जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 12

दो अति शुभचिंतकों का देहांत

इस्लाम जैसे-जैसे बढ़ रहा था वैसे-वैसे हालात और सख़्त होते जा रहे थे। ऐसे में नबूवत के दसवें साल हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चाचा “अबू तालिब” जो आपका मजबूत सहारा थे वो इस दुनिया को छोड़ कर चले गए। “अबू तालिब” ने युवा अवस्था से ही नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की परवरिश की थी। जब से हुजूर ने एक अल्लाह की शिक्षा देना शुरू की थी, वह उनके मददगार साबित हुए थे। “मक्का” में हुजूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दुश्मनों के सामने ढाल बनकर खड़े रहे। हर विपत्ति में अपने प्यारे भतीजे के लिए सुरक्षा चक्र बने रहे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को भी उनसे अथाह प्रेम था। इसीलिए “अबू तालिब” के प्राण त्यागने का बेहद सदमा था।

तीन दिन के अन्तराल पर ही हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पत्नी हज़रत “ख़दीजा तुल कुबरा” रज़िअल्लाह अन्हा का भी देहान्त हो गया। नबी बनने के पहले दिन से और अपनी जिंदगी के आख़िरी दिन तक ये हुजूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ रहीं। पूरी दुनिया ने चाहे कुछ भी कहा लेकिन आपने अपने पति का पूरा-पूरा साथ दिया। अपना सारा माल नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की खुशी पर कुर्बान कर दिया। हज़रत “ख़दीजा” रज़िअल्लाह अन्हा की सच्चाई और नेक नियत पर ही अल्लाह पाक ने सलाम भेजा था। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपने सच्चे साथी और एक मज़बूत सहारे के खो जाने का बेहद ग़म था।

प्यारे नबी मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए यह बहुत बड़ा नुकसान था और ये क्षति इतनी बड़ी थी कि इतिहासकारों ने इसे ग़म का साल कहा। अब “कुरैश” ने नबी अककम मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ज़्यादा सताना शुरु कर दिया एक बार एक बदतमीज़ व्यक्ति ने नबी अकरम मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के सिर पर कीचड़ फेंक दी। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसी स्थिति में घर में प्रवेश किया। नबी अकरम मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बेटियाँ उठी़ं। वो सिर धुलाती जाती थी और रोती जाती थी। हुजूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया- प्यारी बेटी तुम क्यों रोती हो तुम्हारे बाप की हिफ़ाज़त खुद अल्लाह रब्बुल इज़ज़त फ़रमाता है।

भले ही अब “अबू तालिब” का सहारा न था, न ही एक मज़बूत साथी “ख़दीजा” रज़िअस्लाह अन्हा की हमदर्दी साथ थी फिर भी मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पहले से भी ज्यादा उत्साह से अल्लाह का काम जारी रखा।

ताईफ़ शहर में अल्लाह का संदेश

अपने लक्ष्य के लिए योजना बनाते हुए अगला सफ़र “ताईफ़” शहर के लिए सुनिश्चित किया गया। हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) “मक्का” से निकले और इस्लाम की दावत लेकर “ताईफ़” शहर पहुँचे। नबी मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ इस सफ़र में “जैद बिन हारिसा” रज़िअल्लाह अन्हु भी थे। “मक्के” से “ताईफ़” तक जितने भी क़बीले बीच में पड़े, हुजूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सबको इस्लाम के बारे में बताया। यूँ ही पैदल-पैदल दोनों ने “ताईफ़” तक का सफ़र तय किया। “ताईफ़” में “बनु सक़ीफ़” के लोग आबाद थे।

“ताईफ़” एक बेहद खूबसूरत हरा-भरा शहर था। ठंडे पहाड़ों में रहने के कारण यहाँ के लोगों में अभिमान कूट-कूट कर भरा हुआ था। “अब्द यालाईल”, “मसूद” और “हबीब” ये तीनों भाई इस इलाक़े के सरदार थे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सबसे पहले इन्हीं तीनों से मुलाक़ात की और इस्लाम की दावत दी। इनमें से एक बोला- “मैं काबे के सामने दाढ़ी मुंडवा दूँगा अगर तुझे अल्लाह ने रसूल बनाया हो।” दूसरा बोला- “क्या अल्लाह को तेरे सिवा और कोई न मिला रसूल बनाने के लिए जिसके पास चढ़ने के लिए कोई सवारी भी नहीं। अगर अल्लाह को रसूल ही बनाना था तो किसी हाकिम या सरदार को बनाया होता”। तीसरा बोला- “मैं तुझसे बात ही नहीं करना चाहता क्योंकि अगर तू अल्लाह का रसूल है जैसा कि तू कहता है तब तो यह बात बहुत ख़तरनाक है कि मैं तेरे कलाम को रद्द करुँ और अगर तू अल्लाह पर झूठ बोलता है तो ये मेरी शान के ख़िलाफ़ है।”

नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया- “अब मैं तुमसे सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि अपने विचार अपने ही पास रखो। ऐसा ना हो कि तुम्हारे ये गंदे विचार अन्य लोगों के ठोकर खाने का कारण बनें”।

