जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 13

अरब क़बीले को इस्लाम की दावत

मक्का में वापस आकर नबी मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अब ऐसा करना शुरू किया कि अलग-अलग क़बीलो़ के आवास में तशरीफ़ ले जाते। या “मक्का” से बाहर चले जाते और जो कोई मुसाफ़िर आता या कोई जाता मिल जाता तो उसे अल्लाह की बात समझाते। इन्हीं दिनों क़बीला “बनू किंदा” में तशरीफ़ ले गए। क़बीला का सरदार मलिक था और कबीला “बनो अब्दुल्लाह” के यहाँ भी पहुँचे उनसे कहा कि-“तुम्हारे बाप का नाम अब्दुल्लाह था तुम भी इस नाम के काम वाले हो जाओ”। बनो हनीफ़ा के घरों में तशरीफ़ ले गए उन्होंने सारे अरब में सबसे दुष्टता के व्यवहार से नबी अककम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इंकार किया। “बनू आमिर बिन सआसआ” के पास गए। क़बीला के सरदार का नाम “बुखीरा बिन फिरआस” था।

नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की बात सुनकर कहा- “कि अगर हम तेरी बात मान लें और तू अपने दुश्मनों से जीत भी जाए। तो क्या वादा करता है कि तेरे बाद ये काम मुझे मिलेगा?” नबी ने फ़रमाया- “यह तो अल्लाह के हाथ में है वह जिसे चाहेगा मेरे बाद उसे चुन लेगा”। बुखीरा बोला-“बहुत अच्छे! इस वक्त तो अरब के सामने सीना खोल करके हम लड़ें और जब तेरा काम बन जाए तो मज़े कोई और उड़ायेगा। जा हमको तेरे साथ कोई मतलब नहीं!

क़बीलों के सफ़र में हुजूर अकरम मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सच्चे-पक्के दोस्त “अबू बक्र” सिद्दीक अन्हु भी साथ में थे। इन्हीं दिनों में नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को “सुवेद बिन सामित” मिला। उसके कबीले के लोगों ने “कामिल” की उपाधि दी हुई थी। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे इस्लाम की बात बताई। वह बोला- “शायद आपके पास वही कुछ है जो मेरे पास है।” नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा-“तुम्हारे पास क्या है?” वह बोला-“हिकमत ए “लुक़मान” नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया-“ब्यान करो।” उसने कुछ उम्दा अशआर सुनाए। नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया- यह अच्छा कलाम है लेकिन मेरे पास कुरआन है जो उससे उच्च स्तर का और हिदायत नूर वाला है। उसके बाद नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे कुरआन सुनाया। और वह बिना किसी झिझक के मुस्लमान हो गया। जब अपने शहर “यसरिब” लौट कर गया तो लोगों ने उसकी हत्या कर दी।

उन्हीं दिनों की बात है कि “अबुल हासैसर अनस बिन राफे़” मक्का आया। उसके साथ बनी “अब्दुल अश्हल” क़बीले के कुछ नौजवान भी थे जिनमें “अयास बिन मुआज़” भी थे। ये लोग “क़ुरैश” से अपनी क़ौम “ख़ज़रज” की तरफ से समझौता करने आये थे। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनसे मुलाक़ात का इरादा किया और जाकर बयान किया। आपने फ़रमाया- “मेरे पास एक ऐसी चीज़ है जिसमें सबकी कामयाबी है। क्या तुम्हें ख्वाहिश है कि ये जानो वो क्या है?” वो बोले-“ऐसी क्या चीज़ है?” आपने फ़रमाया-“मैं अल्लाह का रसूल हूँ। दुनिया में अल्लाह का पैग़ाम लेकर आया हूँ। लोगों को एक अल्लाह की तरफ़ बुलाता हूँ और बहुईश्वरवाद से रोकता हूँ। मुझ पर अल्लाह ने अपनी किताब भेजी है। फिर उन लोगों के सामने इस्लाम के उसूल ब्यान किए और कुरआन भी पढ़ कर सुनाया।

“अयास बिन मआज़” अभी जवान थे। यह बात सुनते ही बोले- ए मेरी क़ौम! बख़ुदा यह तुम्हारे लिए इस मक़सद से बेहतर है। जिसके लिए तुम यहाँ आए हो। “अनस बिन राफ़े” ने कंकरियाँ की मुट्ठी भर कर उठाई और “अयास” के मुंह पर दे मारीं।” कहा बस चुप रह हम इस काम के लिए तो नहीं आए । रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वहाँ से उठकर जाना बेहतर समझा। यह घटना “बुआस” की जंग से पहले की है जो “ओस” और “ख़ज़रज” के बीच हुई थी। “अयाय” वापस जाकर कुछ दिनों बाद मर गए। मरते वक्त उनकी जुबान पर अल्लाह और अल्लाह के नबी की बाते थीं। मरने से पहले हुजूर की मोहब्बत उनके दिल में घर कर गई थी। उन्हीं दिनों में “ज़िम्माद अज़दी” जो एक यमनी था मक्का में आया। यह अरब का एक मशहूर जादूगर था। जब उसने सुना के मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर जिन्नात का असर है तो उसने क़ुरैश से कहा कि मैं मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का इलाज अपने जादू मंतर से कर सकता हूँ। फिर वो नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और कहा-“मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आओ तुम्हें एक मंत्र सुनाऊँ।” नबी ने फ़रमाया “पहले मेरी तो सुन लो”। फिर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसे क़ुरान सुनाया

