जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 2

अरब का माहौल

अरब लोग रेगिस्तान में रहने वाले क़बाईली थे। पढ़ाई-लिखाई से कोसों दूर, अदब-उसूलों को मानने से इंकार करने वाले। जुआ और शराब के आदी थे। मूर्ति पूजा और हर तरह की बुरी रस्म ओ रिवाज किया करते थे। बेटी के पैदा होने पर उसे क़त्ल कर देते या ज़िंदा दफ्न कर देते थे। औरतों का हक़ छीनने-पीटने को अपनी इज़्ज़त समझना रोज़ की बात थी। अरबों में शुरू से ही लड़ाई झगड़ों का महौल था। हर एक व्यक्ति, ख़ानदान और क़बीला अपनी इज़्ज़त और ताक़त मनवाने के लिए अहंकार से भरा हुए था। छोटी-छोटी बातों पर लड़ाईयाँ शुरू हो जाती थी़। कभी जानवरों के चराने के ऊपर झगड़ा, कभी ऊँटो को पानी पिलाने पर, कभी मेहमान नवाज़ी में, कभी शेरो-शायरी में एक-दूसरे को नीचे दिखाने पर झगड़े शुरु हो जाते और कई-कई साल तक खून बहने का सिलसिला शुरू हो जाता था। एक बड़ी मशहूर जंग ‘जंग ए “फ़िजार” का क़िस्सा है। ये लड़ाई ‘क़ुरैश’ और ‘क़ैस’ क़बीले के बीच हुई थी। जंग में दोनों तरफ़ के बहुत से लोग मारे गए। अब क्योंकि “क़ुरैश” क़बीला पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)का क़बीला था तो वो भी जंग में शामिल थे। हालाँकि उन्होंने किसी पर हाथ नहीं उठाया। बल्कि जंग की बाक़ी ज़रुरतों में लोगों का हाथ बंटाया।

इस लड़ाई की वजह से कई घर उजड़ गए थे। बहुत से बच्चे अनाथ, औरतें विधवा और माँ-बाप बे औलाद हो गयी थीं। इस सारे नुकसान को देख कर कुछ बुद्धिमान लोगों में एक चिंता पैदा हुई। इस जंग के सिलसिले को रोकने की की चिंता। इन्हीं लोगों में से एक “ज़ुबैर” बिन “अब्दुल मुत्तलिब” थे जोकि रिश्ते में हुज़ूर “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के चाचा लगते थे। इन्होंने बाक़ी सरदारों के सामने समझौते का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव में ख़ानदान ‘हाशिम’ ‘तैम’ और‘ज़हरा’ “अब्दुल्लाह बिन ज़दआन” के घर पर इकठ्ठा हुए और समझौता किया। समझौते में तीनों ख़ानदानों ने तय पाया कि हममें से हर व्यक्ति असहायों की हिमायत करेगा और कोई ज़ालिम मक्का शहर में नहीं बेचेगा। हुज़ूर मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी इस समझौते में शामिल थे। नबूवत के दौर में आप फ़रमाया करते थे कि इस समझौते के मुक़ाबले में अगर मुझे सुर्ख ऊँट भी दिए जाते तो मैं उसे स्वीकार नहीं करता।

अरबों में कुछ खूबियाँ भी थीं उनमें से वादा निभाना एक बड़ी खूबी थी। वादा कर लेते थे तो वादे से पलटने वाले को बड़ा मुजरिम और नीच मानते थे। एक ख़ूबी ये भी थी कि झूठ बोलना बड़ा ऐब समझते थे। किसी भी सूरत में झूठ बोलने को अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझते थे।

बदलता वक़्त

धीरे-धीरे वक़्त गुज़र रहा था। हुज़ूर बचपन से लड़कपन और लड़कपन से जवानी की दहलीज़ तक पहुँच चुके थे। चाचा “अबू तालिब” के साथ अक्सर व्यापार के लिए लम्बे सफर पर जाना होता था। व्यापार की ही बदौलत हुज़ूर की पहचान न सिर्फ मक्का शहर में बल्कि आस-पास के इलाक़ों में भी अच्छी-खासी हो गयी थी। अरब में हुज़ूर का चर्चा था। एक अच्छे कद का तंदुरुस्त नौजवान जो खूबसूरती और रोब की मूरत है। हाशिम खानदान से अबू तालिब का भतीजा। शालीनता और सरलता के स्वभाव से सत्य बोलता है। अमानत में हेर-फेर नहीं करता। अगर वादा कर ले तो मुकरता नहीं था।

अब्दुल्लाह बिन “अबिल हमसा” हुज़ूर की जवानी की घटना सुनाते हुए कहते हैं कि मैंने हुज़ूर से उस दौर में व्यापार से जुड़ा कोई समझौता किया था। कुछ बात हो चुकी थी कुछ रह गयी थी। मैंने हुज़ूर से वादा किया कि मैं वापस आकर इस मामले को पूरा करूँगा। मैं इस बात को भूल गया और तीन दिन गुज़र गए। तीसरे दिन मैं जब हुज़ूर को ढूँढता हुआ पहुँचा तो आप मुझे उसी जगह मिले जहाँ मैंने वादा किया था। मैं शर्मिंदा था लेकिन मेरी ग़लती पर हुज़ूर के माथे पर एक बल तक न आया। बस इतना कहा- “तुमने मुझे बहुत कष्ट दिया। मैं इसी जगह तीन दिन से मौजूद हूँ।”

