जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 52

हज्जतुल विदआ - अंतिम हज

وَإِذَاجَاءَنَصْرُاللَّهِوَالْفَتْحُ،وَرَأَيْتَالنَّاسَيَدْخُلُونَفِيدِينِاللهِأَفْوَاجاًفَسَبِّحْبِحَمْدِرَبِّكَوَاسْتَغْفِرُهُإِنَّهُ

– जब अल्लाह की मदद आ गई और मक्का फत्ह हो चुका और आपने देख लिया कि लोग अल्लाह के दीन में फौज दर फौज दाख़िल हो रहे हैं तो अल्लाह की तस्वीह पढ़िए और अस्तग़फ़ार कीजिए अल्लाह तोबा कुबूल करने वाला है।

इस सूरह के नाज़िल होने के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)को मालूम हो गया था कि दुनिया से विदाई का समय क़रीब आ गया है इसलिए अब आवश्यकता थी कि तमाम दुनिया के सामने शरीयत और अख़लाक़ के तमाम उसूल एक मजमे में ऐलान कर दिया जाए।

आंहज़रत(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)ने हिजरत के जमाने से अब तक फरीज़ा ए हज अदा नहीं फ़रमाया था। बहरहाल इस्लामिक वर्ष के अनुसार 11वें महीने में यह घोषणा की गई कि हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज के इरादे से मक्का तशरीफ़ ले जा रहे हैं। यह खबर फैल गई और उनके साथ चलने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए तमाम अरब उमड़़ आया। शनिवार ग्यारहवें महीने की 22 तारीख़ को आप(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)ने ग़ुसल फ़रमाया और चादर और तहमद बांधी। नमाज ज़ोहर के बाद मदीना से बाहर निकले। मदीने से 6 मील के फ़ासले पर ज़ुलहलीफा नाम की एक जगह है जहाँ हज पर जाने से पहले एहराम बनते हैं।

दूसरे दिन दोबारा ग़ुस्ल फ़रमाया उसके बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दो रकात नमाज़ अदा की फिर क़सवा पर सवार होकर ऐहराम बाँधा और ऊँची आवाज से ये अल्फ़ाज़ दोहराए- ऐ अल्लाह हम तेरे सामने हाज़िर हैं ऐ अल्लाह तेरा कोई शरीक नहीं हम हाज़िर हैं तारीफ़ और नेमत सब तेरी है़ और सल्तनत में तेरा कोई भागीदार नहीं।

हज़रत ‘जाबिर’ रज़िअल्लाह अन्हु जो इस हदीस के रावी हैं उनका बयान है कि मैंने नज़र उठाकर देखा तो आगे-पीछे दाएं-बाएं जहाँ तक नज़र काम करती आदमियों का जंगल नज़र आता था। आंहजरत(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जब लब्बैक फ़रमाते थे तो हर तरफ़ से इसी सदाएं आवाज़ आती थी और तमाम जंगल गूँज उठते थे।

मक्का विजय के समय आप(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जिस-जिस जगह पर नमाज़ अदा की थी़ वहाँ बरकत के ख़्याल से लोगों ने मस्जिदें बना ली थीं। हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन मस्जिद में नमाज़ अदा करते जाते थे । सरफ पहुँचकर ग़ुसल फरमाया। दूसरे दिन इतवार के रोज ज़ुलहज्जा के 4 तारीख़ को सुबह के वक्त मक्का में दाख़िल हुए। मदीने से मक्का तक का यह सफ़र नौ दिन में तय हुआ। हाशिम ख़ानदान के लड़़कों ने जब आप के आने की ख़बर सुनी तो खुशी से बाहर निकल आए। आपने मोहब्बत से ऊँट पर किसी को आगे और किसी को पीछे बिठा लिया। काबा नज़र आया तो फ़रमाया- “हे अल्लाह! इस घर को और ज्यादा इज्जत और सम्मान दे।” फिर काबे का तवाफ़ (परिक्रमा) किया। तवाफ़ से फ़ारिग़ होकर मक़ाम-ए- इब्राहिम में दो रकात नमाज़ अदा की और यह आयत पढ़़ी- और मक़ाम-ए- इब्राहिम को सजदा गाह बनाओ

सफ़ा पर पहुँचे तो ये आयत पढ़ी-

– सफ़ा और मरवाह आल्लाह की निशानियाँ हैं 

(यहाँ से) काबा नज़र आया तो ये दुआ पढ़ी- अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं, उसका कोई शरीक़ नहीं, उसके लिए सल्तनत और मुल्क और हम्द है वह मारता और जिलाता है और वह तमाम चीजों पर क़ादिर है कोई नहीं मगर वो अकेला अल्लाह उसने अपना वादा पूरा किया और अपने बंदे की मदद की और अकेले तमाम गिरोह को पराजित किया।

