सत्य का प्रचार
नबूवत मिलने के बाद से ही हुज़ूर हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर वो ज़िम्मेदारी आ गयी जो आपसे पहले के नबियों पर थी। अपने दौर के ज़ुल्म और बुराई के खिलाफ अच्छाई और इन्साफ़ का प्रचार करना। आपसे पहले जिन लोगों ने अल्लाह की बातें लोगों से की, उन्हें कष्ट और तकलीफ़ झेलनी पड़ी। इसी पड़ाव से प्यारे नबी हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को भी गुज़ारना था। लेकिन ये काम अल्लाह का था और क़यामत तक इंसानों के लिए सन्देश था इसीलिए ये काम बहुत ही सोच समझ कर करना था।
इसी लिए हुज़ूर हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ये संवेदनशील सन्देश पहले अपने ख़ास लोगों को ही बताना उचित समझा। सबसे पहले हुज़ूर हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अपनी पत्नी हज़रत “खदीजा” रज़िअल्ला अन्हा को इस्लाम की दीक्षा दी और सबसे पहली मुस्लमान हज़रत “खदीजा” रज़िअल्लाह अन्हा हुई। इसके बाद अपने चचेरे भाई ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु जो आपके साथ ही रहते थे उन्हें बताया। उनकी आयु केवल आठ(8)वर्ष की थी लेकिन हुज़ूर के अच्छे व्यहवार को पहले दिन से जानते थे। इसीलिए मुस्लिम हो गए। उसके बाद “हारिसा” रज़िअल्लाह अन्हु जो हुज़ूर के गुलाम थे उन्होंने इस्लाम क़ुबूल किया और अपने सच्चे दोस्त “अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु को। यह चारों लोग पहले दिन ही इस्लाम की दौलत से मालामाल हो गए।
“अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु पेशे से व्यापारी थे। बेहद मालदार और ऊँचे खानदान से थे। इसी कारण आपकी शहर में काफ़ी इज़्ज़त की जाती थी और लोगों में काफ़ी उठना बैठना था। “अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु ने ये सन्देश अपने ख़ास लोगों से साझा किया। इसमें “उस्मान” रज़िअल्लाह अन्हु,”ज़ुबैर” रज़िअल्लाह अन्हु, “अब्दुर्रहमान बिन ऑफ “रज़िअल्लाह अन्हु, “तल्हा” रज़िअल्लाह अन्हु, “सआद इब्ने अबी वक़्क़ास” रज़िअल्लाह अन्हु मुस्लमान हुए। इनके साथ ही और बहुत से शरीफ़ लोग जैसे “अबू उबैदा बिन अब्दुल्लाह” रज़िअल्लाह अन्हु, “अब्दुल असद बिन अब्दुल्लाह” रज़िअल्लाह अन्हु, “बिलाल इब्ने रबाहा” रज़िअल्लाह अन्हु भी मुसलमान हो गए। औरतों में हज़रत”मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चाचा अब्बास की पत्नी “उम्मुल फ़ज़ल” रज़िअल्लाह अन्हा, “अस्मा बिन्त उमेस” रज़िअल्लाह अन्हा “अस्मा बिन्ते अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हा और “उमर” की बेटी “फ़ातिमा” रज़िअल्लाह अन्हा ने इस्लाम क़ुबूल किया।
मुस्लमानों की संख्या कम थी। इस बात का पक्का विश्वास था कि अगर अरब में किसी और को इस बात की भनक लगी कि कुछ लोगों ने उनके बाप-दादा का धर्म छोड़ कर एक अल्लाह की ईबादत शुरु कर दी है तो बड़ा हंगामा हो जाएगा। इसीलिए मुस्लमान उन दिनों छुप-छुप कर इस्लाम सीखते और इस्लाम पर अमल करते। नमाज़ अदा करने के लिए पहाड़ी की घाटी में चले जाते और सबकी नज़र से छुप-छुप कर अल्लाह की इबादत करते।
