जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 33

बनू नज़ीर का देश निकाला

यहूदी अपने शुरु के दौर में बड़े अल्लाह वाले इबादत गुज़ार और मुत्तक़ी क़ौम थी। मगर आहिस्ता-आहिस्ता वो अल्लाह से इतने दूर होते गये कि फिर अल्लाह के ग़ज़ब का निशाना बने। अल्लाह के नबी ‘ईसा’ अलैहिस्सलाम ने जब अपनी क़ौम की यह हातल देखी तो उन्हें सांप और सांप के बच्चों से तश्बीह दी। और ये भी भविष्यवाणि की कि अल्लाह बादशाहत इस क़ौम से छीन कर एक दूसरी क़ौम को दे देंगे। जो इसके अच्छे परिणाम लायेगी।

फिर इस भविष्यवाणी के सच होने का वक़्त आया। प्यारे आक़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बेहतरीन तालीम की तबलीग़ शुरु की तो यहूदियों ने दिल में बड़े अंगारे जलाये और आखिर में यही फ़ैसला तय पाया कि जिस तरह हमने ‘ईसा’ अलैहिस्सलाम को परेशान किया उन पर जुल्म सित्म ढ़ाया ठीक उसी तरह आक़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर भी यातनाओं के पहाड़ तोडे जायें।

हांलाकि यहूदियों ने हिजरत के पहले साल ही शांति का समझौता तय कर लिया था। लेकिन अपनी आदत के मुताबिक़ वो ज़्यादा देर इस के पाबन्द न रह सके। मुहाईदा तय हुए अभी दो साल भी पूरे न हुए थे कि यहूदी अपनी शरारतों पर उतर आये। एक बार जनाब आक़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बद्र की जानिब गये हुए थे। ये उन्हीं दिनों की बात है। एक मुसलमान औरत ‘बनू कुनीकया’ के मुहल्ले में दूध बेचने गयी। कुछ यहूदियों को शरारत का मौक़ा मिल गया। उन्होंने दूध बेचने वाली औरत को भरे बाज़ार में निर्वस्त्र कर दिया। औरत की चीख-पुकार सुनकर एक ग़ैरत मंद इंसान उसकी मदद को दौड़ा और शर पसंद यहूदी को क़त्ल कर दिया। फिर कुछ यहूदियों ने जमा होकर उस ग़ैरतमंद इन्सान को भी क़त्ल कर दिया। जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बद्र से वापस आये तो उन शरपसंद यहूदियों को बुला भेजा ताकि इस बवाल का हाल मालूम किया जा सके पर यहूदियों ने समझौते के दस्तावेज़ वापस भेज दिये और जंग करने पर आमादा हो गये।

ये हरकत अब बग़ावत तक पहुँच गई थी। उनको सज़ा के तौर पर मदीना छोडने का हुक्म दिया गया। कुरैश ने मदीने के बुतपरस्तों के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खिलाफ़ जंग करने के लिये एक ख़त भेजा। मगर प्यारे नबी की दानिश्वरी से उनकी ये तदबीर कामयाब न हो सकी। अब बद्र में हार जाने के बाद क़ुरैश ने यहूदियों को फिर ख़त लिखा। ‘तुम जायदादों और क़िलों के मालिक हो। तुम मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से लड़ो वरना हम तुम्हारे साथ ऐसा सुलूक करेंगे कि आने वाली तमाम नस्लें इस शर्मिन्दगी से गर्दन नहीं उठा पायेंगी।

इस ख़त के मिलने पर यहूदियों ने हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से फ़रेब और धोखा करने का ईरादा कर लिया। ये भी चार हिजरी की बात है कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक क़ौमी चंदा करने के लिये यहूदियों के मौहल्ले में गये। यहूदियों ने आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को एक दीवार के साये तले बैठने की जगह दी और तदबीर की कि ‘इब्ने जहाश’ दीवार के ऊपर चढ़ कर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ऊपर एक वज़नी पत्थर गिरा दे। जिससे आपकी ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाये ( नाऊजू बिल्लाह। ) मगर अल्लाह ने आपको वक़्त रहते इस हादसे से बाख़बर कर दिया और आप हिफ़ाज़त के साथ वहाँ से वापस आ गये। आखिरकार यहूदियों को देशनिकाला दे दिया गया और उन्हें हुकुम दिया गया कि वो ‘ख़ैबर’ जाकर आबाद हो जायें। तमाम यहुदी ढ़ोल-ताशों की आवाज़ में रुख़सत हुए। उन्होंने जाते-जाते अपने घरों को अपने ही हाथों से गिरा दिया था और सारा माल तकरीबन छः सौ ऊँटों पर लाद के निकल गये।

