हज़रत ‘उम्मे सलमा’ रज़िअल्लाह अन्हा कहती हैं- मेरे शौहर अबू ‘सलमा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने हिजरत का इरादा किया और मुझे ऊँट पर बैठा दिया। मेरी गोद में मेरा बच्चा ‘सलमा’ था। जब हम चल पड़े तो ‘बनु मुग़ीरा’ ने आकर अबू ‘सलमा’ रज़िअल्लाह अन्हु को घेर लिया और कहा कि “तू जा सकता है मगर हमारी लड़की नहीं ले जा सकता।” अब ‘बनु अब्दुल असद’ घराने के लोग भी आ गए। उन्होंने अबू सलमा से कहा “तू जा सकता है मगर बच्चे को जो हमारे क़बीले का बच्चा है तू नहीं ले जा सकता।” ग़रज़ उन्होंने ‘अबू सलमा’ रज़िअल्लाह अन्हु से ऊँट की नकेल लेकर ऊँट को बैठा दिया। ‘बनू अब्दुल असद’ तो मां की गोद से बच्चे को छीन कर ले गए और ‘बनू मुग़ीरा’ उम्मे सलमा को ले आए। ‘अबू सलमा’ रज़िअल्लाहल अन्हु जो दीन के लिए हिजरत करना फर्ज़ समझते थे, बीवी और बच्चे के बगै़र ही रवाना हुए। ‘उम्मे सलमा’ रज़िअल्लाह अन्हा शाम को उसी जगह जहाँ बच्चे और शौहर से जुदा की गई थी पहुँच जाती और घंटो रो-रो कर वापस आ जाती। एक साल इसी तरह रोते हुए गुज़रा। आखिर उनके चचेरे भाई को रहम आया और दोनों कबीलों से कह सुनकर ‘उम्मे सलमा’ रज़िअल्लाहु अन्हा को इजाज़त दिला दी कि अपने शौहर के पास चली जाएं। बच्चा भी उनको वापस दे दिया गया। ‘उम्मे सलमा’ रज़िअल्लाह अन्हा एक ऊँट पर सवार होकर ‘मदीना’ को अकेली चल दीं। ऐसी मुश्किल का सामना तकरीबन हर एक सहाबी को करना पड़ा।
हज़रत ‘उमर फारूक’ रज़िअल्लाह अन्हु का ब्यान है कि हज़रत ‘अयाश बिन राबिआ’ और हज़रत ‘हिशाम’ सहाबी भी उनके साथ मदीना चलने को तैयार थे। हज़रत ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु तो रवानगी के वक्त जगह पर पहुँच गए मगर ‘हिशाम बिन आस’ रज़िअल्साह अन्हु के जाने की खबर मक्का के ‘कुरैश’ को लग गई और उन्हें कैद कर लिया गया। बहरहाल ये दो लोग ही मदीना पहुंचे।
हज़रत ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु मदीना पहुँचे ही थे कि ‘अबू जहल’ अपने भाई ‘हारिस’ के साथ मदीना पहुँच गया। ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु उनके चचेरे भाई थे और तीनों की मां एक थी। ‘अबू जहल’ और ‘हारिस’ ने कहा कि “तुम्हारे बाद माँ की बुरी हालत हो रही है। उसने कसम खा ली है कि अपने बेटे का मुँह देखने तक न सर में कंघी करुँगी न छाँव में बैठूंगी। इसलिए भाई तुम चलो और माँ को तसल्ली दे कर आ जाना।”
हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा “ये तो मुझे धोखा लगता है। तुम्हारी माँ के सर में जब जू पड़ेंगी तो वो खुद ही कंघी कर लेगी और मक्का की धूप ने ज़रा ख़बर ली तो वो खुद ही छांव में जा बैठेगी। मेरी राय तो ये है कि तुमको जाना नहीं चाहिए।” हज़रत ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु बोले “नहीं! मैं वालिदा की क़सम पूरी कर के वापस आ जाऊँगा।”
हजरत ‘उमर फारूक़’ रज़िअल्लाह अन्हु ने फ़रमाया “अच्छा अगर यही राय है तो सवारी के लिए मेरी सवारी ले जाओ। यह बहुत तेज़ रफ़्तार है। अगर रास्ते में ज़रा भी इनसे शक गुज़रे तो तुम इस ऊँटनी पर आसानी से उनकी गिरफ़्त से बचकर आ सकते हो।”