पहला निकाह

पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक बेहद खूबसूरत नौजवान थे न ज़्यादा लम्बा कद था कि आँखों को चुभे न ज़्यादा छोटा कि व्यक्तित्व कमज़ोर लगे। न सेहत कमज़ोर थी न ही जिस्म पर मोटापा। एक सेहतमंद शरीर के मालिक थे। रंग गोरा था और कलियों जैसी चमक थी। बाल हल्के-हल्के घुंगराले जैसे पानी में लहरें होती हैं। भवें कमान के जैसी खींची हुई और गोल थी। दाढ़ी घनी और मूंछे हल्की। आँखें सच्चे मोती की तरह बड़ी-बड़ी चमकती हुई। पलकें भी खासी लम्बी आँखों पर छाँव करती हुई। दांत सफ़ेद। होंठ गुलाबी और आवाज़ रौबदार जो सुनता बस सुनता ही रह जाता। जब हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कोई बात समझाते तो सबको आसानी से समझ आ जाती। सीना चौड़ा। बाज़ू मज़बूत। बड़ी हथेली और उँगलिया लम्बी और सीधी। जब चला तो बहुत अदब के साथ। जब बात किया करते तो यूँ लगता कि दुनिया भर के साहित्यकारों, कवियों और लेखकों के लफ़्ज़ और समझ एक साथ बोल रहे हों। हर बात में रिश्तेदारी जोड़ा करते थे। लोगों को माफ़ किया करते थे। अमानत(वो सामान जो किसी की सुरक्षा में इस विश्वास के साथ रखी जाये कि जब रखी गई वस्तु वापस मांगी जाये तो वो उसे पूरी ईमानदारी के साथ लौटा देगा) की हिफाज़त किया करते थे। अपने गुज़ारे के लिए व्यापार करते और अधिकतर समय अकेले रहना पसंद करते थे।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को दुनिया से कोई लगाव नहीं था। न मालो-दौलत की लालच। न इज़्ज़त और शोहरत की भूख। पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को दुनिया से ज़्यादा दुनिया बनाने अल्लाह में रूचि थी। अक्सर पहाड़ों में जाकर ध्यान लगाया करते थे। इस दुनिया में होने वाली घटनाओं से दूर इस दुनिया के बनाने वाले (अल्लाह)की आराधना किया करते।

हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के इस सादे, सच्चे और खरे चरित्र से पूरा अरब प्रभावित था। बड़े-बड़े मालदार, नामवर आपकी इज़्ज़त किया करते थे। बड़े-बड़े घरानों से हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए रिश्ते थे लेकिन आपका शादी को लेकर ख्याल सबसे अलग था।

मक्का में निहायत शरीफ़ और इज़्ज़तदार ख़ानदान की एक ख़ातून हज़रत “ख़दीजा” थीं। वो ख़ानदानी तौर पर मालदार थी। अपना पैसा व्यापार में लगाया करती थीं। शहर में हुज़ूर की बढ़ती प्रशंसा और नाम की वजह से इस बार उन्होंने अपने पैसे से हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को व्यापार करने के लिए भेजा। उस समय में साधारतः वस्तुओं का आयत-निर्यात होता था। एक देश जा कर अपने यहाँ बनने वाली वस्तु बेचना और वहाँ वस्तु विशेष को लाकर अपने शहर बेचना। इस सफ़र में हज़रत “खदीजा” के ग़ुलाम “मैसारा” भी हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के साथ थे। पूरे सफ़र में उन्होंने हुज़ूर की सच्चाई, ईमानदारी-दयानतदारी का बड़ी बारीकी से निरीक्षण किया और परखा। इस सफ़र के व्यापर में बड़ा फ़ायदा हुआ। वापस आये तो अच्छा मुनाफ़ा कमा लिया था। “मैसारा” ने हज़रत “खदीजा” को सफ़र का हाल बताया। उन्होंने बताया कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की जिन खूबियों का ज़िक्र शहर वाले करते हैं, हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बिलकुल वैसे ही हैं। इन सभी खूबियों से प्रभावित हो कर हज़रत “खदीजा” ने हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)को विवाह का पैग़ाम भेज दिया। यूँ तो हज़रत “खदीजा” के लिए बड़े-बड़े घरानों से रिश्ते आते थे लेकिन आप उन्हें रद्द कर देती थीं। पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्र इस समय पच्चीस (25) वर्ष थी और हज़रत “खदीजा” की उम्र पैंतालिस (45) साल। हज़रत “खदीजा” दो बार विधवा हो चुकी थीं। आपके साथ आपके बच्चे भी थे।

पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की नज़र में एक साथी में अच्छा किरदार सबसे महत्वपूर्ण था। इसलिए पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत “खदीजा” के विवाह न्यौते को स्वीकार कर लिया और उनसे शादी कर ली।

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