सफ़ा से उतरकर मरवह पर आए। यहाँ भी आपने दुआ की। अरब वाले हज के वक्त में उमरा करना नाजाइज़ समझते थे।

सफा और मरवह के तवाफ़ से निपट कर आपने लोगों को जिनके साथ और क़ुर्बानी के जानवर नहीं थे उमरा तमाम करके ऐहराम उतार देने का हुक्म दिया । कुछ सहाबा ने पुरानी रस्मों की आदत के कारण इस हुक्म को पूरा करने में असमर्थता जताई। हज़रत ने फ़रमाया अगर मेरे साथ क़ुर्बानी के ऊँट ना होते तो मैं भी ऐसा ही करता। हज़रत ‘अली’ रजिअल्लाह अन्हु हज्जतुल विदा से कुछ पहले यमन भेजे गए थे। उसी वक्त वो यमनी हाजियों का काफ़िला लेकर मक्का में आ गए क्योंकि उनके साथ क़ुर्बानी के जानवर थे इसलिए उन्होंने ऐहराम नहीं उतारा। जुमेरात के रोज़ आठवीं तारीख़ को अपने तमाम मुस्लमानों के साथ मिना में क़याम फरमाया। दूसरे दिन नवीं ज़िअल हज्जा को जुमे के रोज़ सुबह की नमाज़ पढ़कर मिना से रवाना हुए?

आज पहला दिन था कि इस्लाम अपने पूरे जाह व जलाल के साथ दुनिया के सामने आया और अज्ञानता के समस्त अनर्गल रस्मो रिवाज को मिटा दिया इसलिए आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने- हाँ जहालत के तमाम दस्तूर मेरे पैरों के नीचे हैं।

यू मानवता की भलाई के लिए सबसे बड़ी अड़चन, ऊँच-नीच का अंतर था। दुनिया की समस्त जातियों ने सभी धर्मों ने और सारे देशों ने अलग अलग अंदाज में स्थापित कर रखे थे। और ये सभी शैतान के पैरोकार थे जिनके आगे किसी को कुछ भी बोलने की हिम्मत न थी। ऐमा धर्म के साथ किसी व्यक्ति को धार्मिक मामले में बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। ग़ुलाम-स्वामी के बराबर नहीं हो सकते थे आज यह तमाम अंतर यह तमाम हदबंदियाँ टूट गई थीं।

किसी अरब वाले को ग़ैरअरब पर और किसी ग़ैर अरब को किसी अरब वाले पर कोई बढ़ाई हासिल नहीं तुम सब आदम की औलाद हो और आदम मिटटी से बने थे।

सारे अरब में सूद के कारोबार का एक मायाजाल सा फैला हुआ था जिससे गरीबों का रोम-रोम जकड़ा हुआ था और हमेशा के लिए अपने कर्ज़दारों के ग़ुलाम बन गए थे। आज वह दिन है कि इस जाल का तार तार अलग होता है इस फ़र्ज़ को पूरा करने के लिए मआलम हक़ सबसे पहले अपने ख़ानदान को पेश करता है।

अज्ञानता के समय लिए गए सभी सूद ख़त्म कर दिए गए और सबसे पहले अपने ख़ानदान का सूद ‘अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब का सूद खत्म करता हूँ।

आज तक औरतों को एक जायदाद के रूप में देखा जाता था जो जुआखानों में दांव पर चढ़ाई जा सकती थी। आज पहला दिन है कि इन अबला औरतों को इज़्ज़त का ताज पहनाया जाता है इरशाद होता है।

औरतों के मामले में अल्लाह से डरो

अरब में जान और माल की कोई क़ीमत नहीं थी जो आदमी जिसको चाहता था। क़त्ल कर देता था और जिसका माल चाहता था छीन लेता था। आज अम्न और सलामती के बादशाह ने सारी दुनिया को भाई-चारे का संदेश दिया।

यहाँ के सभी कार्य पूरे करने के बाद मन्ना के मैदान में तशरीफ़ लाए। दाएं-बाएं आगे-पीछे लगभग एक लाख मुस्लमानों की भीड़ थी। मुहाजरीन क़बीले दाहिने, अंसार बायं और बीच में आम मुसलमानों की पंक्तियाँ थीं। आंहजरत ऊंटनी पर सवार थे। हज़रत ‘बिलाल रज़िअल्लाह अन्हु  के हाथ में ऊंटनी की लगाम थी। 