इन तीनों से भेंट करने के बाद नबी पाक (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आम लोगों में इस्लाम की शिक्षा लेकर चले गए। इन सरदारों ने अपने ग़ुलामों और शहर के बिगड़े हुए लड़कों को हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पीछे लगा दिया। नबी ने इस्लाम की बात की तो उन्होंने हुजूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर पत्थर फेंकने शुरू कर दिए। वो पत्थर नहीं फेंकते थे, बल्कि पत्थरों की बारिश सी कर देते थे । उन अभद्र लड़कों ने हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर इतने पत्थर बरसाये कि आप अपने ही खून में तरबतर हो गए। रक्त बह-बह कर आपके जूतों में जमने लगा और जब नमाज़ पढ़ने के लिये वजू करने लगे तो पाँव से जूता निकालना भी मुश्किल हो गया।

अभद्र और अशिष्ट लड़कों ने एक बार आपके पीछे इतना शोर मचाया। इतनी गंदी-गंदी गालियाँ दी। ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजानी शुरु कर दी। आवाज इतनी तेज़ थी कि कानों के पर्दे फटने का आभास होने लगा। तब हुजूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने साथी “ज़ैद” रज़िअल्लाह अन्हु के साथ एक मकान के पीछे ओट करना उचित समझा। यह जगह “उतबा” और “शेबा” की थी। उन्होंने दूर से इस दृश्य को देखा तो नबी अकरम मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर दया आ गयी। अपने गुलाम “अद्दास” को कहा की एक प्लेट में अंगूर रखकर उस आदमी को दे आओ। गुलाम ने अंगूर नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के सामने लाकर रखें तो नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अंगूरों की तरफ़ हाथ बढ़ाया और जबान से फरमाया “बिस्मिल्लाह”। फिर अंगूर खाने शुरू कर दिये। “अद्दास” ने हैरत से नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरफ़ देखा और फिर कहा- “यह कलाम ऐसा है कि यहाँ के लोग नहीं बोला करते”। 

नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया- “तुम कहाँ के हो और तुम्हारा मज़हब क्या है?” अद्दास ने कहा मैं इसाई हूँ और “नैनवा” का रहने वाला हूँ।” नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया -” तो मेरे भाई “यूनुस” अलैहिस्सलाम के शहर के लोग हैं।” “अद्दास” ने कहा आपको क्या ख़बर है कि “यूनुस” अलैहिस्सलाम कौन थे और कैसे थे?” नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया- “वो मेरे भाई हैं वो भी नबी थे और मैं भी नबी हूँ।” अद्दास ने यह बात सुनी और नबी मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने झुक गया और आपका हाथ, सर, कदम चूम लिए। अदने से ग़ुलाम को ऐसा करते देखा तो आपस में कहने लगे, लो ग़ुलाम तो हाथ से गया। जब उद्दास अपने आक़ा के पास लौट कर गया तो उन्होंने कहा- कमबख़्त तुझे क्या हो गया था कि उस शख्स के हाथ-पांव-सर चूमने लग गया था ” उद्दास ने कहा- “हुज़ूरे आली आज उस शख्स से बेहतर इस पूरी धरती पर कोई नहीं। उन्होंने मुझे ऐसी बात बताई जो सिर्फ़ एक नबी ही बता सकता है। उन्होंने अद्दस को डांट दिया कि ख़बरदार कहीं अपना दीन न छोड़ बैठना। तेरा दीन तो उसके दीन से उत्तम है।

इसी स्थान पर एक बार दीन की दावत देते हुए अल्लाह के रसूल मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इतनी चोटें लगी कि हुज़ूर बेहोश होकर गिर पड़े। “जै़द” रज़िअल्लाह अन्हु ने आपको अपनी पीठ पर उठाया और आबादी से दूर ले गए। पानी के छींटे देने से होश आया। इस सफ़र में इतनी तकलीफ़ें और मुसीबतें आई, लेकिन एक शख्स भी मुस्लमान न हो पाया। हुज़ूर की हालत देखकर जिब्राईल अलैहिस्सलाम आपके पास आए और फ़रमाया कि मेरे साथ अल्लाह ने एक फ़रिश्ता भेजा है। अगर आप उसे कह दें तो वह “ताईफ़” शहर को पहाड़ों के बीच कुचल देगा। प्यारे नबी अककम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और अपने रब से दुआ मांगी।

“इलाही! अपनी कमज़ोरी बे सरोसामानी और लोगों द्वारा की गयी तौहीन के विषय में तेरे सामने फ़रियाद करता हूँ। तू सब रहम करने वालों से ज्यादा रहम करने वाला है। कमज़ोरों और विनम्र लोगों का मालिक तू ही है। मुझे किस के हवाले किया जाता है? अनजान लोगों के या उस दुश्मन के जो हर काम पर नियंत्रण रखता है। लेकिन जब तू मुझसे ग़ुस्सा नहीं है तो मुझे इसकी कुछ चिंता नहीं क्योंकि तेरी सुरक्षा मेरे लिए प्रयाप्त है मैं तेरी ज़ात के नूर की चाहता हूँ जिससे सब अंधकार प्रकाशमान हो जाते हैं और दीनों दुनिया के काम इससे ठीक हो जाते हैं कि तेरा प्रकोप मुझ पर उतरे या तेरी नाराज़गी? मुझे तेरी स्वीकृति की आवश्यकता है। पाप और पुण्य करने से बचने की शक्ति मुझे तेरी ही ओर से मिलती है।”

नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने “ताईफ़” से वापस आते हुए अल्लाह से यह भी कहा कि मैं लोगों की तबाही के लिए क्यों करुँगा। अगर यह लोग अल्लाह पर ईमान नहीं लाते तो क्या हुआ ।उम्मीद है कि इनकी आने वाली नस्ले ज़रूर एक अल्लाह पर ईमान लाने वाली बनेगी।

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