कुछ शहीदों का हाल
हज़रत ‘ज़ैद बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु फ़रमाते हैं मुझे नबी पाक सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने ‘सआद बिन अल रबीअ’ रज़िअल्लाह अन्हु को देखने के लिये भेजा और मुझसे फ़रमाया कि अगर वो तुमको मिल जायें तो उनको मेरा सलाम कहना और कहना कि रसूल (सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम) पूछते हैं ‘ तुम अपने को किस हाल में पाते हो?’ ‘ज़ैद बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु कहते हैं कि मैं लाशों को देखता फिरता था कि मेरी नज़र ‘सआद बिन अल रबीअ’ रज़िअल्लाह अन्हु पर पड़ी उनकी आखरी सांसें चल रही थी। दम निकलने को था। उनके जिस्म मुबारक पर नेज़ों और तलवारों के सत्तर(70) ज़ख़्म थे। मैंने कहा “रसूल अल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आपको सलाम कहते हैं और फ़रमाते हैं तुम किस हाल में हो?” उन्होंने जवाब दिया “आप हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को मेरा सलाम कहना और कहना कि मुझे जन्नत की खुश्बू आ रही है। और मेरी क़ौम अंसार को मेरा पैग़ाम देना कि जब तक एक झपकने वाली आँख भी तुममें से बाक़ी है उस वक़्त तक अगर दुश्मन नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तक पहुँच गया तो तुम अल्लाह के हुज़ूर कोई बहाना न पेश कर सकोगे” और ये कह कर उनकी रुह जिस्म की क़ैद से आज़ाद हो गयी।
शहीदों में देखा गया तो ‘अम्र बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु की भी लाश थी उनका लक़्ब असीरम है। ये क़बीला अब्दुल शहल से तआल्लुक रखते थे। ओहद की लड़ाई से पहले उनको इस्लाम से हमेशा इंकार रहा। ओहद के दिन अचानक उनके दिल में इस्लाम का जज़्बा पैदा हुआ। आंहज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और सहाबा किराम तशरीफ़ ले जा चुके थे। ये मुस्लमान हुए हाथ में तलवार ली और जंग में शामिल हो गये। किसी को इसकी ख़बर तक नहीं हुई। जब मैदान साफ़ हुआ और ‘बनी अब्दुल शहल’ अपने क़बीले के शहीदों को तलाश करते फिर रहे थे तो उनकी नज़र ‘असीरम’ रज़िअल्लाह अन्हु पर पड़ी जिनमें अभी कुछ सांसें बाकी थीं। उन्होंने देखा कि ये तो ‘असीरम’ रज़िअल्लाह अन्हु मालूम होते हैं। ये यहाँ कहाँ? ये तो इस्लाम के मुनकिर थे। फिर उन्होंने इनसे पूछा कि तुम यहाँ कैसे आये? क्या क़ौम की हिमायत में या इस्लाम की मुहब्बत में? उन्होंने कहा मैं यहाँ इस्लाम की मुहब्बत में आया हूँ। मैं अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाया और मैंने हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ जिहाद में शिरकत की और इस सौभाग्य को पहुँचा। यह कह कर आप भी अल्लाह के हुज़ूर पहुँच गये। लोगों ने इसका ज़िक्र रसूल अल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से किया तो आपने फ़रमाया वो जन्नती हैं। हज़रत ‘अबू हुरैरा’ रज़िअल्लाह अन्हु कहते हैं कि ‘असीरम ‘रज़िअल्लाह अन्हु को एक वक़्त की भी नमाज़ पढ़ने की मौहलत नहीं मिली (इस्लाम लाने के बाद ही शहादत को पा लिया।)
इन्हीं शहीदों में हज़रत ‘जाबिर’ के वालिद हज़रत ‘अब्दुल्लाह बिन अम्र’ रज़िअल्लाह अन्हु भी शामिल हो चुके थे। उन्होंने ओहद से पहले हज़रत ‘मुबश्शीर बिन अब्दुल मंज़र’ रज़िअल्लाह अन्हु को (जो बदर की लड़ाई में शहीद हो चुके थे ) ख़्वाब में देखा। देखा कि हमारे पास चन्द ही दिन में आने वाले हो। उन्होंने कहा- ‘ तुम कहाँ हो ‘? ‘मुबश्शीर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- ‘जन्नत में, यहाँ हम आज़ादी के साथ चलते फिरते हैं।’ ‘अब्दुल्लाह’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा “तुम बदर की लड़ाई में शहीद नहीं हुए’? उन्होंने कहा “हाँ मैं बदर की लड़ाई में शहीद हुआ लेकिन मुझे फिर भी ज़िन्दा कर दिया गया।” हज़रत ‘अब्दुल्लाह’ रज़िअल्लाह अन्हु कहते हैं कि मैंने इसका ज़िक्र रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फरमाया “ ये शहादत का इशारा है। हज़रत ‘जाबिर’ रज़िअल्लाह अन्हु कहते हैं कि मेरे वालिद की लाश को हुज़ूर मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास लाया गया। दुश्मनों ने उनके जिस्म के टुकडे कर दिये थे। जब आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के सामने रखा गया तो मैं उनका मुँह खोलने के लिये आगे बढ़ा। लोगों ने मुझे मना किया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया कि फरिश्ते बराबर उनपर साया करते रहे हैं।
