खालिद का जन्म, बचपन और जवानी

हजरत खालिद इब्न वलीद रज़ी अल्लाहू अनहू का जन्म सम्भवत 592 ईस्वी में अरब के एक नामवर परिवार में हुआ था। आपका जन्म कुरैश की एक जनजाती बनू मख़ज़ूम खानदान में हुआ था। बनू मख़ज़ूम के लोग कुरैश के बहुत ही अमीर और सैन्य कला में माहिर थे। हजरत खालिद इब्न वलीद (रज़ी) के पिता का नाम वलीद बिन मुगीरा और मां का नाम अल-अस्मा बिंत अल-हरीथ इब्न हज़न, जिसे आमतौर पर खानाबदोश बानू हिलाल जनजाति के लुबाबा अल-सुघरा के रूप में जाना जाता था।
हजरत खालिद (रज़ी) के सात भाई – बहन थे। हजरत खालिद के भाइयों के नाम यह है – खालिद, वलीद (अपने पिता के नाम पर), हिशाम, अम्मारा, अब्दु शम्स, और बहनो के नाम यह है – फाख्ता और फातिमा।

हज़रत खालिद के भाई वलीद और हिशाम ने इस्लाम धर्म अपना लिया। और आपकी बहन फातिमा ने फतह-ए- मक्का के दिन इस्लाम धर्म अपना लिया। उनकी शादी हारिश बिन हिशाम मखज़ुमी के साथ हुई। और आपकी दूसरी बहन फाख्ता ने भी इस्लाम कबूल की और उनकी शादी शफवान बिन उमय्या से हुई।
उनके जन्म के तुरंत बाद खालिद को उनकी मां से दूर ले जाया गया, जैसा कि उस समय अरबों के बीच प्रथा थी। मक्का के कुरैश के अच्छे परिवारों के बच्चों को रेगिस्तान में एक बदौइन गोत्र के पास भेजते थे। हजरत खालिद के लिए एक दाई माँ लाई गई, जिसने उसका पालन-पोषण किया। साफ, सूखे रेगिस्तान की शुद्ध हवा ने जबरदस्त ताकत की नींव रखी गई थी और मजबूत स्वास्थ्य जिसे खालिद को जीवन भर आनंद लेना था। बचपन मे वह जल्दी बड़ा हो गया। हजरत खालिद ने रेगिस्तान के अरबों के बीच अपना बचपन बिताया। और जब वह पाँच या छह वर्ष का था तब वह मक्का में अपने माता-पिता के घर लौट आए।

मक्का में रहने वाले कुरैश की महान जनजाति ने एक स्पष्ट विभाजन विकसित किया था। अपने प्रमुख कुलों के बीच विशेषाधिकार और जिम्मेदारी दी गई थी। कुरैश के तीन प्रमुख कुलों में बनू हाशिम, बनी अब्दुद्दर (जिनमें से बानी उमय्याह एक शाखा थी) और बनी मखजुम थे।

बनी मख़ज़ूम युद्ध के मामलों के लिए जिम्मेदार था। इस कबीले ने उन घोड़ों को पाला और प्रशिक्षित किया जिन पर कुरैश युद्ध के लिए सवार होते थे। कुरैश समूहों को युद्ध में ले जाने के लिए अधिकारी बनी मख़ज़ूम के होते थे ।

बचपन से ही हजरत खालिद को सवारी करना सिखाया गया था। एक मखजुमी के रूप में उन्हें एक आदर्श सवार होना था और उन्होंने जल्द ही घुड़सवारी की कला में महारत हासिल कर ली थी। लेकिन अरब को सिर्फ प्रशिक्षित घोड़ों को सम्भालने पर अच्छा घुड़सवार नहीं माना जाता था, उन्हें किसी भी घोड़े की सवारी करने में सक्षम होना पड़ता था और ऊँट की सवारी में भी माहिर होना पड़ता था क्योंकि वे युद्ध घरों से थे और व्यापार के लिए ऊंट का इस्तेमाल होता था। हजरत खालिद ने बचपन से ही उसमे महारत हासिल कर ली थी। बनी मखजुम अरब के अच्छे घुड़सवारों में थे और खालिद बनी मखजुम के सबसे अच्छे घुड़सवारों में से एक बन गया।

खालिद ने घुड़सवारी के साथ-साथ युद्ध कौशल भी सीखा। उन्होंने सभी हथियारों भाला, धनुष और तलवार का उपयोग करना सीखा। उन्होंने घुड़सवारी और पैदल लड़ना भी सीखा।

