जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 32

छल कपट से मुस्लमानों का वध

जंग ओहद के बाद कुफ़्फ़ार अपनी गलीज़ चालों पर उतर आये जो इंसानियत को पामाल करने के लिये काफ़ी थी। वो ऐसा-ऐसा छल कपट का प्रयोग करते कि मुस्लमान उसमें फंस ही जाते और बे मौत मारे जाते। ये चार(4) हिजरी की घटना है। ‘कुरैश’ ने क़ौम ‘असल’ और ‘क़ारह’ के सात आदमियों को मदीने में नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास भेजा कि हमारे क़बीले इस्लाम लाने को तैयार हैं हमारे साथ कुछ आलिम भेज दीजिये। रसूल आल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने 10 बुजुर्ग सहाबा को जिनके अमीर ‘आसिम बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु थे उनके साथ भेज दिया। जब ये कारवां उनकी सीमा में पहुँचा तो दौ सौ जवान आये कि उन साहाबियों को ज़िन्दा गिरफ़्तार कर लें। तीर अंदाज़ों ने कहा कि आप अपनी सावारियों से उतर आयें। हम आपको संरक्षण देते हैं। हज़रत ‘आसिम’ रजिअल्लाह अन्हु ने कहा ‘मैं काफ़िर की संरक्षण में नहीं आता। ये कह कर अल्लाह रब्बुल इज़ज़त से ख़िताब किया कि ‘ ऐ हमारी जान व माल के मालिक, इज़ज़त व आबरु के मालिक यहाँ जो कुछ माजरा पेश आवे उससे अपने पैग़म्बर को ख़बर दे।’ ग़रज़ कि वो सातों सहाबा उनसे लड़कर शहीद हो गये।

क़ुरैश ने कुछ लोगों को भेजा कि ‘आसिम’ रज़िअल्लाह अन्हु के जिस्म मुबारक से गोश्त का एक टुकडा काट लायें जिससे उनकी पहचान हो सके। अल्लाह रब्बुल इज़ज़त को ये गवारा न हुआ कि शहीद की यूँ बेहुर्मती हो। लिहाज़ा ‘आसिम’ रज़िअलालह अन्हु की मैय्यत की हिफ़ाज़त के लिये शहद की मक्खियों को हुक्म हुआ। जिन्होंने ‘आसिम’ रज़िअल्लाह अन्हु के जिस्म को अपनी हिफ़ाज़त में ले लिया किसी भी काफ़िर की हिम्मत न हुई कि उनकी लाश को छू तक सके। कुरैश नाकाम-नामुराद वापस चले गये। लेकिन दो सहाबा जिनके नाम ‘खबीब’ रज़िअलालह अन्हु और ‘ज़ैद’ रज़िअल्लाह अन्हु थे, ने काफ़िरों के वादों पर ऐतमाद किया और टीकरे से उतर आये। ‘सूफ़ियान हज़ली’ ने इन दोंनो को मक़्का ले गया और कुरैश के हाथों बेच दिया। कुरैश ने इन्हें ‘हारिस बिन आमिर’ के घर में कई दिनों तक भूखा प्यासा रखा। एक दिन ‘हारिस’ का बच्चा खेलता हुआ हज़रत ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास पहुँच गया। उनके पास इस वक़्त उस्तरा था। उन्होंने बच्चे को अपनी गोद में बिठा लिया। अचानक बच्चे की मां की नज़र अपने बच्चे पर पड़ गयी वो समझी कि ‘ख़बीब रज़िअल्लाह अन्हु बच्चे को नुकसान पहुँचाने वाले हैं। मारे डर के मां की चीख निकल गई। हज़रत ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा “ये समझती है कि मैं बच्चे को क़त्ल कर दूँगा। पर नहीं जानती कि मुस्लमान कभी ऐसा नहीं करते।”

कुछ दिन गुज़र जाने के बाद ज़ालिम कुरैश ने हज़रत ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु और उनके साथी को एक सलीब के नीचे ले जाकर खड़ा कर दिया और कहा “अगर तुम इस्लाम के मुन्किर हो जाओगे तो तुम्हारी जान बख्शी की जा सकती है।” इन दोनों ने एक साथ कहा “अगर इस्लाम ही बाक़ी न रहा तो जान बचा कर क्या हासिल कर लेंगे।”