ख़न्दक़ का युद्ध

बनू नज़ीर मदीने से निकल कर ख़ैबर पहुँचे तो उनकी साज़िशों में मज़ीद इज़ाफ़ा हो गया। इस बार उन्होंने एक बडी साज़िश की। उनके सरमायादारों में से ‘सलाम बिन अबी अलहक़ीक़ी’, ‘हई बिन अख़तब’, ‘कनाना बिन अलरबीअ’ और चन्द अफ़राद मक्का गये और क़ुरैश से मिलकर कहा अगर तुम हमारा साथ दो तो इस्लाम का खात्मा किया जा सकता है। क़ुरैश के तो जैसे ये दिल की मुराद थी। वो ऐसे हर अमल के लिये तैयार रहते जिससे मुस्लमानों और ख़ास कर इस्लाम को नुकसान पहुँचता हो। वो तैयार हो गये तो इसी तरह कई और कबीलों को उन्होंने हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खिलाफ़ तैयार किया। किसी को आधा टैक्स देने का लालच दिया तो किसी को हिस्सेदार बना लिया और किसी को पद देने का फ़रेब दिया। क़ुरैश दस हज़ार से ज्यादा लोगों का लश्कर लेकर मदीना की तरफ़ बढे़।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ये सारी खबरें मिल रही थीं। उन्होंने सहाबा किराम से मशवरा लिया ‘हज़रत सलमान फारसी’ रज़िअल्लाह अन्हु ईरानी होने की वजह से खंदक (बड़े गड्ढे ) खोदने के तरीक़ों से बाखूबी वाक़िफ़ थे। उन्होंने मश्वरा दिया कि खुले मैदान में जंग लड़ना अक़्लमंदी की निशानी नहीं है। इसके विपरीत किसी महफूज़ मक़ाम पर लश्कर जमा किया जाये और आसपास में खंदक (बड़ा गड्ढा) खोद ली जाये। हज़रत ‘सलमान फारसी’ रज़िअल्लाह अन्हु की इस राय से तमाम सहाबा ने इतिफ़ाक़ किया और खंदक खोदने वाले तमाम औज़ार जमा किये गये। मदीने में तीन तरफ़ पहाड़ और सब्ज़ा था जो शहरे पनाह का काम देता था। सिर्फ़ शामी रुख खुला हुआ था। हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इसी मक़ाम पर तीन हज़ार सहाबा की मदद से खंदक खोदने की इजाज़त दे दी। यह 5 हिजरी का किस्सा है।

हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपने हाथों से निशान लगाये। दस-दस आदमियों पर दस-दस ग़ज जगह तक़सीम की गयी। गड्ढे की गहराई 5 गज़ रखी गई। 6 दिन में तीन हज़ार मुबारक हाथों से ये काम अपने अंजाम को पहुँचा।

जब मस्जिद नबवी बन रही थी तब भी सरवरे कायनात ने अपने आपको मजदूरों की क़तार में रखा था आज भी वही मंजर था। जाड़े की शिद्दत थी। लोग तीन-तीन दिन के फ़ाक़े से थे। मुहाजरीन और अंसार मिट्टी भर-भर कर अपनी पीठों पर उठाये हुए जोशे मुहब्बत से हम आवाज़ होकर कहते थे-

“हम वो खुश नसीब लोग हैं जिन्होंन मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हाथ पर शपथ ली है।”

आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी मिट्टी फेंक रहे थे, धूल दामन से बदन लिपट जाता था।

खंदक खोदते हुए एक जगह एक चट्टान आ गयी। किसी की चोट काम न करती थी। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तशरीफ़ लाये और एक ज़ोर दार चोट लगाई। चट्टान मिटटी का एक ढेर साबित हुई।

