जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 36

हुदैबिया अनुबंध

हिजरत का छटा साल था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने सहाबा साथियों को अपने ख़वाब से आगाह किया। आपने बताया कि ‘मैंने ख़्वाब देखा है कि मैं और मुस्लमान मक्का पहुँच गये हैं और बेतुल्लाह (काबे) का तवाफ़ (परिक्रमा) कर रहे हैं। इस ख़वाब का सुनना था कि मुस्लमानों के दिल जोश से बेताब होने लगे और सब ने मिलकर इसी साल हज करने के लिये प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को राज़ी कर लिया।

इस सफ़र में चौदह सौ सहाबियों ने हिस्सा लिया। जुल हलीफ़ा नाम के स्थान पर पहुँच कर कुरबानी का प्रबंध किया गया। यानि कुरबानी के ऊँट साथ लाये गये थे। इस सबके बावजूद भी आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने क़बिला ख़ज़ाआ के एक आदमी जिसने अभी अपने इस्लाम क़ुबूल करने का ऐलान कुरैश के सामने नहीं किया था, को भेज कर क़ुरैश का हाल मालूम करना चाहा वो क्या सोचते हैं? जब ये क़ाफ़िला ‘उसफ़ान’ के क़रीब पहुँचा तो उसने आकर ख़बर दी कुरैश ने तमाम कबिले को जमा करके कह दिया है कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कभी मक्का नहीं आ सकते।

‘कुरैश’ बडे ज़ोर-शोर से हमले की तैयारी में व्यस्त थे। बलूदह के पास फौजें उतरने लगी। ‘खालिद बिन वलीद’ दौ सौ सवारों के साथ जिनमें ‘अबू जहल’ का बेटा इकरिमा’ भी शामिल था ग़मीम तक आ गये। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ग़मीम की ओर का रास्ता तर्क कर दिया और ‘हुदैव़बिया’ तक पहुँच गये। यहाँ पानी की बड़ी परेशानी थी। एक कुआँ था जो पहली ही मर्तबा में खाली हो गया। मगर अल्लाह तआला ने नबी की बरकत से उसे फिर भर दिया। क़बिला ‘ख़ज़ाआ’ ने अभी तक इस्लाम कुबूल नहीं किया था मगर वो इस्लाम के पासदार थे। जब भी कुरैश और कुफ़्फ़ार इस्लाम के खिलाफ़ साज़िशे करते तो कबीला ‘ख़ज़ाआ’ उसे नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ख़बर कर देते। इसी क़बीले के एक शख़्स जिनका नाम ‘बुदेल बिन वरक़आ’ था जब उन्हें इस बात का ईल्म हुआ कि हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तशरीफ लाये हैं तो कुछ आदमियों के साथ हुज़ूर की बारगाह में हाज़िर हुए। बड़े अदब से पेश आते हुए बोले- “कुरैश फौजों का एक सैलाब लेकर आ रहे हैं वो आपको काबे का तवाफ़ न करने देंगे।”

हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया “’क़ुरैश’ से जाकर कह दो कि हम उमरे की ग़र्ज़ से आ रहे हैं। लड़ना मक़सद नहीं है। जंग से ‘क़ुरैश’ की बुरी हालत है। और उनको बड़ा नुकसान उठाना पड़ा है। उनके लिये ये ज़्यादा मुनासिब है कि कुछ वक़्त के लिये सुलह का मुहाईदा कर लें और मुझे अरब के हाथों में छोड़ दें। इस पर भी वो अगर राज़ी नहीं तो फिर कह देना कि अल्लाह की क़सम जिसके हाथों में मेरी जान है तब तक लडूगाँ जब तक मेरा सिर मेरे तन से जुदा नहीं हो जाता।”

‘बुदेल’ ने आपका पैग़ाम ले जाकर क़ुरैश को सुना दिया। कुछ शर् पसंद लोगों ने कहा हमें मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की किसी बात को सुनना गवारा नहीं है। मगर संजीदा लोगों ने कहा हमें ये मंज़ूर है। इस पर ‘उर्रोह बिन मसूद’ ने कहा मैं खुद जाकर उनसे बात तय करुँगा। इस पर कुरैश के लोग राज़ी हो गये और ‘उर्रो बिन मसूद’ को वहाँ जाने की इजाज़त दे दी।

वहां से ‘उर्रो बिन मसू’ हुज़ूर(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में आये और अर्ज़ किया- ‘फ़र्ज़ करो तुमने कुरैश का इस्तेमाल किया तो क्या इसकी कोई और भी मिसाल है कि किसी ने अपनी क़ौम को बरबाद किया। और अगर लड़ाई का ईरादा किया तो तुम्हारे साथ जो ये लोग हैं धूल की तरह हवा में उड़ जायेंगे।’ इस बात पर ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु आग बबूला हो गये और ग़ुस्से के आलम में कहने लगे- “क्या हम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को छोड़ कर चले जायें।” ‘उर्रो’ हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से बोला “ये कौन शख़्स है?”

