हजरत अबु बक्र की खिलाफत और झूठे नबीयों से जंग (रिद्दा की जंग)
हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुनिया से गुजर जाने के बाद हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) को सर्वसम्मति के साथ मुसलमानो का पहला खलीफा नियुक्त किया गया। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) को बहुत बड़ा काम करना था क्यूंकि जब हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मृत्यु हुई तो बहुत से लोगों ने नबी होने का झूठा दावा किया और अपनी-अपनी सेना बना ली। और बहुत से कबीले जो पैगंबर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के रहते समय मदीना को जकात भेजते थे, जो हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का हुक्म था, उन्होंने अब खलीफा को जकात देने से मना कर दिया। उनका कहना था, चूंकि पैगंबर दुनिया में अब नहीं रहे, इसलिए उनके लिए वहां जकात भेजने का कोई कारण नहीं था। मक्का की विजय के बाद, जब अरब में अन्य जनजातियों ने मदीना में प्रतिनिधिमंडल भेजे और इस्लाम स्वीकार कर लिया, तो मदीना के आसपास की जनजातियों ने भी ऐसा किया और इस्लाम के प्रति निष्ठा की पेशकश की। उनकी निष्ठा सच्चे विश्वास और दिल के दृढ़ विश्वास की वज़ह से नहीं बल्कि कूटनीति और सामयिक परिस्थितियो पर अधिक आधारित थी। वे इस्लाम को व्यक्तिगत निष्ठा का मामला मानते थे जो पवित्र पैगंबर(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की वफात के साथ समाप्त हो गया था। इसलिए उन्होंने जकात को ना देने की बात कही। कई कबीले जिन्होंने जकात देने से इन्कार किया उन्होंने झूठे नबियों को नबी भी मान लिया था।
अपनी वफात से पहले पैगंबर ने रोमन साम्राज्य की दक्षिणी सीमा सीरिया पर जंग के लिए एक शक्तिशाली सेना को सुसज्जित किया था लेकिन उन्हें भेजने से पहले आप की वफात हो गई। उनकी वफात के बाद, जब देखा कि मदीना पर कई तरह के मसले है और किसी भी समय झूठे नबियों और जकात ना देने वाले विद्रोहियों के साथ जंग हो सकती है, तो मुसलमान इस अभियान को रद्द करवाना चाहते थे। लेकिन हजरत अबू बकर(रज़ी अल्लाहू अनहू) ने इस विचार का दृढ़ता से विरोध करते हुए कहा: “मैं पैगंबर द्वारा शुरू की गई किसी भी चीज को कभी रद्द नहीं करूंगा। हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस सेना की कमान नौजवान हजरत उसामा बिन जैद बिन हारिसा (रज़ी अल्लाहू अनहू) {हजरत जैद बिन हारिसा के बेटे } को दी थी। आपने मुताह की जंग में पढ़ा था कि हजरत जैद बिन हारिसा (रज़ी अल्लाहू अनहू) मुताह की जंग में शहीद हो गए थे। इस सेना में हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के कई बड़े और पुराने सहाबा थे। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उन्हें हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मकसद और जंग को पूरा करने के लिए भेज दिया था।