सिलआ की पहाडियों को पीछे की जानिब यानि कमर की तरफ़ रखा और सफें तैयार की गयीं। औरतों को शहर के महफ़ूज़ क़िलों में भेज दिया गया मगर ‘बनू कुरैत’ के भी हमलों का डर था इसलिये ‘सलमत बिन असलम’ रज़िअल्लाह अन्हु को 200 आदमियों के साथ महिलाओं की हिफ़ाज़त के लिये भेज दिया गया ताकि उधर से हमला न होने पाये। ‘बनू कुरैज़’ के यहूदी अभी तक इस मामले से अलग थे। बनू नज़ीर ने उनको मिलाने की कोशिश की। ‘हई बिन अख़तब’ ( हज़रत सुफिया रज़िअल्लाह अन्हा के वालिद ) खुद कुरैज़ा के सरदार ‘कआब बिन असद’ के पास गया। पर बनू कुरैज़ ने इंकार कर दिया। ‘हई’ ने कहा मैं फौजों का एक उफ़नता हुआ दरिया लेकर आया हूँ। कुरैश और तमाम अरब हमारे साथ है। और ये सब अकेले मुहम्मद.(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खून के प्यासे हैं। ये मौक़ा ऐसा हरगिज़ नहीं जिसे हाथ से जाने दिया जाये। अब इस्लाम का खात्मा यक़ीनी है। अबू कुरैज़ा ने कहा “ हमने मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को हमेशा सच्चा और वादों का पाबंद पाया है। उनसे किये वादे तोड़ना ग़ैरत के ख़िलाफ़ है। लेकिन ‘हई’ का जादू बेकार नहीं जायेगा अबू कुरैज़ा ने मुस्कान के साथ कहा”

हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जब ये बात पता चली तो उसकी पड़ताल के लिये ‘सआद बिन मआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु और ‘सआद बिन उबादा’ रज़िअल्लाह अन्हु को भेजा कि पता करें कि क्या बनू कुरैज़ा ने मुहाईदा तोड़ दिया है। इसकी पड़ताल छुप कर करें ताकि लोगों में बद दिली न फैला। दोनों साहाबी वहाँ पहुँचे और बनू कुरैज़ा को मुहाईदा याद दिलाया। जिसपर बनू कुरैज़ा ने कहा- “कैसा मुहाईदा और कौन मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हम नहीं जानते।”

इससे ये बात तो स्पष्ट हो गई कि बनू कुरैज़ा ने मुहाईदा तोड़ दिया है और दुश्मन की तरफ़दारी पर उतर आये हैं। यहुदियों और अरब कबाईल की फौजे तीन हिस्सों में बट कर तीन तरफ़ से हमलाआवर हुई। ये हमला इतना सख़्त था कि मदीने की सरज़मीन लरज़ गई। 

इस जंग का तज़किरा खुद खुदावन्द तआला ने किया

अनुवाद:-‘जब कि दुश्मन ऊपर की तरफ़ और नशेब की जानिब से आ पड़े और जब आँखें डरने लगीं और कलेजे मुँह को आ गये। और तुम अपने रब की तरफ़ तरह तरह के गुमान करने लगे। तब मुस्लमानों की परख का वक्त आ गया। वो ज़ोर से लरजने लगे।

मुस्लमानों की फौज में मुनाफ़िक़ भी शामिल थे। मौसम की सख़्ती, लगातार फ़ाके, रातों की आधी नींदें और दुश्मन की एक बडी फौज। ये ऐसे कारण थे जिसने उनका राज़ फाश कर दिया। वो हुज़ूर से इजाज़त तलब करते कि उनके घर महफूज़ नहीं हैं उन्हें वापस जाने की इजाज़त दी जाये।

वो कहते हैं कि हमारे घर खुले पड़े हैं और वो खुले नहीं हैं। मगर वो मैदान से भागना चाहते हैं। मगर इस्लाम के सच्चे जांनिसारों के सोने नुमा ईमान को कसोटी पर परखने का वक्त था।

‘जब मुस्लमानों ने क़बाईल की फौजें देखीं तो बोल उठे ये वही है जिसका वादा अल्लाह ने और उसके रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने किया था और अल्लाह और उसके रसूल सच्चे हैं और इस बात ने उनके यक़ीन को और मज़बूत कर दिया’

घेरा डाले तक़रीबन एक माह का वक़्त गुज़र गया था। घेराव इतना सख़्त और पुरजोर था कि आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और सहाबा तीन-तीन दिन के फाक़े से थे। एक दिन सहाबा ने भूख से बेताब होकर हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपना पेट खोलकर दिखाया जिसमें पत्थर बंधे हुए थे। लेकिन जब आपने अपना पेट मुबारक दिखाया तो एक की जगह दो पत्थर बंधे थे।