आपने कहा- “ये अबू बक्र रजिअल्लाह अन्हु हैं।”

उर्रो ने कहा- “मैं तुम्हारी सख़्त कलामी का जवाब ज़रुर देता। लेकिन तुम्हारा एक एहसान मुझपर बाक़ी है। जिसका बदला मैं अभी तक अदा नहीं कर सका।”

अरब की तहज़ीब में ये बात शामिल थी कि जब दो लोग बेतकल्लुफ़ होकर बात करते तो एक दूसरे की दाढ़ी को हाथ लगाते थे। यही अमल ‘उर्रो’ का भी प्यारे नबी के साथ रहा जिसपर ‘मुग़ीरा बिन शैबा’ रज़िअल्लाह अन्हु को ग़ुस्सा आ गया। वो इस वक़्त हथियार पहने हुए थे। उसकी इस हिमाक़त को बर्दाश्त न कर सके। ‘उर्रो’ से बोले- “अपना हाथ क़ाबू में रखें वरना ये कंधे से जुदा हो जायेगा।”

‘उर्रो’ ने ‘मुग़ीरा’ रज़िअल्लाह अन्हु को देखा तो पहचान गया और बोला “ओ दग़ाबाज़। क्या मैं तेरी दग़ाबाज़ी के मामले में तेरा काम नहीं कर रहा हूँ।” इससे पहले ‘मुग़ीरा’ रज़िअल्लाह ने कुछ लोगों को क़त्ल कर दिया था जिसका खून बहा ‘उर्रो’ ने अपने पास से अदा किया था।

‘उर्रो’ ने रसूलअल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ सहाबा किराम का ये हैरत अंगेज़ अक़ीदत देखा तो उसे बडा तआज्जुब हुआ। वापस आकर क़ुरैश से कहा “अल्लाह की क़सम! मैंने ‘कैसर किसरा’ के दरबार देखें हैं। अपने मालिक से ये अक़ीदत जो रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से उनके सहाबियों को है ऐसी नहीं देखी। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब बात करते हैं तो हर कोई अपनी नज़रें नीची रखता है। कोई आँख उठा कर भी नहीं देखता।”

इसके बाद ‘क़ुरैश’ ने कई नीच हरकतें कीं और आखिर में एक दस्ते को रवाना किया कि वो मुस्लमानों पर हमला करे। मगर बद क़िस्मती से उस दस्ते को गिरफ़्तार कर लिया गया। क्योंकि ये हरकत काबिल ऐ कबूल नहीं थी मगर फिर भी हज़रत(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने रहम दिली का प्रदर्शन करते हुए तमाम कैदियों को आज़ाद कर दिया।

क़ुरआन मजीद की इस आयत में अल्लाह ताआला ने इसी तरफ़ ईशारा किया है – 

‘वो वही अल्लाह है जिसने मक्का में उन लोगों का हाथ तुमसे और तुम्हारा हाथ उनसे रोक दिया। बाद इसके कि तुम लोंगो को उनपर क़ाबू दे दिया था।’

जब गुफ़्तगू का सिलसिला ख़त्म हुआ और सुलह करने पर दोनों गिरोह राज़ी हो गये तो सुलह की शर्तें क़ुरैश ने तैयार किये जो इस तरह थे-

1. मुसलमान इस बार हज किये बिना वापस चले जायेंगे।
2. अगले साल जब आयें तो सिर्फ तीन दिन की इजाज़त होगी ।
3. मुसलमान केवल तलवार के कोई दूसरा हथियार साथ नहीं लायेंगे और तलवार भी म्यान में होगी, और नियाम को कपड़े के थैले में रखेंगे।
4. जो मुसलमान मक्का में पहले से रह रहे हैं उन्हें साथ नहीं ले जा सकते। हाँ, हज में आने वाले मुस्लमानों में से कोई मक्का में रुकना चाहे तो उसे वापस नहीं ले जा सकते।
5. काफ़िर या मुस्लमानों में से कोई शख्स अगर मदीना चला जाये तो उसे वापस कर दिया जाये इसके उलट अगर कोई मुसलमान मक्का में आ जाये तो उसे वापस नहीं किया जायेगा।
6. अरब के क़बिलों को ये इजाज़त होगी वो जिसके साथ चाहें समझौते में शामिल हो जायें।

ये शर्तें तय पाई गयीं तो हज़रत(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ‘अली’ रज़िएल्लाह अन्हु को बुला कर शर्तें लिखित रूप में करने के लिये कहा।

लेखन के शुरू में हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा लिखो ‘अली’ ,

‘बिस्मिल्लाह अर रहमान निर्रहीम’

 (शुरू अल्लाह के नाम से जो बड़ा दयावान व रहम करने वाला है)

अरब का प्राचीन तरीक़ा था कि वो तहरीर के शुरु में ‘बइसमिक अल्लाह’ (शुरू अल्लाह के नाम से) लिखा करते थे। इसलिये ‘सुहैल बिन अम्र’ ने कहा, नहीं बा इस्मिक अल्लाह लिखें यही रिवायत रही है अरब की। आपने हज़रत ‘अली ‘रज़िअल्लाह अन्हु को वैसा ही करने का हुक्म दिया जैसा ‘सुहैल बिन अम्र’ ने कहा। जब समझौता लिख लिया गया तो हज़रत(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने आख़िर में अपना नाम इस तरह दर्ज करने को कहा, ‘पैग़म्बर मुहम्मद मुस्तफा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)’ लिखवाया। 

जिस पर ‘सुहैल’ ने फिर ऐतराज़ करते हुए कहा ‘अगर हम आपको पैगंम्बर मान लेते तो इस समझौते की ज़रुरत ही क्या रह जाती। हम आपको आपके नाम से जानते हैं। आप अपने नाम के साथ अपने वालिद का नाम लिखें बस।

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु से अपना नाम मिटाने को कहा। इस पर हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु जो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से बेपनाह मुहब्बत करते थे और आपके हर हुक्म की पासदारी करते थे , मगर नबी के नाम को मिटाये जाने पर आप बिचल गये और तड़प कर बोले- “ये मुझसे न होगा।” हजरत(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा “अच्छा बताओ मेरा नाम कहाँ लिखा है?’ हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने आपके नाम पर अपनी ऊँगली रख दी। तब आपने अपना नाम खुद मिटाया।

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