जब हजरत उसामा की सेना ने मदीना से सीरियाई मोर्चे के लिए चले गए, मदीना के आसपास की कबीलों ने हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के पास जकात के उन्मूलन कराने की मांग लेकर प्रतिनिधि भेजी। उन कबीलों ने जकात ना देने के लिए जंग तक करने को तैयार थे। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उनकी मांग को नकार दिया, उन्हें जो हुक्म हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किया था उसको जारी रखा। जब हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने कबीलों की ज़कात के भुगतान से छूट देने की मांग को अस्वीकार कर दिया, तो उनके पास हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) के तर्क के मुकाबले कोई तर्क नहीं था। उन्होंने इस तरह के इनकार को एक चुनौती के रूप में लिया। जब प्रतिनिधि मंडल मदीना से जाने लगे तो उन्होंने मदीना की स्थिति का जायजा लिया। क्यूंकि हजरत उसामा (रज़ी अल्लाहू अनहू) सीरिया चले गए थे और उनके पास मदीना के लगभग हर सैन्य थे तो मदीना लगभग खाली था। प्रतिनिधियों ने मदीने की ये हालत अपने कबीले में जाकर बताई, उन कबीलों ने मदीने पर हमले की तैयारी शुरू कर दी। इधर खलीफा हजरत अबु बकर सिद्दीक (रज़ी अल्लाहू अनहू) भी जब कबीलों के प्रतिनिधि मदीना से चले गए तो उन्होंने फौरन ही मदीना की रक्षा के लिए तैयारी शुरू कर दी। ये उनकी दूरदृष्टि थी, उन्हें मालूम हो गया था के मदीना के पास वाले कबीले जरूर उनकी मांग के ठुकराये जाने पर जंग करेंगे। मदीना के आसपास बनी असद; बनी सअलबा; बनी घटफान; बनू मर्राह, बनू अब्बास और अन्य शामिल थे। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने हजरत खालिद, हजरत जुबैर, हजरत तल्हा, हजरत अब्दुर रहमान बीन औफ, हजरत अब्दुल्लाह बीन मसूद और हजरत अली (रज़ी अल्लाहू अनहूम) के नेतृत्व में मजबूत सैन्य जत्थे शहर के रणनीतिक दृष्टिकोण पर तैनात कर दिए। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने मदीने के नौजवानो को बुलाकर उनकी सेना बनाया।
11 हिजरी रबी अल सानी के महीने के दौरान एक अंधेरी रात जुल हिस्सा में कबीलों के शिविर में हलचल शुरू हुई। मुस्लिमों ने खुफिया जानकारी जुटाई कि बागियों ने उस रात मदीना पर हमला करने की योजना बनाई थी। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने मस्जिद में सभी मुस्लिम पुरुष वयस्कों को इकट्ठा किया। रात की नमाज के बाद इन लोगों को शहर के विभिन्न कोणों में निगरानी रखने के लिए समूहों में फैलाया। दुश्मन के एक टुकड़ी के प्रमुख पर हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने जुल हिस्सा की दिशा में एक रणनीतिक कोने पर स्थिति ली, जहां से हमला होने का अंदेशा था। बागी कबीलों ने आधी रात को हमला शुरू किया। उन्हें उम्मीद थी कि वे शहर को आश्चर्यचकित कर देंगे, और चूंकि मदीना में कोई सैन्य बल नहीं था, इसलिए उन्हें कोई प्रतिरोध नहीं मिलेगा, और यह उनके लिए एक आसान जीत होगा। जैसे ही बागी बल रात के अंधेरे में आगे बढ़े, हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) की टुकड़ी ने आगे बढ़ती भीड़ पर छलांग लगाई, और उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया। कई आदिवासी मुसलमानों की तलवारों के शिकार हो गए; बाकी लोग पूरी तरह से भ्रम में भाग गए। मुसलमानों ने दुश्मन का पीछा किया और ज़ुल हिस्सा तक उन्होंने पीछा किया। जुल हिस्सा में दुश्मन आकर रुके, क्योंकि यहा दूसरे और बहुत बागी थे जो मदीना के हमले के दौरान पीछे रुके हुए थे, मदीना से भगाया हुआ सेना वहाँ जाकर मिल गए। मुसलमानो को अब दुश्मन की संख्या का पता चला तो हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) मदीना वापस आए और जितना हो सके सेना इकठ्ठा कर फिर हमला करने उसी रात को जुल हिस्सा गए।