हजरत ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ऊँटनी ले ली। ये तीनों चल पड़े। एक दिन ‘मक्का’ के क़रीब ‘अबू जहल’ ने कहा “भाई हमारा ऊँट तो चलते-चलते ज़रा थक गया है। क्या तुम मुझे अपने साथ सवार कर सकते हो।” ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु बोले “ठीक है! बेहतर है! जब ‘अयाश’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ऊँटनी पर बिठाया तो दोनों ने उन्हें पकड़ लिया। लगाम कस ली और ‘मक्का’ में इस तरह दाख़िल हुए के ये दोनों बड़े घमंड से कहते थे कि “देखो बेवकूफ़ और बुद्धू को इसी तरह सजा देनी चाहिए।” अब ‘अय्याश’ रज़िअल्लाह अन्हु को भी ‘हिशाम बिन आस’ रज़िअल्लाह अन्हु के साथ क़ैद कर दिया गया। जब नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीना पहुँच गए तब हुजूर की तमन्ना पूरी करने के लिए ‘वलीद बिन मुग़ीरा’ रज़िअल्लाह अन्हु मक्का आए और क़ैद खाने से दोनों को रातों-रात निकाल कर ले गए।
मुसलमानों के विस्थापन के खिलाफ कुरैश का षड्यंत्र
क़ुरैश ने देखा कि मुस्लमान एक-एक करके ‘मक्का’ छोड़ कर जा रहे हैं और ‘मदीना’ जा कर ताक़तवर होते जा रहे हैं। इस सवाल पर एक बैठक बुलाई गयी। इस बैठक का स्थान दारुल नदवा था जो दारुल शूरा (संसद) भी थी। आये हुए सभी सरदार अलग-अलग राय पेश कर रहे थे। किसी ने कहा ‘मुहम्मद मुस्तफ़ा’ (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हाथ-पाँव बाँध कर मकान में बंद कर दो। दूसरे ने कहा मेरे हिसाब से देश निकाला दे देना चाहिए। अबू जहल ने कहा कि हर क़बीले से एक-एक आदमी का चयन किया जाये और ये सब एक साथ मिलकर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का ख़ात्मा कर दें। इससे ये होगा कि मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़त्ल का इलज़ाम किसी एक क़बीले पर नहीं आएगा और हाशिम ख़ानदान सभी क़बीलों से एक साथ नहीं लड़ सकते। ‘अबू जहल’ की राय का स्वागत किया गया और उसी पर अमल करने को तैयार हो गए। सभी लोगों ने तुरंत हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घर का घेराव कर लिया। अरब के लोग किसी के घर में बग़ैर इजाज़त घुसना बहुत बड़ा पाप समझते थे इसीलिए बाहर ही रुक कर इंतज़ार करने लगे।
कमाल की बात यहाँ ये है कि ‘क़ुरैश’ हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कितनी ही नफ़रत करते थे फिर भी हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ईमानदारी पर इतना भरोसा था कि अपना सामान हुज़ूर के पास अमानत के लिए रख देते थे। इस मौके़ पर भी हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास बहुत से लोगों की अमानतें मौजूद थीं। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ‘क़ुरैश’ के इरादे से पहले आगाह थे पर अमानतें भी लौटानी थी। इसी वजह से आपने अपनी जगह हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु को लिटा दिया और उनसे कहा कि “मुझ को हिजरत का हुक्म हो चुका है। मैं आज रात मदीने रवाना हो जाऊँगा। तुम मेरे बिस्तर पर मेरी चादर ओढ़ कर सो जाओ। सुबह सबकी अमानतें वापस कर आना।” ‘हज़रत’अली’ रज़िअल्लाह अन्हु को नबी की बात पर इतना भरोसा था कि उन तलवारों के साये में भी बे-फ़िक्री की नींद सो गये। वहीं हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) घर से बहार निकले तो अल्लाह पाक ने सबकी आँखों से हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)को छुपा दिया। हुज़ूर सूरहः यासीन पढ़ते और ख़ाक उड़ाते हुए वहाँ से निकल कर चले गए। ये घटना 27 सफ़र,13 वें नबवी साल यानी 12 सितम्बर 621 ई० की है।