हज़रत असामा बिन ज़ैद कपड़़ा तानकर साया किए हुए पीछे बैठे थे। आप ने नज़र उठा कर उस भीड़ की तरफ़ देखा। नबूवत के कर्तव्य के 23 साल का परिणाम आंखों के सामने था। जमीन से चारों तरफ हक़ का नूर चमक रहा था। 

दुनिया में बराबरी और इंसाफ़ और ज़ुल्म और अत्याचार का कारण केवल तीन बाते हैं। जान, माल और इज़्ज़त। आंहज़रत कल के उपदेश में ये बातें बता चुके थे लेकिन दोबारा समझाने के उद्देश्य से आज फिर एक नये उपाय से लोगों को समझाने के लिये पूछा- “कुछ मालूम है आज कौन सा दिन है? लोगों ने कहा “अल्लाह और अल्लाह के रसूल ज़्यादा अच्छा जानते हैं।” आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) चुप रहे। लोगों ने समझा कि शायद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इस दिन का कोई और नाम रखेंगे।

देर तक ख़ामोश रहने के बाद दोबारा कहना शुरु किया। क्या आज क़ुरबानी का दिन नहीं है? लोगों ने कहा- “हाँ बेशक है।” आपने फिर पूछा- “ये कौन सा महीना है?’ लोगों ने फिर वही जवाब दिया। अल्लाह और अल्लाह के रसूल बेहतर जानते हैं। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फिर देर तक ख़ामोश रहे और फिर बोले। क्या ये ज़िलहिज्जा का नहीं है?’ लोगों ने कहा’: हाँ बेशक है।’ फिर पूछा- ये कौनसा शहर है?’ लोगों ने फिर उसी तरह जवाब दिया। आप उसी तरह देर तक ख़ामोश रहे और फिर उसी तरह इरशाद फरमाया काबे का शहर नहीं है? लोगों ने कहाँ हाँ बेशक है।’ इस तरह लोगों के दिल में ये बात अच्छी तरह बैठ गयीं कि आज का दिन, ये महीना और इस शहर का ऐहतराम कितना ज़्यादा है। इस दिन इस शहर में इस महीने में युद्ध और खून बहाना जाईज़ नहीं है तब आपने फिर इरशाद फरमाया:-  तो तुम्हारा ख़ून तुम्हारा माल और तुम्हारी आबरु क़यामत तक इसी तरह मोहतरम है जिस तरह ये दिन इस महीने में और इस शहर में मोहतरम है।

अरब में एक और कठोर क़ानून ये था कि ख़ानदान में किसी भी व्यक्ति से कोई गुनाह हो जाता तो उसे ख़ानदान का हर व्यक्ति उस जुर्म का कानूनी मुजरिम समझा जाता था और अक्सर मुजरिम के छुप जाने या भाग जाने पर बादशाह उस परिवार में से जिस व्यक्ति को पकड़ा लेता उसको सज़ा देता। बाप के जुर्म में बेटे को सूली पर चढ़ा दिया जाता था और बेटे के जुर्म का बदला बाप को चुकाना पड़ता था । यह अति कठोर कानून था जो आदि काल से दुनिया में चला आ रहा था। लेकिन इस वक्त जब दुनिया के आखिरी पैगंबर सियासी निज़ाम को क्रमबद्ध कर रहे थे तो इस उसूल को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे । आप ने फ़रमाया- हां मुजरिम अपने जुर्म का आप ज़िम्मेदार है। हां बाप के जुर्म का ज़िम्मेदार बेटा नहीं और बेटे के जुर्म का जवाब बाप को नहीं देना है।

अरब में कानून व्यवस्था न होने का एक कारण ये भी था कि हर आदमी अपनी बड़ाई का खुद दावेदार था और दूसरों के मातहत और फ़रमाबरदारी को अपने लिए बुरा समझता था। इरशाद हुआ कि:- अगर कोई कान कटा ग़ुलाम भी तुम्हारा रहबर हो और वो तुमको अल्लाह की किताब के अनुसार ले कर चले तो उसकी फ़रमाबरदारी करना।

अरब के रेगिस्तान का ज़र्रा- ज़र्रा इस वक़्त आज़ाद हो चुका था और इस्लाम के अलौकिक प्रकाश से जगमगा रहा था। ख़ाना काबा इस समय ‘इब्राहिम’ अलैहिस्सलाम के मानने वालों का केन्द्र बिन्दु बन चुका था और सामप्रदायिक ताक़तें ज़ड से ख़त्म हो चुकी थीं। इस आधार पर आप ने ईरशाद फ़रमाया:-

तुम्हारे इस शहर में बुत की पूजा क़यामत तक न की जाएगी लेकिन छोटी-छोटी बातों में उसकी पैरवी करोगे और वह इस पर खुश होगा।

और सबसे आख़िर में आपने इस्लाम के सबसे महत्वपूर्ण फर्ज़ याद दिलाएं- अपने परवरदिगार की इबादत करो पांचों वक्त की नमाज़ पढ़ो महीने के रोज़े रखो और मेरे एहकाम की इताअत करो अल्लाह की जन्नत में दाखिल हो जाओगे।

यह कहकर आपने भीड़ की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया।

क्या मैंने अल्लाह का पैग़ाम पहुँचा दिया? 