अब कुरैश ने पूछा “कोई अंतिम इच्छा हो को ब्यान करो।” इस पर ‘ख़बीब’ रजिअल्लाह अन्हु ने कहा “हमें दो रकात नमाज़ पढ़ने की मौहलत दी जाये। (सुबहान अल्लाह क्या ईमान था ऐसे मौक़ों पर लोग अपनी औलाद से मां-बाप से रिश्ते अक़ारिब से मिलने की ख़वाहिश किया करते हैं या अपनी जायदाद को वारिसों के बीच तक़सीम करने की मौहलत लिया करते हैं या किसी मेवे या मशरूब के खाने-पीने की ख़्वाहिश ज़ाहिर किया करते हैं) मगर ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु ने नमाज़ पढ़ने की इज़ाज़त तलब की। (इससे हमें ये भी शिक्षा लेनी चाहिये कि नमाज़ किसी भी हालत में माफ़ नहीं है अगर हमने नमाज़ वक़्त पर पढ़ ली है तो अल्लाह के शुक्राने की नमाज़ पढ़ें)

क़ुरैश ने आपको नमाज़ पढ़ने की इजाज़त दे दी। आपने नमाज़ पढ़ी। हज़रत ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु कहते हैं कि “मैं नमाज़ में ज़्यादा वक़्त लगाता। मगर दिल में ख़्याल आया कि कहीं दुश्मन ये न समझ लें कि मैं मौत से डर गया।”

बेरहमों ने दोनों को सलीब पर लटका दिया और नेज़ा बरदारों को हुक्म दिया कि नेज़ों से इनके जिस्म को जख़्मी किया जाये। नेज़ा बरदारों ने बड़ी बेरहमी से अपना काम करना शुरू कर दिया आपको जगह-जगह से जख़्मी करने लगे। मगर उनका दिल इस्लाम पर क़ायम था। दीन ए हक़ पर बेपनाह यक़ीन था। उनके हमेशा-हमेशा की निजात और अल्लाह रब्बुल इज़ज़त को खुश रखने की कितनी ख्वाहिश थी कि उन दिल दहला देने वाली तकलिफ़ों को बर्दाश्त करते रहे और ज़बान से उफ़ तक की भी आवाज़ न निकाली। एक ज़ालिम और बेरहम शख़्स ने हज़रत ‘खबीब’ रज़िअल्लाह अन्हु के जिगर में भाला मारा और पूछा “कहो अब तो तुमको लगता होगा कि मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फंस जायें और मेरी जान छूटे।” ख़बीब रजिअल्लाह अन्हु ने बडे धैर्य मगर पुरजोश अंदाज़ में जवाब दिया “मेरा अल्लाह जानता है कि मुझे तो ये भी गवारा नहीं कि मेरी जान बख़्शी के बदले ‘मुहम्मद’मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को कांटा भी चुभे।”

अल्लाह के इस फर्माबरदार बन्दे ने मक़्तल और तमाशाईयों के बीच में सलीब के नीचे खड़े हो कर फिल्बदीह (यथा समय यथा स्तिथि) ये शेर पढ़े जिसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार है। जिसमें इस्लाम की पवित्र सूरत साफ़ नज़र आती है।

