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जंग ख़त्म होने पर पता चला कि मुस्लमानो की तरफ़ से केवल चौदह(14) लोग शहीद हुए हैं। इसमें छः मुहाजिर और बाकी आठ अंसार थे। लेकिन दूसरी तरफ़ सिपाही और सरदार धराशाही हो चुके थे। इनमें उतबा, शैबा, अबू जहल, अबुल बख़्तरी, ज़मआ बिन अस्वद, आस बिन हिशाम, उमय्या बिन ख़लफ़ क़ुरैश के सरों के ताज थे। क़रीब सत्तर (70) लोग मारे गए थे और उतने ही गिरफ़्तार किये गए थे। जंग के क़ैदियों में से ‘उक़्बा’ और ‘नज़र’ को रिहा कर दिया गया था और बाक़ियों को मदीने ले आया गया।
हुज़ूर का तरीक़ा था कि किसी जंग में अगर कोई लाश दिखती तो उसे वही दफ़्ना देते थे। लेकिन यहाँ पर ज़्यादा लाशें थीं इसीलिए सबको एक साथ दफ़नाना था। युद्ध भूमि में बड़ा खाली कुआ था। आपने सभी लाशों को वही दबा देने का हुक्म दिया। ‘उमय्या’ की लाश काफ़ी बुरी हालत में हो गयी थी इसीलिए उसे अलग कब्र में दफ़नाया।
जंग के क़ैदियों के साथ बर्ताव
जब क़ैदी मदीने पहुँचे तो हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दो-दो चार-चार क़ैदी सभी सहाबा में बाँट दिए। हुज़ूर ने इरशाद फ़रमाया कि क़ैद में आराम से रखा जाये। सहाबा ने उनके साथ ये बर्ताव किया कि खुद खजूरें खाते और उन्हें रोटियाँ खाने को देते। इन्हीं क़ैदियों में ‘अबू अज़ीज़’ भी थे जो हज़रत ‘मुसअब’ रज़िअल्लाह अन्हु के भाई थे। उनका कहना है कि मैं जिनके यहाँ क़ैदी था वो खुद खजूरें उठा लेते और मुझे रोटी खाने को देते। मुझे शर्म आती तो मैं उन्हें लौटा देता। लेकिन वो हरगिज़ उसे हाथ न लगाते और मुझे ही खानी पड़ती। ये सारा सलूक इस वजह से था कि हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कह दिया था कि क़ैदियों से अच्छा बर्ताव करना।
क़ैदियों में एक शख्स ‘सुहैल बिन अम्र’ था जो बहुत ज़्यादा विद्वान था। भाषा पर अच्छी पकड़ थी। बड़े-बड़े मजमों में हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के खिलाफ़ तक़रीर किया करता था। हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने हुज़ूर से कहा कि इसके नीचे के दो दांत उखड़वा दीजिये ताकी अगली बार से बोल ही न पाए। हुज़ूर ने फ़रमाया अगर मैं इसके शरीर को बिगाड़ूँगा तो भले ही मैं नबी हूँ लेकिन अल्लाह इसके बदले में मेरे जिस्म को बिगड़ देगा। क़ैदियों के पास पहनने के कपडे़ नहीं थे। हुज़ूर ने उन्हें कपडे़ दिलाये। लेकिन हज़रत ‘अब्बास’ का कद्द इतना लम्बा था कि किसी का कुरता उन्हें नहीं आता था। तब अब्दुल्लाह बिन उबई ने अपना कुर्ता दिया जो हज़रत ‘अब्बास’ के कद्द का ही था। लेकिन अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ (पाखंडी मुसलमान) था। इसीलिए जब वो मरा तो हुज़ूर ने उसके कफ़्न के लिए कुर्ता दिया वो इसी एहसान का बदला था।
जंग के क़ैदियों की आज़ादी की क़ीमत चार हज़ार दिरहम रखी गयी। लेकिन कुछ लोग जो बिलकुल ग़रीब थे उन्हें यूँही आज़ाद कर दिया गया। क़ैदियों में से जो लिखना-पढ़ना जानते थे उन्हें हुक्म दिया कि दस-दस बच्चों को लिखना-पढ़ना सीखा कर आज़ाद हो जाएं। ‘ज़ैद बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु एक सहाबा हैं। उन्होंने इसी तरह लिखना सीखा था। अंसार ने हुज़ूर से अर्ज़ किया कि हज़रत’अब्बास’ हमारे भाँजे हैं इसीलिए हम उनका