जैसे-जैसे खालिद जवान हुए, उन्होंने छह फीट से अधिक की ऊँचाई प्राप्त की। उनके कंधे चौड़े हो गये, उनकी छाती का विस्तार हुआ और उसके दुबले और पुष्ट शरीर पर मांसपेशियां सख्त हो गईं। उनके चेहरे पर दाढ़ी भरी हुई और मोटी दिखाई दे रही थी, उनके सुडौल शरीर, उनके बलशाली व्यक्तित्व के साथ घुड़सवारी और हथियारों के उपयोग में उनका कौशल की चर्चा मक्का में होने लगी, वह जल्द ही मक्का में एक लोकप्रिय और बहुत प्रशंसित व्यक्ति बन गए।

हजरत खालिद के पिता वलीद एक धनी व्यक्ति थे। इस कारण हजरत खालिद को जीवन यापन के लिए काम नहीं करना पड़ता था और वे अपनी घुड़सवारी और लड़ाई के कौशल सीखने पर ज्यादा ध्यान केंद्रित करते रहे। लेकिन कुरैश में हर किसी को कुछ न कुछ काम करना पड़ता था। या तो पारिश्रमिक या न्याय के लिए, समाज का एक उपयोगी सदस्य बनने के लिए। और अल वलीद (हजरत खालिद के पिता), जिसने बड़ी संख्या में कर्माचारियों को काम पर रखा हुआ था वो खुद भी खाली समय काम करते थे। अपने खाली समय में वह एक लोहार और कसाई का काम करते थे। वह कबीले के लिए जानवरों को मारते थे। वह एक व्यापारी भी थे, और अन्य कबीलों के साथ व्यापार का कारवां संगठित करना और पड़ोसी देशों में भेजना आदि काम किया करते थे।

हजरत खालिद ने एक से अधिक अवसरों पर व्यापारिक कारवां के साथ सीरिया गए और रोम प्रांत के महान व्यापारिक शहरों का दौरा किया। इन व्यापारिक दौरों में उन्हें गसान के ईसाई अरबों, तेसीफ़ोन के फारसियों से, मिस्र के कॉप्टिक्स, और बाज़ंटाइन साम्राज्य के रोमन से मिलने और उन्हें उनके बारे में जानकारी मिली और व्यापार करने का अनुभव हुआ, जो आगे जाकर उनकी जिंदगी में काफी काम में आए ।

 इन्हीं व्यापारी यात्राओं से उन्हें सफर के रास्ते, भूगोल का ग्यान और जानकारी मिली। जिससे उन्हें इस्लाम कबूल करने के बाद जंग में काफी मदद मिली।

 हजरत खालिद ने युद्ध की कला अपने पिता वलीद से प्राप्त की। वलीद सिर्फ कुरैश ही नहीं पूरे अरब में काफी बहादुर और युद्ध कला में माहिर माना जाता था। वलीद मक्का के सेनापतियों में से था। इसलिए अल वलीद न केवल अपने बेटों के पिता और संरक्षक थे; वह उनके युद्ध प्रशिक्षक भी थे। उनसे हजरत खालिद ने सीखा कि कैसे रेगिस्तान में तेजी से आगे बढ़ना, शत्रुतापूर्ण बस्ती से कैसे संपर्क करना है, उस पर कैसे हमला करना है। हजरत खालिद ने दुश्मन को अनजाने में पकड़ने, उस पर अप्रत्याशित क्षण में हमला करने के महत्व को सीखा और जब दुश्मन टूट जाये और भागने लगे तो उसका पीछा करते हुए हमले करने का तरीका सीखा। यह आदिवासी युद्ध कला के लिए अनिवार्य हिस्सा था। अरब अच्छी तरह से गति, गतिशीलता और आश्चर्य के मूल्य को जानते थे, और आदिवासी युद्ध मुख्य रूप से आक्रामक रणनीति पर आधारित था।

परिपक्व उम्र तक पहुँचने पर हजरत खालिद का मुख्य रुचि युद्ध बन गया और जल्द ही हजरत खालिद के लिए युद्ध एक जुनून बन गया। हजरत खालिद अपने मन और मस्तिष्क में युद्ध की विचार और रणनीति सोचते रहते थे; उनकी महत्वाकांक्षा युद्ध में जीत की थी। उनके आग्रह हिंसक थे और उनका संपूर्ण मनोवैज्ञानिक श्रृंगार सैन्य था। वह बड़ी लड़ाई लड़ने और बड़ी जीत हासिल करने का सपना देखते थे।

हजरत खालिद के कई दोस्त थे जिनके साथ, वह सवारी करते और शिकार करते थे। हजरत खालिद के दोस्तों में हजरत उमर, हजरत अम्र बिन अल-आस और अम्र बिन हिशाम बिन अल मुगीराह (इस्लाम का बहुत बड़ा दुश्मन) था जो बाद में अबू जहल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। जब हजरत खालिद बाहर काम नहीं करते थे, तो वे कविता पढ़ते थे, और कुस्ती का मुकाबला करते थे, उनको शराब पीने की आदत थी।

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