जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 17

मदीने में स्वागत

प्यारे नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आने की ख़बर पहले ही मदीना पहुँच चुकी थी। शहर के सभी लोग हुज़ूर के स्वागत के लिए बेसब्री से इंतज़ार कर रहे थे। लोग हर सुबह घरों से निकल कर शहर के बाहर आ जाते दोपहर तक इंतज़ार करते और हताश होकर वापस चले जाते। ऐसे ही एक रोज़ लोग इंतज़ार करके वापस जा चुके थे कि एक यहूदी ने अपने क़िले से एक क़ाफ़िले को आते देखा। क़ाफिले के हाव-भाव जांच कर आवाज़ लगायी ‘ ऐ अरब के लोगों! तुम जिसका इंतज़ार कर रहे थे वो आ गया।’ लोगों में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। ख़ुशी के मारे ‘अल्लाहु अकबर’ के नारे से सारा शहर गूँज उठा। लोग सज-धज के अपने घरों से दौड़े चले आये।अक्सर लोग ऐसे थे जिन्होंने अल्लाह के महबूब को अपनी आँख से अभी तक नहीं देखा था। इसी वजह से जब हुज़ूर के क़ाफ़िले को आते हुए देखा तो लोग हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु और नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पहचान नहीं कर पा रहे थे। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्साह अन्हु इस बात को भांप गए तो खुद हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ऊपर साया करके खड़े हो गए। जिससे आक़ा और गुलाम के बीच का अंतर मालूम हो सके।

मदीना शहर से तीन मील पहले जो ऊपर की ओर आबादी थी उस जगह को ‘आलिआ’ और ‘क़ुबा’ के नाम से जाना जाता था। यहाँ अंसार के बहुत से ख़ानदान रहा करते थे। इनमें सबसे ज़्यादा बड़े इज़्ज़तदार ‘अम्र बिन ऑफ़’ रज़िअल्लाह अन्हु और ‘कुलसूम बिन अलहदम’ रज़िअल्लाह अनहा का घराना था। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इनके यहाँ पहुँचे तो सभी लोगों ने ऊँची आवाज़ के साथ ‘अल्लाहु अकबर’ का नारा लगाया। ये इन दोनों घरानों की क़िस्मत थी कि दोनों जहाँ के बादशाह ने इनकी मेहमानदारी क़ुबूल की। अंसार के समूह आते और हुज़ूर को अदब के साथ सलाम पेश करते।

‘क़ुबा’ की मस्जिद का निर्माण

जहाँ आप ठहरे वहाँ सबसे पहला काम मस्जिद का बनाना था। ‘कुलसूम’ रज़िअल्लाह अन्हा के पास ज़मीन का एक टुकड़ा था जो खाली पड़ा रहता था। यहाँ खजूरें सुखाई जाती थीं। यही वो जगह तय की गयी जहाँ हुज़ूर के मुबारक हाथों से मस्जिद की नींव रखी गई।

मस्जिद के निर्माण में मज़दूरों के साथ हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) खुद भी काम करवा रहे थे। भारी-भारी पत्थरों को उठाने से मुबारक जिस्म थक जाता। हुज़ूर से मोहब्बत करने वाले अर्ज़ करते ‘आप रहने दीजिये हम कर लेते हैं। हुज़ूर उनकी दरख्वास्त क़ुबूल करके पत्थर उन्हें सौंप देते और उसी वज़न का दूसरा पत्थर उठाने में लग जाते। सहाबा में हज़रत ‘अब्दुल्लाह बिन रवाहा’ रज़िअल्लाह अन्हु शायर थे। वो भी मज़दूरों के साथ मस्जिद के काम में लगे हुए थे। जैसे ही मज़दूर थक कर बैठते तो ये थकान मिटाने के लिए कुछ शेर गाने लगते। ‘अब्दुल्लाह बिन रवाहा’ रज़िअल्लाह अन्हु भी ये शेर पढ़ते जाते –

  • वो कामयाब है जो मस्जिद दुरस्त करता है
  • और उठते बैठते क़ुरआन पढ़ता है
  • और रात जाग कर गुज़रता है

हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी ‘अब्दुल्लाह बिन रवाहा’ रज़िअल्लाह अन्हु के साथ आवाज़ मिलाते और ये शेर दोहराते।

मदीने में पहला जुमा

12 रबी उल अव्वल सन 1 हिजरी को जुमे का दिन था। जब जुमे की नमाज़ का वक़्त होने को था तो हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ‘क़ुबा’ में सवारी पर सवार हो कर ‘बनी सालिम’ ख़ानदान के घरों तक पहुँचे। यहाँ सौ आदमियों के साथ जुमे की नमाज़ पढ़ी। यह इस्लाम में पहली जुमे की नमाज़ थी। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने ख़ुत्बे (सम्बोधन) में फ़रमाया – 