फिदिया (आज़ाद होने की क़ीमत) माफ़ करते हैं। लेकिन हुज़ूर ने समानता क़ायम करने के लिए इंकार कर दिया और उनसे भी फिदिया लिया गया। हालाँकि फ़िदिये की आम रक़म चार हज़ार दिरहम थी लेकिन अमीर सरदारों से ज़्यादा ली गई। इसी बिना पर हज़रत ‘अब्बास’ को भी ज़्यादा रक़म अदा करनी पड़ी। हज़रत’अब्बास’ ने हुज़ूर से शिकायत भी कि रिश्तेदार होकर ये सलूक। लेकिन ‘अब्बास’ को अब तक खबर नहीं थी कि इस्लाम के क़ानून में हर कोई बराबर है वो चाहे बड़ा हो या छोटा, सरदार हो या ग़ुलाम।
लेकिन दूसरी तरफ़ हुज़ूर को मुहब्बत भी इतनी थी कि जब हज़रत अब्बास रस्सी सख्त बांधने की वजह से तकलीफ़ में थे तो हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी सारी रात परेशान रहे। जब उनकी रस्सी ढीली कर दी गयी तब जाकर कायनात के सरदार को सुकून मिला।
हज़रत अबुल आस रज़िअल्लाह अन्हु का मुस्लिम होना
अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु हुज़ूर के दामाद थे। आपकी बेटी हज़रत ‘ज़ैनब’ रज़िअल्लाह अन्हा के साथ इनका निकाह हुआ था। अबदुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु भी जंग के क़ैदियों में से थे। उनके पास फ़िदिये की रक़म न थी। इसीलिए हुज़ूर ने अपनी बेटी को पैग़ाम भिजवाया कि फ़िदिये की रक़म भेज दें। जब हज़रत ‘ज़ैनब’ रज़िअल्लाह अन्हा का निकाह हुआ था तो हज़रत ‘खदीजा’ रज़िअल्लाह अन्हा ने तोहफे़ में उनको एक क़ीमती हार दिया था। हज़रत ‘ज़ैनब’ रज़िअल्लाह अन्हा ने वही हार गले से उतार कर भिजवा दिया। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जैसे ही वो हार देखा तो 25 बरस पहले का वो मोहब्बत भरा वाक़िया याद आ गया।
हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आँखें भर आयीं। हुज़ूर ने सहाबा से कहा कि तुम्हारी मर्ज़ी हो तो बेटी को माँ की यादगार वापस कर दो। सहाबा ने ख़ुशी के साथ ये हार वापस करा दिया। अब्दुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु रिहा हो कर ‘मक्का’ वापस आये तो हज़रत ‘ज़ैनब’ रज़िअल्लाह अन्हा को मदीना भेज दिया। अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु बहुत बड़े व्यापारी थे। कुछ सालों बाद ये सीरिया कारोबार के सिलसिले से गए। वापसी में मदीना की सीमा में आ गए थे कि मुस्लिम फ़ौज की एक टुकड़ी ने इन्हें पकड़ लिया। इनका सारा सामान सहाबा में बाँट लिया गया। लेकीन अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु किसी तरह बच निकले और अपनी बीवी हज़रत ‘ज़ैनब’ रज़िअल्लाह अन्हा के पास पनाह ली।
हुज़ूर ने लोगों से फिर दरख्वास्त की कि अगर चाहो तो अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु का व्यापारिक सामान वापस कर दो। सहाबा ने हुज़ूर की मर्ज़ी में ही अपनी मर्ज़ी मिला दी और माल वापस कर दिया। एक-एक धागा तक सिपाहियों ने वापस लौटा दिया। ये बर्ताव ऐसा था कि अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु के दिल पर काफ़ी असर हुआ। अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु वापस मक्का आये और सभी हिस्सेदारों का हिसाब कर के मुस्लिम हो गए। अबुल ‘आस’ रज़िअल्लाह अन्हु ने लोगों से कहा कि मैंने आकर हिसाब इसीलिए किया है ताकि तुम ये न कहो कि हमारा पैसा खा गया और हिसाब देने के डर से मुस्लमान हो गया।