अनुवाद:- सब तारीफ़ें अल्लाह के वास्ते हैं हम उसकी नेमतों का शुक्र करते हैं और हर काम में उसकी सहायता हैं। जिसे अल्लाह राह दिखाता है उसे कोई भटका नहीं सकता। और जिसे अल्लाह ही भटका दे उसकी कोई रहबरी नहीं कर सकता। मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य योग्य भी नहीं। वह एक है और कोई उसका साथी नहीं। मैं इस बात की भी गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के बंदे और उसके रसूल हैं। अब असल बात यह है…..”

जादूगर ने बस इतना ही सुना था कि बोल उठा। यही प्रवचन दोबारा सुना दीजिए। दो-तीन बार उसने इसी प्रवचन को सुना और फिर व्याकुल होकर कहने लगा- “मैंने बहुत से जादूगरों को देखा। बहुत से भविष्य बताने वालों को देखा। शायरों को सुना। लेकिन ऐसा कलाम तो मैंने किसी से भी नहीं सुना। यह श्लोक तो एक गहरा समंदर है। मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह के वास्ते हाथ बढ़ाइए कि मैं इस्लाम कुबूल कर लूँ।”

इन्हीं दिनों “तुफै़ल बिन अम्र” मक्का में आया। यह क़बीला “दोस” का सरदार था। और नवाजी “यमन” में उनके ख़ानदान में अच्छी हुकूमत करता था। “तुफै़ल” रज़िअल्लाह अन्हु खुद एक शायर अक़्लमंद आदमी थे। जब वो “मक्का” आया तो “मक्का” के लोगों ने शहर के बाहर ही से उसका स्वागत किया और एक शानदार कार्यक्रम के साथ उसको “मक्का” लेकर आए। तुफै़ल रज़िअल्लाह अन्हु खुद बताते हैं। मुझे मक्का वालों ने ये भी बताया कि ये शख्स जो हमी से है, इससे ज़रा बचना। इसे जादू आता है। जादू से बाप-बेटों में, पति-पत्नी में, भाई-भाई में दरार डाल देता है। हमारे पूरे समाज को परेशान कर रखा है। और हमारे कामों में टांग अड़ाता है। हम नहीं चाहते कि तुम्हारी क़ौम पर भी ऐसी ही कोई मुसीबत आये। इसलिए हमारी यह नसीहत है कि न इसके पास जाना। न इसकी बात सुनना और न खुद उससे बात करना।

यह बातें उन्होंने इतना जोर देकर समझाई थी कि मेरे मस्तिष्क में रच बस गई थी इसीलिए जब मैंने “काबा” में जाना चाहा तो दोनों कानों में रुई डाल ली ताकि मुहम्मद.(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आवाज़ की भनक भी मेरे कानों में ना पड़ जाए। एक रोज़ मैं सुबह ही “काबे” में गया। नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) नमाज़ पढ़ा रहे थे। क्योंकि यह अल्लाह की मर्ज़ी थी कि उनकी आवाज़ मेरे कानों तक ज़रूर पहुँचे। इसलिए मैंने सुना कि वो एक अजीब कलाम पढ़ रहे हैं। इस वक़्त मैं स्वयं से शिकायत करने लगा कि मैं तो खुद एक शायर हूँ, ज्ञानी हूँ, अच्छे-बुरे की तमीज़ भी रखता हूँ। फिर क्या वजह है और कौन सी रोक-टोक है कि मैं इनकी बात को न सुनू। अच्छी बात होगी तो मान लूँगा वरना नहीं मानूँगा। यह निश्चय करके वह ठहर गया। 

जब नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने घर को वापस चले तो मैं भी पीछे-पीछे हो लिया। और जब मकान में हुज़ूर के साथ गया तो नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपना पूरा हाल बताया। लोगों के बहकाने और कानों में रुई और आज सुबह हुजूर की जुबान से कुछ सुन पाने का पूरा हाल उन्होंने अपने आप बता दिया। इसके बाद निवेदन किया कि मुझे अपनी बात सुनाइए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कुरआन पढ़ा। बाखुदा मैंने ऐसा पाक़ीज़ा कलाम कभी सुना ही न था जो इस क़दर नेकी और इंसाफ़ के दिशा निर्देश देता हो।

नतीजतन वह उसी वक्त मुस्लमान हो गए। जिस व्यक्ति को कुरैश ने हज़ार बातें बना कर मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से बात करने से रोका था। वह आदमी मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक एक बात सुनते हैं। अपने दिलो जान से उनका गुलाम हो गया। इतने बड़े सरदार का मुस्लमान हो जाना मक्का के कुरैश के लिए बेहद आपत्तिजनक था।