व्याख्या:-लोगों का एक बड़ा मजमा मेरे आस-पास खड़ा है। और उसने बड़े-बड़े गिरोह को बुला लिया है। ये सब के सब मुझसे दुश्मनी निकाल रहे हैं। और ये सब बड़े पुरजोश अंदाज़ में मुझ पर सितम कर रहे हैं। और मैं इस मृत्यु क्षेत्र में मज़बूती के साथ बाँधा गया हूँ। क़बीले वालों ने अपनी औरतों और बच्चों को बुला लिया है। मैं लकडी की सलीब के नीचे खड़ा हुआ हूँ। उनका कहना है कि कुफ़्र इख़्तियार करने पर मुझे रिहाई मिल जायेगी। मगर ये नहीं जानते कि इससे तो मौत मेरे लिये ज़्यादा आसान है। मेरे आँखों से आंसू जारी हैं मगर मुझे कुछ इससे परेशानी नहीं हैं। मैं इनके सामने हारूंगा नहीं और न ही रोना चिखना करुँगा। मुझे पता है कि मैं अपने सच्चे मालिक से मिलने जा रहा हूँ। मौत से मुझे ये डर कदापि नहीं की मैं मर जाऊँगा। लेकिन मैं उस आग से डरता हूँ जो लपक-लपक कर खून चूस लेती है। उस महान आसमान वाले ने मुझे किसी ख़िदमत के क़ाबिल समझा।और मुझे उस पर खरा पाया। और अब उन्होंने अपनी ताक़त से मेरा गोश्त कूट-कूट दिया है। और अब मुझे कोई उम्मीद नहीं है। मैं अपनी बेबसी और बेवतनी और दर्द की फ़रियाद अपने रब से करता हूँ। अल्लाह की क़सम जब मैं इस्लाम पर अपनी जान दे रहा हूँ तो ये हरगिज़ भी परवाह नहीं करता कि अल्लाह की राह में किस करवट गिरता और कैसे जान दे रहा हूँ। अल्लाह की ज़ात से ये उम्मीद रखता हूँ कि इसके सितम से जो मेरे जिस्म के टुकडे हुए हैं उन्हें बरकत नसीब होगी।

और इसके बाद उन्होंने ये दुआ कि “ऐ अल्लाह हमने तेरे रसूल मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के वो अहकाम उन तक पहुँचा दिये हैं और अब तू अपने रसूल अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हमारे हाल की और इनके करतूत की ख़बर पहुँचा दे।”

‘सईद बिन आमिर ‘रजिअल्लाह अन्हु एक सहाबी थे। उनकी हालत ये हो जाया करती थी कि वो कभी-कभी अचानक से बेहोश हो जाया करते थे। ‘उमर फ़ारूक़’ रज़िअल्लाह अन्हु ने उनसे इसका कारण जानना चाहा तो कहने लगे “ मुझे न कोई ऐसी बिमारी है न किसी से कोई शिकायत ही है। जब ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु को सलीब पर चढ़ाया गया तो मैं वहाँ मौजूद था। वो सारा मंज़र मेरी आँखों के सामने आ जाता है और उस पर ‘ख़बीब’ रज़िअल्लाह अन्हु की बातें याद आ जाती है तो मैं कांप-कांप जाता हूँ। इस वजह से मुझपर बेहोशी तारी हो जाती है।

‘अबू बराआ आमिर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने भी कुछ इसी तरह का फ़रैब दिया। वो नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में पहुँचा और निवेदन किया कि मुल्के ‘नजद’ की तालीमो-तरबीयत के लिये कुछ आलिम लोगों को मेरे साथ रवाना कर दें। उसका भतिजा ‘नजद’ का सरदार था। आमिर ने यक़ीन दिलाया कि जिन लोगों को मेरे साथ भेजा जायेगा उनकी पूरी हिफ़ाज़त की जायेगी। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ‘मंज़र बिन अम्र’ रज़िअल्लाह अन्हु अंसारी को भी सत्तर (70) सहाबा जो कि क़ारी, ज्ञानी और बुज़ुर्ग थे उनके साथ रवाना कर दिये। जब वो ‘बर्रा मऊना’ पहुँचे जो बनी आमिर का ईलाक़ा था। वहाँ से ‘हराम बिन मलहान’ को नामा-ए-नबी देकर ‘तुफैल हाकिम’ के पास भेजा। उसने इस सफ़ीर को क़त्ल कर दिया। ‘जब्बार बिन सलमा’ नाम के एक आदमी ने जिसने अपने हाकिम के ईशारे पर उनकी पुश्त पर नेज़ा मारा था जो सीने से पार निकल गया था। उन्होंने गिरते हुए कहा “क़सम है काबे के मालिक की, मैं अपनी मुराद को पहुँचा।” क़ातिल के दिल में इस वाक्य ने ऐसा असर किया कि वो सीधा नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास पहुँचा। सारा माजरा सुना कर और अपने किये की माफ़ी तलब करके इस्लाम में दाख़िल हो गया। हाकिम ने बचे हुए सहाबा को भी क़त्ल करवा दिया।

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