घेरे की खौफ़नाकी इतनी बढ़ गई कि आपने सहाबा से खिताब करते हुए कहा “कोई है जो बाहर जाकर मुहासरा करने वालों की ख़बर लेकर आये।” तो हज़रत ‘जुबैर’ रज़िअल्लाह अंन्हु के कहा कि ‘मैं जाता हूँ।’

आपने (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फिर पूछा। इस बार भी ‘ज़ुबैर ‘ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा। ‘मैं जाता हूँ।’

जब तीसरी बार आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा तो इस बार भी ‘जुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ‘कहा मैं जाता हूँ।’ इसी मौक़े पर आप(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ‘ज़ुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु को ‘हवारी’ का लक़ब दिया।

घेराव करने वाले खंदक को पार नहीं कर सकते थे इसलिये दूर से तीर और पत्थर फेंकते रहे। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खंदक के अलग-अलग हिस्सों में फौजें तैनात कर रखी थीं जो इन हमलों का जवाब देती थी। एक हिस्से पर आप खुद तैनात थे। 

लगातार घेराव बढ़ता जाता था तब आपको ख़्याल आया कि कहीं ऐसा न हो कि उनकी फौज हिम्मत हार बैठे। इसलिये आपने ग़तफ़ान से इस शर्त पर समझौता करना चाहा कि फसल की पैदावार एक तिहाई हिस्सा उनको अदा किया जायेगा।

‘सआद बिन उबादा’ और ‘सआद बिन मआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु को अंसार के इज़्ज़तदार लोगों ने बुलाकर मशविरा किया। दोनों ने एक वक्त कहा ‘अगर ये अल्लाह का हुकुम है तो इंकार की सूरत नहीं है। अगर राय मांगी गयीं है तो यह कहना चाहूँगा कि जब हम कुफ़्र की हालत में थे तब भी किसी की हिम्मत न हुई कि हमसे खिराज वसूल करे और अब तो हम (सुब्हान अल्लाह) इस्लाम में दाख़िल हो चुके हैं। इस्लाम ने हमारा क़द बहुत बुलन्द कर दिया है।” ये जोशो-ख़रोश देख कर आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दिल को बड़ा इत्मिनान हुआ। ‘सआद’ रज़िअल्लाह अन्हु ने काग़ज़ लेकर जो कुछ भी उसपर तहरीर किया गया था मिटा दिया और बोले “उन लोगों से जो बन पड़े करें।”

तीर और पत्थरों के हमले से कोई नतीजा न निकलता देख मुश्रिकों ने ये फ़ैसला लिया कि अब आम तरीके से हमला किया जाये। कुछ खास जनरल मुन्तखिब किये गये जिनमें सरे फहरिस्त ‘अबू सूफ़ियान’, ‘ख़ालिद बिन वलीद’, ‘अम्र बिन आस’, ‘सरार बिन अल खिताब’ का एक -एक दिन तय पाया। हर जनरल अपनी बारी आने पर पूरी फौज को साथ लेकर लड़ता। खंदक को पार करना आसान न था। मगर वो खंदक की दूसरी तरफ़ से तीर और पत्थर फेंकते। मगर इस तरीक़े में कामयाबी मिलती नज़र न आती थी। तमाम फौज को जमा किया गया। तमाम सरदार आगे-आगे, खंदक का मुआईना किया गया तो पाया कि खंदक एक जगह से कमज़ोर है। खंदक जहाँ से कमज़ोर थी वहाँ से हमले का ईरादा किया गया। अरब के नामवर बहादुर ‘सिरार’, ‘नौफैल’, ‘अम्र बिन अबदूद’ ने खंदक के इस किनारे से घोडे को ऐड लगाई और आन की आन में खंदक के उस पार थे। ‘अम्र बिन अबदूद’ एक हज़ार सवारों के बराबर माना जाता था। जंग बदर से ज़ख़्मी और नामुराद वापस आकर उसने क़सम उठाई थी कि जब तक बदला नहीं ले लेता सर में तेल न डालूँगा। इस वक्त उसकी उम्र 90 साल की थी। खंदक पार कर लेने के बाद अरब की तहज़ीब के मुताबिक़ उसने ललकार कर कहा “कौन है जो मेरे मुक़ाबिल आये।’

हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा “मैं आता हूँ” मगर हजरत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा “रुको”। मगर हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु के सिवा किसी की आवाज़ न आई।

‘अम्र’ ने फिर ललकारा। इस बार भी ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने उसकी ललकार को तस्लीम किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने रोक दिया ‘अम्र’ ने तीसरी बार भी ललकारा और जवाब में हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु की आवाज़ बुलन्द हुई। तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा ‘अली, ये अम्र है।’

हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा “मैं जानता हूँ कि ये ‘अम्र’ है।” ग़रज़ आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु को इजाज़त दे दी। खुद अपने हाथों से तलवार सौंपी। सर पर दस्तार बांधी।

‘अम्र’ के बारे में एक क़ौल था कि दुनिया में कोई आदमी मुझसे अपनी तीन ख्वाहिश रखे तो मैं एक ज़रुर पूरी करुँगा।

हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने पूछा।’ क्या वाक़ई तेरा ये क़ौल है?’ फिर उसके सामने ये तीन सवाल रखें

हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु :- मैं ख्वाहिश ज़ाहिर करता हूँ कि तू इस्लाम कबूल कर लें

‘अम्र’:- ये नामुम्किन है

हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु:- तू इस लड़ाई से बाज़ आ जा।

‘अम्र’:- मुझे अरब की औरतों से ताने नहीं सुनने

हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु:- मुझसे जंग कर

‘अम्र’:- मुझे सच में ये नहीं मालूम था कि कोई मुझसे इस तरह की दरख़्वास्त भी कर सकता है। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु बिना सवारी के थे। ‘अम्र’ को ये बात गवारा न हुई वो घोड़े से नीचे उतर आया और घोड़े के पैरों पर तलवार से एक सख़्त वार किया और फिर पूछा ‘ तुम कौन हो?’ हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने अपना परिचय करवाया। जिसपर ‘अम्र’ ने कहा – मैं आपसे लडना नहीं चाहता। हज़रत अली रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- मगर मैं ऐसा चाहता हूँ। अम्र ने ये सुना तो गुस्से से बेक़ाबू हो गया और तलवार से आप पर हमला कर दिया। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने वार को ढ़ाल पर रोका और तलवार ढ़ाल से टकराकर उचट गई और आपकी पेशानी पर लगी क्योंकि तलवार पहले ढ़ाल से टकरा चुकी थी इसलिये उसका ज़ोर हल्का पड़ चुका था जिसकी वजह से ज़ख़्म गहरा नहीं बना सकी। पर ये निशान आपकी पेशानी पर यादगार बन चुका था। तारीख में लिखा है कि हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु को ज़ुलक़रनैन भी कहते थे जिसकी वजह ये थी कि आपकी पेशानी पर ज़ख़्मों के दो निशान थे। एक निशान ‘अम्र’ की तलवार का था जो इस वक़्त लगा था और एक निशान ‘मलजम’ का दिया हुआ था। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ‘अम्र’ का वार रोक कर हमला किया जिसके नतीजे में ‘अम्र’ का एक बाजू शाने से जुदा हो गया। अल्लाह हू अकबर की सदा हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु के गले से निकल कर फ़िज़ां में गूंजी। इसी के साथ जीत हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु के आमाल नामे में जुड गयी। ‘अम्र’ के बाद ‘सर्रार’ और ‘हसबीराह’ ने हमला किया मगर वो पार न पा सके। जल्दी ही पीछे हट गये। ‘सर्रार’ फरार का रास्ता इख़्तियार कर चुका था। जब वे भाग रहा था तो ‘फ़ारूख़’ रज़िअल्लाह अन्हु ने उसका पीछा किया। ‘सर्रार’ ने पीछे मुड कर बर्छी का वार करना चाहा। लेकिन रोक लिया। और तेज़ आवाज़ में बोला। ‘फारुख’ इस एहसान को याद रखना।’

हमले का ये दिन इतना सख़्त था कि प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की चार वक़्त की नमाज़ें क़ज़ा हो गयी। तीर और पत्थरों की वो बरसात थी जो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। जिसकी वजह से जो जहाँ था वहीं रुका रहा इस वाक़ये का ज़िक्र हदीस में बड़े विस्तृत अंदाज़ में आया है।

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