“अबूजर” रज़िअल्लाह अन्हु अपने शहर “यसरब” मे ही थे कि उन्होंने नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बारे में कुछ उड़ती-उड़ती सी ख़बर सुनी। उन्होंने अपने भाई से कहा कि तुम जाओ मक्का में उस शख़्स से मिल कर आओ।  हज़रत”अबुज़र” के भाई “उनैस” एक अच्छे शायर और साहित्यकार थे। वह नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से आकर मिले और सारा हाल जाना। फिर वापस जाकर अपने भाई को बताया कि मैंने मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को एक ऐसा शख्स पाया जो अच्छाई करने का और बुराई से बचने का हुक्म देता है।

“अबूज़र” बोले इतनी सी बात से तो कुछ तसल्ली नहीं होती। आखिर खुद पैदल चलकर मक्का पहुँचे। हज़रत “अबूज़र” को नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पहचान न थी और किसी से पूछना भी वह पसंद नहीं करते थे। ज़मज़म का पानी पीकर क़ाबे में ही लेटे रहे। हज़रत मुर्ज़तज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु आए। उन्होंने पूछा कि “आप तो मुसाफ़िर मालूम होते हैं ?” हज़रत “अबूज़र” ने जवाब दिया- ” हाँ”। हज़रत “अली” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा अच्छा तो फिर मेरे घर चलिए। यह रात उन्होंने वही गुज़ारी। नाही हज़रत “अली” रज़िअल्लाह अन्हु ने उनसे कुछ पूछा न “अबूज़र” ने उनसे कुछ कहा। 

“अबूज़र” फिर “काबे” में आ गए। दिल में हुजूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तलाश थी मगर किसी से नहीं कह सकते थे। अगले दिन फिर हज़रत”अली” रज़िअल्लाह अन्हु “काबा” में आ गए फिर उन्होंने पूछा कि “शायद अभी आपको अपनी मंजिल नहीं मिली?”आप कौन हैं? और क्यों यहाँ आए हैं?” “अबूज़र” ने कहा अगर राज़ रखो तो मैं बता सकता हूँ। हज़रत”अली” रज़िअल्लाह अन्हु ने उनसे वादा कर लिया कि वह उनकी बात को राज़ रखेंगे। “अबूज़र” ने कहा- “मैंने सुना कि शहर में एक ऐसा शख्स है जो खुद को नबी कहता है। मैंने अपने भाई को भेजा था वो यहाँ से कुछ तसल्ली बक्श बात लेकर नहीं आया इसलिए फिर मुझे खुद ही आना पड़ा।

हज़रत”अली”रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा। “तुम खूब आए। और खूब हुआ कि मुझसे मिले। देखो मैं उन्हीं की ख़िदमत में जा रहा हूँ। आओ मेरे साथ चलो। मैं अंदर जाकर देख लूँगा। यदि इस समय हुज़ूर मिलना मुनासिब समझेंगे तो मैं दीवार से लग कर खड़ा हो जाऊँगा। जैसे के जूता दुरुस्त कर रहा हूँ। लिहाज़ा “अबूजर” और हज़रत “अली” रज़िअल्लाह अन्हु दोनों नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत में पहुँचे और अर्ज़ किया-“मुझे बताया जाए कि इस्लाम क्या है?” और नबी ने फरमाया- “अबूज़र” तुम अभी इस बात को छुपाए रखो और अपने वतन को चले जाओ। जब तुम्हें हमारे आने की ख़बर मिल जाए तब आ जाना। हज़रत “अबूजर” बोले अल्लाह की क़सम मैं तो इन दुश्मनों में ऐलान करके जाऊँगा। 

अब “अबूजर” रज़िअल्लाह अन्हु “काबे” की तरफ आए। “कुरैश’ वहाँ मौजूद थे। उन्होंने सबको सुना कर बुलंद आवाज़ से इस्लाम का कलमा पढ़ा। “कुरैश” ने कहा- “इस बेदीन को मारो। लोगों ने मार डालने के लिए उन्हें मारना शुरू करा। शुक्र है कि बीच में “अब्बास” रजि़अल्लाह अन्हु आ गए। उन्होंने “अबूजर” रज़िअल्लाह अन्हु को किसी तरह उनके बीच में से निकाला और कहा- “दुष्टो ये तो क़बीला “ग़िफ़्फ़ार”का आदमी है। जहाँ तुम व्यापर करने जाते हो और वहाँ से खजूरें लेकर आते हो। भीड हट गयी उन्होंने फिर सब को सुनाकर कलमा पढ़ा। फिर लोगों ने मारा और फिर दोबारा हज़रत”अब्बास”रज़िअल्लाह अन्हु ने उनको छुड़ाया। इस घटना के बाद यह अपने देश वापस चले आए।

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