सब एक साथ बोल उठे़ ‘हाँ’

फ़रमाया:- ऐ अल्लाह तू गवाह रहना

फिर लोगों की तरफ़़ मुख़़ातिब होकर फ़रमाया:-  

जो लोग इस वक़्त यहाँ मौजूद हैं वो उनको सुना दें जो यहाँ मौजूद नहीं हैं।

अपने ख़ुत्बे के अंत में आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने तमाम मुस्लमानों को अलविदा कहा। इसके बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जहाँ जानवरों की क़ुर्बानी होती थी वहाँ गए और लोगों से कहा क़ुर्बानी के लिए मिना की कुछ पाबंदी नहीं है बल्कि मिना और मक्का की एक-एक गली में क़ुर्बानी हो सकती है । आपके साथ क़ुर्बानी के सौ ऊँट थे। कुछ तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ख़ुद अपने हाथों से ज़िब्ह किए और बाक़ी हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु के हवाले कर दिए कि वो ज़िब्ह करें और हुक्म दिया कि गोश्त जो कुछ हो सब ख़ैरात कर दिया जाए । यहाँ तक कि ‘कसाब’ की मज़दूरी भी इससे अदा न की जाए। अलग से दी जाए। यहाँ के सभी काम पूरे करने के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मेमर बिन ‘अब्दुल्लाह’ को बुलवाया और सर के बाल मुंडवाए और मोहब्बत से कुछ बाल ख़ुद अपने दस्ते मुबारक से आबू ‘तल्हा’ रज़िअल्लाह अन्हु अंसारी और उनकी बीवी ‘उम सलीम’ रज़िअल्लाह अन्हा और कुछ अन्य लोगों को जो पास बैठे थे इनायत फ़र्मा दिये और बाक़ी अबु तल्हा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने अपने हाथों से तमाम मुस्लमानों में एक-एक दो-दो करके बांट दिए। इसके बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मक्का तशरीफ़ लाए। ख़ाना काबे का तवाफ़ किया। तवाफ़ करने के बाद आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ज़मज़म के पास आए।

ज़मज़म से हाजियों को पानी पिलाने की ज़िम्मेदारी ‘अब्दुल मुत्तलिब’ के ख़ानदान को थी। इसलिए उस वक्त उसी ख़ानदान के लोग पानी निकाल-निकाल कर लोगों को पिला रहे थे । आप ने फ़रमाया या बनी ‘अब्दुल मुत्तलिब’ अगर मुझे यह डर न होता कि कुछ लोग मुझे ऐसा करते देख कर तुम्हारे हाथ से डोल छीनकर खुद अपने हाथ से पानी निकाल कर पिएंगे तो मैं खुद अपने हाथ से पानी निकालकर पीता।

आपने काबे की तरफ़ मुँह करके खड़े-खड़े पानी पिया। फिर यहाँ से मिना वापस चले गए और वहीं ज़ोहर की नमाज़ अदा की। इसके बाद सभी लोग अपने-अपने घरों को वापस चले गए और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने महाजरीन व अंसार के साथ मदीना की तरफ़ रुख फ़रमाया। मदीने के करीब पहुँचकर जुल हलीफ़ा में रात बसर की सुबह के वक्त एक तरफ़ से आफ़ताब निकला और दूसरी तरफ़ नबी मदीना मुनव्वरा दाख़िल हुए। जब मदीना पर नज़र पड़ी तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ये अल्फ़ाज़ अदा किये- अल्लाह महान और महान है। उसके अतिरिक्त कोई अल्लाह नहीं है लेकिन वो है। उसका कोई साथी नहीं है। केवल उसका ही राज्य है। उसकी स्तुति और महिमा हो। वो हर चीज़ पर क़ादिर है। वे लौट रहे हैं। तौबा करते हुए आज्ञाकारी बनकर ज़मीन पर सजदा करते हुए। साथ उसका माथा जमीन पर। अपने रब की स्तुति में लीन। अल्लाह ने अपना वादा सच किया। अपने बन्दे की मदद की और अकेले ही सभी विरोधियों को हरा दिया।

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