इस हिजरत की रात से दो-तीन दिन पहले हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दोपहर के वक़्त ‘अबू बक्र सिद्दीक’ रज़िअल्लाह अन्हु से मिलने उनके घर गए। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दरवाज़े पर दस्तक दी। अंदर आने के बाद हुजूर ने फरमाया ‘मुझको हिजरत की इजाज़त दे दी गयी है।’ हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने बड़े चाव से कहा “मेरे माँ-बाप आप पर क़ुरबान। क्या मुझे आपके साथ का सौभाग्य मिला है ?” प्यारे नबी मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा “हाँ!” हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने लगभग चार महीने पहले से ही दो ऊँटनियाँ बबूल की पत्तियाँ खिला कर तैयार कर रखी थी। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने हुज़ूर से कहा “आक़ा आप अपने लिए पसंद कर लीजिये।”अल्लाह के नबी को किसी का एहसान अच्छा नहीं लगता था इसीलिए कहा “ठीक है लेकिन इसकी क़ीमत के साथ।” ‘हज़रत अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास बात मानने के सिवा और कोई चारा नहीं था। हज़रत’आइशा’ रज़िअल्लाह अन्हा उस वक़्त छोटी थी। उनकी बड़ी बहन हज़रत ‘अस्मा’ रज़िअल्लाह अन्हा ने सफ़र का सामान तैयार करके दिया। दो तीन दिन का खाना एक थैले में रखा और निताक़ (अरबी में औरतों के कमर से बांधने वाले कपड़े को कहते हैं) फाड़ कर उससे थेले का मुँह बाँधा। इसी बिना पर उनको ‘ज़ातुल निताक़ऐन’ की उपाधि हासिल है।
रात के अँधेरे में शहर से निकलते हुए हुज़ूर ने काबे को नज़र भर के देखा और कहा ‘मक्का’! तू मुझको तमाम दुनिया से ज़्यादा प्यारा है। लेकिन तेरे लोग मुझे रहने नहीं देते। दोनों लोग रात में ‘मक्का’को छोड़ कर चले आये। चार-पांच मील की दूरी पर एक पहाड़ ‘सोर’ है। उस पहाड़ की चढ़ाई बहुत मुश्किल है। रास्ता नुकीले पत्थरों से भरा पड़ा है। वो नुकीले पत्थर हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के मख़मली पैरों को ज़ख़्मी कर रहे थे और मुस्लसल ठोकर लगे जा रही थी़। अबू बक्र ने हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपनी पीठ पर उठा कर गुफा तक पहुंचे। गुफा के बाहर अपने जान से प्यारे दोस्त को बाहर ही रुकने का कहा और खुद अंदर जा कर जगह को साफ़ किया। अपने कुर्ते को फाड़ कर अंदर के सभी सुराखों और गड्ढों को भर दिया। फिर हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा कि आ जाइये।
जब सुबह हुई तो हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु जागे। ‘क़ुरैश’ ने क़रीब जाकर देखा तो पता चला यहाँ तो ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु हैं। पूछा ‘मुहम्मद’ मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कहाँ हैं ? हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने जवाब दिया मुझे क्या ख़बर? क्या मैं पहरा दे रहा था? तुम लोगों ने उन्हें निकल जाने दिया और वो चले गए। लोगों ने अपनी हार का ग़ुस्सा हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु पर बरसा दिया और उन्होंने हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु को मारना शुरू कर दिया। वो गुस्ताख़ लोग हज़रत अली को घसीट कर ‘काबा’ ले आये कुछ देर वहाँ रखा फिर छोड़ दिया।
