हुसैद और कनाफ़िस की जंग
दौमतुल जंदल की जीत के बाद, हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) इराक के मोर्चे पर लौट आये। इस समय तक, फारसियों ने अधिक सेना बलों को इकठ्ठा कर लिया था और वे एक बार फिर युद्ध के रास्ते पर थे। रुज़बेह की कमान में फारसियों की एक सेना ऐन-उत-तम्र’ के उत्तर-पूर्व में हुसैद में थी। ज़रमाहर के तहत एक और फ़ारसी बल हुसैद के उत्तर-पश्चिम में कनाफ़िस में डेरा डाले हुए था।
हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) का मुख्यालय ‘ऐन-उत-तम्र’’ में था। वहां से उन्होंने क़’अका के तहत एक दस्ता हुसैद को और अबू लयला के तहत एक दस्ता कनाफ़िस की तरफ भेजा। हजरत खालिद (रज़ी अल्लाहू अनहू) के निर्देश थे कि हुसैद और कनाफ़िस में कारवाई एक साथ होनी चाहिए।
अबू लयला के कनाफिस तक पहुंचने से पहले क़’अका हुसैद पहुँच गये, और इस प्रकार एक साथ कार्रवाई की मूल योजना का पालन नहीं किया जा सका। हुसैद में लड़ाई क़’अका और रुज़बेह के बीच एक व्यक्तिगत द्वंद्व युद्ध के साथ शुरू हुई। द्वंद्वयुद्ध में, रुज़बेह मार दिया गया। तब कनाफीस के सेना के कमांडर ज़रमाहर, जो अपनी सेना लेकर हुसैद में आ गये थे, उसने चुनौती देने के लिए कदम बढ़ाया। और जरमाहर भी मारा गया। इसके बाद मुसलमानों ने हमला किया। कुछ प्रतिरोध के बाद, फारसियों की बड़ी संख्या मर गयी थी। और वो मैदान छोड़कर भाग गए। इसको हुसैद की जंग से जाना जाता है।
हुसैद से फारसी सेना के बचे लोग कनाफिस भाग गए। उनके नए कमांडर मभुजाब ने विवेक से कम लिया। उसने कनाफिस को छोड़ दिया और अपनी सेनाओं के साथ उत्तर में मुजैयाह चले गए जहां अधिक सैन्य बल उपलब्ध थे।
जब अबू लयला के तहत मुस्लिम सेनाएं कनाफिस पहुंचीं, तो उन्होंने पाया कि उनसे मिलने के लिए कोई फारसी सेना नहीं थी। तदनुसार मुसलमानों ने बिना किसी लड़ाई किए कनाफीस पर कब्जा कर लिया। इस जंग को कनाफीस की जंग कह्ते है।
यहां से मुस्लिम सेना मुजैयाह, सन्निय्ये, जुमैल और रुज़ेब में भागे हुए फारसी सेना और बाकी सेना से जंग लड़ी और जीत हासिल की।