इन्हीं शहीदों में हज़रत ‘खसीमा’ रज़िअल्लाह अन्हु भी थे। उनके बेटे बदर की लडाई में शहीद हुए थे। उन्होंने हुज़ूर मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से अर्ज़ किया कि बदर की लड़ाई से भी रह गया। हांलाकि मुझे इसका बड़ा शौक़ था। लेकिन पर्चे में मेरे बेटे का नाम लिखा था और शहादत उसी को नसीब हुई। या रसूल अल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मैंने रात अपने बेटे को ख़्वाब में देखा बेहतरीन शक्ल ओ सूरत है। जन्न्त के मेवों और नहरों के दर्मियान चलता-फिरता है और मुझसे कहता है कि मुझसे आन मिलो, साथ रहेंगे। मेरे रब ने मुझसे जो कुछ वादा किया वो मैंने हक़ पाया। अल्लाह की क़सम या रसूल अल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अब मैं जन्नत में उसके कुर्ब का बहुत इच्छुक हूँ। मेरी उम्र भी बहुत हो गई। बुढ़ापे का ज़माना है। अब मुझे अपने रब की ही मुलाक़ात का शौक़ है। आप(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अल्लाह से दुआ फ़रमाईये कि जन्नत में रिफ़ाक़त नसीब फ़रमाये। आप सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम ने उनके हक़.में दुआ की और वो ओहद में शहीद हो गये।
इन्हीं शहीदों में ‘अब्दुल रहमान बिन हजश’ रज़िअल्लाह अन्हु भी थे। उन्होंने कहा था कि “ऐ अल्लाह! तुझको क़सम है कि कल मेरा दुश्मन से सामना हो वो मुझे क़त्ल करें फिर फाडें और नाक कान काटें। फिर तू मुझसे सवाल करे कि ये सब किस लिये हुआ? मैं कहूँ ये सब तेरी ख़ातिर।”
उन्हीं शहीदों में ‘अम्र बिन अल जमूह’ रज़िअल्लाह अन्हु भी थे। उनके पाँव में सख़्त लंगड़ापन था। उनके चार जवान बेटे थे। जब ओहद की जंग पेश आयी तो ‘अम्र बिन अल जमुह’ रज़िअल्लाह अन्हु ने भी मैदान में उतरने का ईरादा किया। बेटों ने कहा “अल्लाह ने आपको जिहाद से माफ़ी दी है। आप घर में रहें और हम लड़ने जायेंगे। वो रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम के हुज़ूर पेश हुए और अर्ज़ किया या रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मेरे बेटे मुझे जिहाद से रोकते हैं। पर मैं हसरत रखता हूँ कि मैं शहीद हूँ और अपने इस लंगडे पाँव से जन्नत में चलूँ। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया अल्लाह ने आपको जिहाद से रुखसत दी है और उनके बेटों से फरमाया कि “तुम्हें क्या ऐतराज़ है उनको जाने दो शायद अल्लाह उनको शहादत नसीब करे।”
एक और शहीदों में हज़रत ‘मुसअब बिन उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु का भी नाम शामिल है जिनके जिस्म पर ईमान लाने से पहले दो सौ रुपये से कम का लिबास नहीं होता था। वो सिर्फ़ एक कंबल छो़ड़ कर शहीद हुए थे। वो भी इतना छोटा था कि कफ़न देने में जब उनका सिर छुपाया जाता तो पाँव खुल जाते और जब पैरों को ढ़ाँपा जाता तो सिर खुल जाता था। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि कंबल से सिर छुपा दो और पैरों पर घांस डाल दो।
इसी जंग में नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के प्यारे चचा शेर ए खुदा हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु भी शहादत के मर्तबे को पहुँचे। दुश्मनों ने आपके जिस्म के भी टुकडे किये थे और लाश के साथ बेहुरमती भी की थी। ‘हिन्द’ ने फूलों का हार गले में डाला और आपके पेट को फाड़ करके कलेजा निकाल कर चबाना चाहा। लेकिन हजरत ‘हमजा’ रज़िअल्लाह अन्हु का कलेजा गले से न उतर सका इसलिये ‘हिन्दा ने हजरत ‘हमजा’ रज़िअल्लाह अन्हु का कलेजा उगल दिया।
हजरत सफिया रज़िअल्लाह अन्हा ( हज़रत हमज़ा की बहन) शिकस्त की ख़बर सुन कर मदीना से निकलीं। हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनके साहिब ज़ादे ‘ज़ुबैर रज़िअल्लाहु अन्हु को बुलाकर हुक्म दिया कि वो हज़रत हमज़ा की लाश न देख पाएं। हज़रत ज़ुबैर ने अपनी माँ को हुज़ूर का पैग़ाम दे दिया। ये सुनकर हज़रत सफिया ने कहा कि मैं सारा माजरा सुन चुकी हूँ। ये खुदा की राह में कोई बड़ी क़ुरबानी नहीं है। हुज़ूर ने इजाज़त दे दी। खुनी रिश्ते का वलवला था, प्यारे भाई की लाश ज़मीन पर बुरी तरह पड़ी थी फिर भी शोर नहीं मचाया। सिर्फ इन्ना लिल्लाहि वइन्ना इलाइहि राजिऊन ( हम सब खुदा की तरफ से आये हैं और वहीं लौट कर जाना है।) कहकर सबर किया।