हज़रत ‘अस्मा’ रज़िअल्लाह अन्हा कहती हैं कि जाने से पहले मेरे पिता हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु सारे नक़द रुपए जोकि लगभग 5-6 हज़ार थे, ले गए। जब मेरे दादा ‘अबू क़ुहाफ़ा’ ने कहा कि बेटी मेरी नज़र में तुम्हारे बाप ने तुम्हें दोहरी तकलीफ़ दी है। एक तो वो खुद चला गया और अपने साथ सारा माल भी ले गया। हज़रत ‘अस्मा’ रज़िअल्लाह अन्हा ने कहा दादा जान! वो हमारे काफ़ी रुपए छोड़ के गए हैं। ये कहकर कुछ कंकर एक कपड़े में लपेटकर उस घड़े में डाल दिये जिसमें माल रखा करते थे।अब क्योंकि ‘अबू कुहाफ़ा’ देख नहीं सकते थे।’अस्मा’ रज़िअल्लाह अन्हा ने उनका हाथ पकड़ के घड़े में पड़े कंकरो को छुआ दिया। बूढ़े ‘अबू कुहाफ़ा’ ने उसे टटोला और सोना समझ कर कहा कि चलो जब पैसा है तो ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु के जाने का कोई ग़म नहीं। ये ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने अच्छा किया और मैं समझता हूँ तुम्हारे लिए बड़े फायदेमंद इंतज़ाम है।
हज़रत ‘अस्मा’ रज़िअल्लाह अन्हा कहती हैं ये सब मैंने बस दादा की संतुष्टि के लिए किया था वरना बाबा तो सारा माल साथ ले गए थे। तीन दिनों तक ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हा और हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसी गुफ़ा में छिपे रहे। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु के बेटे ‘अब्दुल्लाह’ रज़िअल्लाह अन्हु जो नौजवान थे रात को साथ ही सोते और सुबह सवेरे वापस शहर चले जाते। वहाँ से खबरें इकठ्ठा करते कि ‘क़ुरैश’ में किस तरह की बातें हो रही हैं। जितनी मालूमात ला पाते शाम को हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बता देते। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु का ग़ुलाम बकरियाँ चरा कर ले आता। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु उनका दूध पी लेते थे। तीन दिन तक बस यही भोजन था।
‘क़ुरैश’ लगातार हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु की तलाश में जुटे हुए थे। एक रोज़ निशानों का पीछा करते-करते ‘क़ुरैश’ लगभग गुफ़ा तक आ पहुँचे थे।’क़ुरैश’ के लोगों को आता देख ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु घबरा गए और हुज़ूरअकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा अब दुश्मन इस क़दर क़रीब आ गया है कि हमें पकड़ लेगा। दोनों जहान के बादशाह ने फ़रमाया (ला तहज़न इन्नल लाहा मअना) अर्थात घबराओ नहीं अल्लाह हमारे साथ है। हुआ यूँ कि ‘क़ुरैश’ गुफ़ा नहीं ढूँढ पाए और खाली हाथ लौट गए।
चौथे दिन यह दोनों गुफ़ा से निकले और एक ग़ैर मुस्लिम शख्स जिसका नाम ‘अब्दुल्लाह बिन उरैक़त’ था जिसपर भरोसा किया जा सकता था। उसे मजदूरी देकर अपने गाइड के तौर पर काम पर रख लिया। वो दोनों को रास्ता दिखाता। धुप सख्त होने की कारण दोपहर में आराम किया। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने सोचा कि उनके प्यारे दोस्त छाँव में आराम कर लें। चारों तरफ़ नज़र घुमाई तो एक चट्टान के पास छांव नज़र आयी। ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु अपनी सवारी से उतरे और ज़मीन को झाड़ कर साफ़ किया। फिर अपनी चादर बिछा दी। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वहाँ आराम करने के लिए लेट गए। हुज़ूर आराम करते इतने मे ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु कुछ खाने की तलाश में निकल गए। पास में एक चरवाहा बकरी चराता दिख गया। ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने चरवाहे से दूध के लिए निवेदन किया। एक बकरी के थन साफ़ करके दूध निकाला और बर्तन को कपड़े से ढ़क कर ले आये। दूध लेकर हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास पहुँचे और उसमें थोड़ा पानी मिलाकर पेश किया। हुज़ूर ने पूछा “क्या चलने का वक़्त हो गया”? सूरज ढ़लने लगा था इसलिए यह तीनों लोग फिर से सफ़र पर रवाना हो गए।