‘सभी ‘हम्द’ व तारीफ़ अल्लाह के लिये लिए ही हैं। मैं उसी की हम्द करता हूँ। उसी से मदद, बख्शिश और हिदायत चाहता हूँ। मेरा ईमान उसी पर है। मैं उसकी नाफ़रमानी नहीं करता और नाफ़रमानी करने वालों से नफ़रत करता हूँ। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा इबादत के लायक कोई भी नहीं। वह अकेला है उसका कोई साथी नहीं। ‘मुहम्मद’ उसका बंदा और रसूल है। उसी ने ‘मुहम्मद’ को हिदायत, नूर और नसीहत के साथ ऐसे ज़माने में भेजा जबकि बरसों से कोई नबी या रसूल दुनिया में नहीं आया। ज्ञान घट गया था और अज्ञानता बढ़ गई थी। ‘मुहम्मद’ को आखिरी ज़माने में क़यामत के नज़दीक भेजा गया है। जो कोई अल्लाह और रसूल की आज्ञा का पालन करेगा, वही सीधी राह पाने वाला है और जिसने उनका हुक्म न माना वो भटक गया। मुस्लमानों! मैं तुम्हें अल्लाह से डरने की वसीयत करता हूँ। बेहतरीन वसीयत जो एक मुस्लमान दूसरे मुस्लमान को कर सकता है ये है कि उसे आख़िरत के लिए आगाह करे और अल्लाह से तक़वे के लिए कहे। लोगों! जिन बातों से अल्लाह ने तुम्हें बचने को कहा है उससे बचते रहो। इससे बढ़कर न तो कोई नसीहत है और न इससे बढ़कर कोई ज़िक्र है। याद रखो! जिंदगी के बाद उस शख्स के लिए, जो अल्लाह से डरकर काम कर रहा है, तक़वा बेहतरीन मददगार साबित होगा। और जब कोई शख्स अपने और अल्लाह के दरमियान का मामला अंदरूनी और बाहरी तौर पर ठीक कर लेगा और ऐसा करने में उसकी नियत शुद्ध होगी तो ऐसा दुनिया में ज़िक्र और मौत के बाद (जब अच्छे कर्म की अहमियत और ज़रूरत मालूम होगी) दौलत बन जाएगा। लेकिन अगर कोई ऐसा नहीं करता तो वो इंसान मौत के बाद पसंद करेगा कि उसके कर्म उससे दूर ही रखें जाएं। अल्लाह तुमको अपने आप से डरने का हुक्म करता है और अल्लाह तो अपने बंदों पर निहायत मेहरबान है। जिस शख्स ने अल्लाह के हुक्म को सच जाना और उसके वादों को पूरा किया तो उसके लिए अल्लाह ने कहा है ‘हमारे यहाँ बात नहीं बदली जाती और हम अपने नाचीज़ बन्दों पर जुल्म नहीं करते।’ मुसलमानों! अपने मौजूदा और आने वाले ज़ाहिर और खुफिया कामों में अल्लाह से डरते रहो क्योंकि तक़वे वालों की बुराइयाँ छोड़ दी जाती है और पुण्य बढ़ा दिया जाता है। तक़वे वाले वो हैं जो बहुत बड़ी मुराद को पहुँच जाएंगे। ये तक़वा वही है जो अल्लाह की नाराज़गी, ग़ुस्से और अज़ाब को दूर करता है। ये तक़वा वही है जो चेहरे पर सुकून, परवरदिगार की खुशी और इज़्ज़त को बढ़ाता है। मुसलमानों आराम हासिल करो मगर अल्लाह के हक़ को न भुलाओ। अल्लाह ने इसीलिए तुमको अपनी किताब सिखाई और अपना रास्ता दिखाया है ताकि आदर करने वालों और निरादर करने वालों को अलग-अलग कर दिया जाए। लोगों अल्लाह ने तुम्हारे साथ अच्छा बर्ताव किया है। तुम भी लोगों के साथ ऐसा ही बर्ताव करो। और जो अल्लाह के दुश्मन हैं उन्हें दुश्मन समझो और अल्लाह के रास्ते में पूरी हिम्मत और तवज्जो से कोशिश करो। उसने तुमको चुन लिया है और तुम्हारा नाम मुस्लमान रखा है। ताकि असफल होने वाला भी हक़ का पैग़ाम सुनने के बाद सफल हो और जिंदगी पाने वाला भी हक़ का पैग़ाम सुनकर जिंदगी पाए। और सब अल्लाह की मदद से ही संभव हैं। लोगों अल्लाह का ज़िक्र करो और इस ज़िंदगी के बाद के लिए कर्म करो क्योंकि जो शख्स अपने और अल्लाह के बीच मामला दुरुस्त कर लेता है। अल्लाह ताला उसके और लोगों के दरमियान मामला दुरुस्त कर देते हैं। हाँ! अल्लाह बंदों पर हुक्म चलाता है और उस पर किसी का हुक्म नहीं चलता। अल्लाह बन्दों का मालिक है और बन्दों को इस पर कुछ अधिकार नहीं। अल्लाह सबसे बड़ा है और हमको नेकी करने की ताक़त उसी महान पालनहार से मिलती है।’

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