जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 28

जंग का बिगुल बज गया

क़ुरैश की फ़ौज से ‘अबू आमिर’ एक सौ पचास आदमियों के साथ आगे बढ़ा और मैदान में आया। वो अपनी अच्छाई और सच्चाई के लिए बड़ा मशहूर था। इसलिए उसको उम्मीद थी कि उसे देखने के बाद मदीने वाले ‘मुहम्मद’ मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का साथ छोड़ देंगे। ‘अबू आमिर’ ने बीच मैदान में आकर आवाज़ लगाई- ‘मुझको पहचानते हो? मैं अबू आमिर।’ अंसार की तरफ़ से जवाब आया- ‘ओ बदकार! हम तुझको पहचानते हैं। अल्लाह तेरी आरज़ू को तबाह कर दे।’

क़ुरैश का झंडा पकडे ‘तल्हा’ आगे बढ़ा और पुकारा ‘क्या मुस्लमानों में कोई है? जो मुझ को जल्दी नर्क पहुँचा दे या खुद मेरे हाथों से जन्नत पा ले।” हज़रत अली उल मुर्तज़ा क़तार में से निकले और कहा “मैं हूँ।” यह कहकर तलवार मारी और एक ही वार में ‘तल्हा’ को मार गिराया। ‘तल्हा’ के बाद उसका बेटा ‘उस्मान’ आगे बढ़ा। इसके हाथ में क़ुरैश का झंडा था और इसके पीछे औरतें ये शेर पढ़ती हुई आ रही थी –

  • ‘भाला चलाने वाले का फ़र्ज़ है कि वो
  • भाला खून में रंग दे या टकरा कर टूट जाये’

‘उस्मान’ का मुक़ाबला हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु से हुआ। हज़रत ‘हमजा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने तलवार जो मारी काँधे पर वो कमर तक काटते हुए पार हो गयी। हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ज़ोरदार आवाज़ से कहा- ‘मैं साक़ी ऐ हुज्जाज का बेटा हूँ।’ इस हमले के बाद आम जंग शुरू हो गयी। दोनों तरफ़ के लोग एक दूसरे पर टूट पड़े।

जंग शुरू होने से पहले की घटना है कि हुज़ूर ने फ़ौज को सम्बोधित किया। उनका हौंसला बढ़ाया और रणनीति समझायी। फिर उसके बाद हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी तलवार निकाली और ऐलान किया- ‘कौन है जो इसका तलवार का हक़ अदा करेगा।’ बहुत से लोगों ने हाथ बढ़ाये और इच्छा जताई। लेकिन ये सौभाग्य हज़रत ‘अबू दुजाना’ रज़िअल्लाह अन्हु को मिला। ‘अबू दुजाना’ रज़िअल्लाह अन्हु एक मशहूर पहलवान थे। इस अप्रत्याशित और बड़ी इज़्ज़त मिलने की वजह से ‘अबू दुजाना’ रज़िअल्लाह अन्हु का सीना चौड़ा हो गया। उन्होंने सिर पर लाल रुमाल बांधा और अकड़ते तनते फ़ौज से निकले। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया- ‘ये चाल अल्लाह को सख्त ना-पसंद है। लेकिन इस वक़्त पसंद है।’ अबू दुजाना रज़िअल्लाह अन्हु, हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु और हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु दुश्मन पर कोप बन कर टूट पड़े।

दुश्मन के दल में घुस जाते और क़तारें की क़तारें साफ़ कर देते। ‘अबू दुजाना’ रज़िअल्लाह अन्हु बिजली की तरह अपनी तलवार बरसाते हुए चले जा रहे थे कि उनके सामने ‘हिंदा’ आ गयी।’अबू दुजाना’ रज़िअल्लाह अन्हु ने उसके सिर पर तलवार रखी और ये सोचकर हटा दी कि हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तलवार की शान नहीं कि किसी औरत पर आज़माई जाये।

हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाहु अन्हु दोनों हाथों में तलवार लिए चले जा रहे थे। जिस तरफ़ बढ़ते झुंड के झुंड का साफ़ाया कर देते। इसी भीड़ में ‘वहशी’ भी था। जिससे ये शर्त रखी गयी थी कि अगर वो ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु को क़त्ल कर देगा तो आज़ाद हो जायेगा। वो काफ़ी देर से हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु पर घात लगाए बैठा था। वहशी के हाथ में एक छोटा नेज़ा था जिसे हिरबा कहते हैं, उसने उठाया और हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु को दे मारा। वो नेज़ा शेर की तरह लड़ते हुए हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु की कमर से घुसता हुआ पेट से बाहर हो गया। हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने वहशी पर हमला करना चाहा पर लड़खड़ा कर गिर पड़े। हुज़ूर के दोस्त जैसे चाचा, इस्लाम पर प्राण निछावर करने वाले शेर हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने शहादत का शरबत पी लिया और अपने रब से जा मिले। 

क़ुरैश के झंडा पकड़ने वाले एक-एक करके मारे जाते लेकिन झंडा न गिरने देते। एक मरता तो दूसरा जल्द से झंडा थाम लेता। एक शख्स जिसका नाम ‘सवाब’ था जब उन्होंने झंडा पकड़ा तो किसी ने हमला किया और इसके दोनों हाथ काट दिए। झंडा गिरा तो ये खुद भी सीने के बल गिर गये और झंडे को अपने ऊपर डाल लिया। इसी हालत में ये कहते हुए जान दी कि मैंने अपना फ़र्ज़ अदा कर दिया। आख़िर एक औरत ‘अमरा बिन्त अलक़मा’ बढ़ीं और क़ुरैश का झंडा थाम लिया। ज़ोरदार नारों से झंडे को बुलंद किया। ये दृष्य देख कर क़ुरैश का सीना जोश से भर गया और सब इकठ्ठा हो गए।

‘अबू आमिर’ क़ुरैश की तरफ़ से लड़ रहा था लेकिन उनके बेटे हज़रत ‘हन्ज़ला’ रज़िअल्लाह अन्हु इस्लाम ला चुके थे। हज़रत ‘हन्ज़ला’ रज़िअल्लाह अन्हु ने हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से इजाज़त मांगी कि अपने बाप से मुक़ाबला करें। लेकिन करूणानिधि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ये स्वीकार न किया कि एक बेटा बाप पर तलवार उठाये। इसके बाद हज़रत ‘हन्ज़ला’ रज़िअल्लाह अन्हु ने क़ुरैश के सेनापति ‘अबू सुफियान’ पर हमला किया। ‘अबू सुफियान’ लगभग इनकी तलवार की ज़द में आ ही गया था लेकिन तभी ‘शद्दाद बिन अस्वद’ आया और ‘हज़रत ‘हन्ज़ला’ रज़िअल्लाह अन्हु पर हमला कर दिया। हज़रत ‘हन्ज़ला’ रज़िअल्लाह अन्हु ‘शद्दाद’ के हमले से शहीद हो गए।

मुस्लमानों की तलवारें दुश्मनों पर बुरी तरह बरस रही थी। दुश्मनों में अफ़रा-तफ़री का माहौल हो गया था। यहाँ मुस्लमानो़ से पहली ग़लती ये हुई कि उन्होंने जंग से ध्यान हटा कर लूट शुरू कर दी। ये देख कर जो तीरअंदाज़ पिछली तरफ़ पहरे पर खड़े थे उन्हें भी ख्वाहिश हुई कि दुश्मन का माल क़ब्ज़ायें। उनके अफ़सर ‘अब्दुल्लाह बिन जुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने उन्हें रोकना भी चाहा। लेकिन अक्सर तीरअंदाजों ने वो जगह छोड़ दी और लूट के लिए चल दिए।

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