देर रात, मुस्लिम बल मदीना शहर से बाहर निकले और जुल हिस्सा में दुश्मन के खिलाफ जबरदस्त हमले किए। आदिवासी बागी कबीले लड़ाई न कर सके और वे जुल किस्सा की तरफ पीछे भाग गए। मुसलमानों ने उनका पीछा ज़ुल किस्सा तक किया। जुल किस्सा में कार्रवाई हुई लेकिन आदिवासी बागी कबीले ताकत में मुसलमानों के हमले का रोष बर्दाश्त नहीं कर सकी। कई बागियों के टुकड़े-टुकड़े कर दिए गए। जो बच गए वे असमंजस में भाग गए। दिन ढलने से पहले मुसलमानों ने जीत हासिल कर ली।
हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने ज़ुल किस्सा में अपनी सेना रखने करने का फैसला किया, और इसे धर्मत्यागी बागी जनजातियों के खिलाफ आगे के अभियानों के लिए एक गढ़ बनाया। हजरत अबू बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने हजरत नौमान बिन मुकरान (रज़ी अल्लाहू अनहू) की कमान के तहत ज़ुल किस्सा में एक टुकड़ी छोड़ दी और बाकियों को ज़ुल किस्सा की लड़ाई में मिले लूट के साथ मदीना लौट आए।
इसी बीच हजरत उसामा की सेना जंग जीत कर काफी जंग की लूट के साथ मदीना लौट आए। हजरत अबु बकर (रज़ी अल्लाहू अनहू) ने उस सेना के साथ एक नयी सेना बनाई और जुलाई किस्सा से भागे हुए बागियों को अबराक में हराया। अब जकात का इंकार करने वालों का काम तमाम हो चुका था जो बचे थे उन्होंने तौबा कर जकात देने का वादा और इस्लाम के प्रति निष्ठा का एलान किया।
ग्यारह वाहिनी इस प्रकार थे –
पहली सेना को हजरत खालिद बिन वलीद की कमान में रखा गया था। बुजाखा में केंद्रित बानू असद की झुठे नबी तुलैहा के खिलाफ कार्रवाई करना था। इसके बाद उन्हें बुटाहा में बनी तमीमों के खिलाफ आगे बढ़ना था।
‘ईकरामा बीन अबू जहल’ {अबु जहल के बेटे जो मक्का के विजय के कुछ दिन बाद ईमान लाए और हुजूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सहाबा बने} के तहत दूसरी सेना को यामामा में बनू हनीफा जनजाति के झूठे नबी मुसैलमा के खिलाफ कार्रवाई कर नी थी, लेकिन दुश्मन से तब तक जंग नहीं करना था जब तक कि उन्हें और मजबूत सेना नहीं मिल जाती।
अम्र बिन अल आस के तहत तीसरी सेना को गाजा के क्षेत्रों में कुज़ा, वाडी और हरित की जनजातियों और सीरिया की सीमाओं के पास दौमतुल जन्दल के खिलाफ कार्रवाई करनी थी।
शूरहबिल बिन हसना के तहत चौथे सेना को इकरामा के मदद करने और आगे के निर्देशों की प्रतीक्षा करने की थी।
खालिद बिन सईद के नेतृत्व में पांचवीं सेना को हमकातान क्षेत्र में सीरियाई सीमा पर काम करना था।
तुरिफा बिन हाजिज़ के तहत छठी सेना को मक्का और मदीना के पूर्व क्षेत्र में हवाज़िन और बानी सुलेमान की धर्मत्यागी जनजातियों के खिलाफ कार्रवाई करना था।
अ’अला बिन हद्रामी’ के तहत सातवीं सेना को बहरीन में जनजातियों के खिलाफ कार्रवाई करना था ।
अरफजा बिन हरसामा के तहत आठवीं सेना को निचले यमन के तटीय क्षेत्र में जनजातियों के खिलाफ कार्रवाई करना था।
हुजैफा बिन मिहसान के तहत नौवीं सेना को ओमान में धर्मत्यागियों के खिलाफ कार्रवाई करना था।
मुहाजिर बिन अबी उमय्या के तहत दसवीं सेना को ऊपरी यमन और हद्रामौत में काम करना था।
सुवेद बिन मुकरान के तहत ग्यारहवीं वाहिनी को यमन के उत्तर में तटीय क्षेत्रों में काम करनी थी।
क्यूंकि हमारी ये किताब हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) पर है तो हम बाकियों के ऊपर कम बात करेंगे। बस हम यह बता दे कि इन सभी सेना ने अपना काम पूरा किया।