जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 34

सफ़ीआ रज़िअल्लाह अन्हा का साहसी क़दम

मुस्मिल औरतों को जिस क़िले में रखा गया था वो बनू कुरैज़ा की आबादी वाले इलाक़े से मिला हुआ था। यहूदियों ने देखा कि सारी जमात रसूल अकरम सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के साथ है तो उन्होंने क़िले पर हमला किया। एक यहूदी छुपते-छुपाते क़िले के दरवाज़े तक पहुँचने में कामयाब हो गया, और क़िले पर हमला करने का सोच रहा था। क़िले की हिफ़ाज़त का ज़िम्मा रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खास शायर हज़रत ‘हस्सान बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु को सौंपा गया था। हज़रत ‘सफीआ’ रज़िअल्लाह अन्हा आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की फूफी हुआ करती थी। उन्होंने यहूदी को क़िले के दरवाज़े पर देख लिया। तो उन्होंने ‘हस्सान बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु से कहा कि वो क़िले से उतर कर उसका क़त्ल कर दें वरना वो दुश्मनों को ख़बर कर देगा कि यहाँ सिर्फ औरतें ही औरतें हैं और वो हमें बेइज़ज़त करने की कोशिश करेंगे।

मगर ‘हस्सान बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु को ज़माना हो गया था वो लड़ाई की तरफ़ नज़र उठा कर भी नहीं देखा करते थे। इसलिये उन्होंने बड़ी साफ़गोई से जवाब दिया- “अगर मैं इस क़ाबिल होता तो फिर यहाँ क्यों होता।” ये सुनकर ‘सफीआ’ रजिअल्लाह अन्हा ने एक ख़ेमें की चोब उखाड़ ली और दबे क़दमों से उस यहूदी के पीछे जा पहुंची और इतनी ज़ोर से उस यहूदी के सर पर वार किया कि वो वहीं ढ़ेर हो गया। ‘सफ़ीआ’ रज़िअल्लाह अन्हा ये काम अंजाम देकर ‘हस्सान बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास आयीं और बोलीं “जाओ उस यहूदी के हत्थियार और दिगर सामान ले आओ।’ ‘हस्सान बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- “मैं उस सामान का क्या करुँगा? मुझे उसकी क़तई ज़रुरत नहीं है।”

सफिया रज़िअल्लाह अन्हा ने कहा “अच्छा तो उसका सर काट कर ले आओ और क़िले के नीचे फेंक दो ताकि यहूदियों में ख़ौफ़ फैल जाये और वो यहाँ आने की हिम्मत न कर सकें।

मगर ‘हस्सान बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु ने इस काम को भी अंजाम देने में माफी तलब कर लीं। तब ‘सूफ़ीआ’ रज़िअल्लाह अन्हा ने उस यहूदी का सर भी खुद उतारा और उसे क़िले के नीचे बनू कुरैज़ा के क़बीले की तरफ़ उछाल दिया।

इससे यहूदियों ने ये गुमान किया कि क़िले में औरतों के अलावा फ़ौजें भी हैं इसलिये वो और हिम्मत न दिखा सके।

जीत की ख़बर और घेराबंदी की समाप्ती

घेराव जिस क़दर लंबा होता जाता था। घेराव करने वालों की हिम्मत उतनी ही जवाब देती जाती थी। दस हज़ार आदिमयों के खाने पीने का इंतज़ाम करना और वो इतनी मुद्दत के लिये मुमकिन नहीं था । साथ ही उसपर सितम ये कि ये घेराव सर्दी के मौसम में था। यहाँ अल्लाह की मदद पहुँची सर्द हवा ने आँधी की शक्ल इख़्तियार कर ली। आँधी भी इस बला की तेज़ थी कि ख़ेमे हवा के झोंको पर उड़ने लगे। चूल्हों पर जो बडी-बडी देग़ों में खाना बन रहा था उलट गयीं। दुश्मन के हौंसले पस्त हो गये। इसे क़रआन मजीद मे अल्लाह की फौज से तश्बीह दी गयी है।

तर्जुमा:- मुस्लमानों अल्लाह के उस एहसान को याद करो कि जब तुम पर फौजें आ पड़ीं तो हमने उनपर आँधी भेजी। और वो फौजें भेजी जो तुमको दिखाई नहीं देती थीं।

‘नईम बिन मसूद रज़िअल्लाह अन्हु सक़्फी एक ग़तफानी रईस थे। कुरैश और यहूद दोनों उनका आदर सत्कार किया करते थे। वो ईमान वाले थे, लेकिन अभी उनका इस्लाम कुफ़्फ़ार की नज़रों से ओझल था। वो कुरैश और यहूद से अलग-अलग जाकर मिले और कुछ इस अंदाज़ में बातें की कि दोनों गिरोह में फूट पड़ गयी। दोनों गिरोह जंग के मैदान से वापस चले आये। मदीने का उफ़्क आधे महीने बाद साफ़ हो गया।

तर्जुमा:- और अल्लाह ने काफिरों को गुस्से में भरा हुआ वापस फेर दिया। और उनको कुछ हाथ न आया। और मुस्लमानों को लड़ने की नौबत न आई।

ज़ातुल रक़ा के युद्ध का एक क़िस्सा

खंदक की जंग के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ग़तफ़ान के क़बाईल के मुक़ाबले के लिये चार सौ सहाबा के साथ नजद का रुख किया। इस जंग में जाने वाले सहाबा के पांव बेइंतहा ज़ख़्मी थे जिसकी बिना पर इस ग़ज़वे का नाम ग़ज़वा-ए- ज़ातुल रक़ा पड़ा। इस ग़ज़वें में दो सहाबी का जिक्र काबिल ए तारीफ है। इनमें एक सहाबी ‘अब्बाद बिन बशर’ रज़िअल्लाह अन्हु और दूसरे ‘अम्मार बिन यासिर’ रज़िअल्लाह अन्हु हैं। ये दोनों एक जगह पहरे पर तैनात थे। ‘अब्बाद’ रज़िअल्लाह अन्हु नमाज़ के लिये खड़े हो गये जबकि ‘यासर’ रजिअल्लाह अन्हु सो रहे थे। तभी ‘अब्बाद’ रज़िअल्लाह अन्हु को एक तीर आकर लगा जिसे उन्होंने खींच कर निकाल दिया फिर दूसरा और तीसरा तीर लगा। नमाज़ पूरी करके आपने ‘यासर’ रज़िअल्लाह अन्हु को जगाया तो वो बोले “वल्लाह ! आपने पहले ही मुझे क्यों नहीं जगा दिया।” इस पर ‘अब्बाद’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा मैं जो सूरत नमाज़ में पढ़ कहा था उसे बीच में ख़त्म नहीं करना चाहता था।

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