एक रोज़ पैग़म्बर “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम), अली रज़िअल्लाह अन्हु एक जगह नमाज़ अदा कर रहे थे। संयोग था कि हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के चाचा और “हज़रत “अली” रज़िअल्लाह अन्हु के पिता “अबू तालिब” आ गए। उन्होंने बेटे और भतीजे को अलग तरह की इबादत में विलीन देखा तो हैरान हो गए। ग़ौर से उन दोनों को देखते रहे। जब ये लोग नमाज़ पढ़ चुके तो इनसे पूछा ये कौन सा दीन है और कौन सा अल्लाह है जिसकी तुम इबादत करते हो। हज़रत”मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया “ये हमारे दादा “इब्राहीम” अलैहिस्सलाम का दीन है” और सारा वृतांत कह सुनाया। “अबू तालिब” ने कहा मैं इस दीन पर चलूँगा नहीं लेकिन तुमको इजाज़त है। कोई भी व्यक्ति “मक्का” में तुम्हें नहीं रोकेगा।
तीन साल तक इस्लाम का प्रचार ख़ामोशी के साथ होता रहा। मुस्लमानों की संख्या लगभग चालीस(40) हो गयी थी। अब समय था की ईश्वर के पैग़ाम का सूरज पूरी तरह से उदय हो जाये। अल्लाह की तरफ़ से साफ़ हुक्म आया “और तुमको जो हुक्म दिया गया है साफ़ साफ़ कह दो” और साथ ही यह हुक्म भी हुआ कि “और अपने क़रीबी ख़ानदान वालों को अल्लाह से डराओ।”
अल्लाह के हुक्म को पूरा करने के लिए हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) “कोह-ए-सफ़ा” ( सफ़ा नामक एक पहाड़ी ) पर जा खड़े हुए और लोगों को पुकारा। जब सब लोग इकठ्ठा हो गए तो प्यारे नब हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया “अगर मैं तुमसे कहूँ कि इस पहाड़ के पीछे एक फ़ौज है जो तुम्हें क़त्ल करने के लिए घात लगाए है तो क्या मुझपर विश्वास करोगे?” सबने एक साथ कहा “हाँ। क्यूंकि हमने तुम्हें सदैव सच बोलते देखा है। तुम झूठे नहीं हो।” हुज़ुर हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया “ ये अपनी बात को समझाने के लिए एक मिसाल थी। अब यक़ीन कर लो कि मौत तुम्हारे सर पर आ रही है और तुम्हें एक अल्लाह के सामने हाज़िर होना है।” इस ज़ोरदार ऐलान से हुज़ूर हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का मक़सद ये प्रदर्शन करना था कि जिस तरह से पहाड़ी पर खड़ा आदमी दुश्मन फ़ौज की जानकारी दे रहा है जबकि बाकी लोग उस फ़ौज को नहीं देख सकते। इसी तरह नबी आख़िरत को जानते हैं और चेतावनी दे रहे हैं जबकि ये लोग उसे नहीं जानते।
हुज़ूर हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत “अली” रज़िअल्लाह अन्हु से कहा कि दावत का सामान ले कर आओ। हुज़ूर ने अपने सारे ख़ानदान को खाने के लिए आमंत्रित किया। दावत में आपके चाचा “अबू तालिब” “हमजा” और “अब्बास” सभी लोग थे। खाना-खाने के बाद हुज़ूर हजरत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खड़े हो कर कहा “मैं वो चीज़ लेकर आया हूँ जो दोनो दुनिया में फ़ायदा देगी। इस नेक काम में कौन मेरा साथ देगा?” संपूर्ण सभा में सन्नाटा छा गया। किसी की समझ नहीं आ रहा था कि “हज़रत “मुहम्मद”(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ये क्या नई बात कर रहे हैं। तभी हज़रत “अली” रज़िअल्लाह अन्हु खड़े हुए और कहा “भले ही मैं छोटा हूँ। मेरी टाँगे पतली हैं बाज़ू कमज़ोर हैं। आप सब में सबसे छोटा हूँ फिर भी मैं “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ हूँ।”
ये बड़ा अजीब मंज़र था। “क़ुरैश” ने आज से से पहला ऐसा कुछ नहीं देखा था। एक व्यक्ति दीन और दुनिया की कामयाबी का दावा कर रहा है और उसके समर्थन में एक तेरह साल का नव युवक खड़ा है। देखने वालों को इन दोनों पर हंसी आ गयी। पर आज चौदह सौ साल बाद इतिहास गवाह है कि ये दो लोग अपनी बात के बड़े सच्चे थे।