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Toggleआपका जन्म दिन और संसार का सौभाग्य
पहली ही नजर से पता चल गया था कि आज ईश्वर सबसे महान आत्मा को धरती पर भेज रहा है। वो शख्सियत जो अंधविश्वास के घोर अधेरों को सत्य के कभी न खत्म होने वाले प्रकाश से खत्म कर देगी। जो इंसाफ़ का निज़ाम क़ायम करेगी ज़ुल्म व अत्याचार का नाम ओ निशान मिटा देगी जो शिक्षा से अशिक्षा को पराजित कर देगी। जो दुर्बल के लिये ताक़त बनेगी। जो पृथ्वी पर ईश्वर का कानून लागू करेगी और इसके लिये परम परमेश्वर ने अप्रैल की 20 तारीख़ दिन सोमवार सन 571 को चुना।
हज़रत “आमिना” के घर के आंगन में एक नन्हे मुन्ने बच्चे ने पहली किलकारी मारी। दाई “हलीमा” ने बच्चे की आवलनाल काटने के लिये उस्तरा निकाला और वह यह देख कर चकित रह गयी कि नाल तो कटी हुई है। उसने हज़रत “आमिना” की चादर सरकाई कि गंदगी को साफ़ कर दे, पर वह हैरान थी कि गंदगी नाम मात्र को भी न थी। यह उसके जीवन का सबसे अदभुत और हैरान कर देने वाला मंज़र था। ऐसा उसके जीवन में पहले कभी नहीं हुआ था मगर वो इस बात से भी इंकार नहीं कर सकती थी कि ऐसा इस बार हो चुका था।
लेकिन ये आकर्षक और करिश्माई मंज़र देखने के लिए बच्चे के पिता “अब्दुल्लाह” मौजूद न थे। कारोबार के सिलसिले में बाहर गये थे। उनके देहांत के दो महीने बाद ही अल्लाह की तरफ़ से उनके घर में ये पाकीज़ा बच्चा नयी ज़िन्दगी बन कर आया।
दादा “अब्दुल मुत्तलिब” को जब बच्चे की पैदाईश की सूचना दी गई और बताया गया कि आप “आमिना” के बेटे के दादा बन गये हैं तो “अब्दुल मुत्तलिब” फ़ौरन घर पहुँच गए। बच्चे को फ़ौरन काबे ले जाकर बच्चे के साथ काबे की परिक्रमा की और अल्लाह से दुआ मांगी। सातवें दिन क़ुरबानी करके क़ुरैश क़बीले के लोगों की दावत की। “अब्दुल मुत्तलिब” को अपने बेटे “अब्दुल्लाह” और अपने पौते से बहुत मोहब्बत थी। दावत खा कर लोगों ने पूछा कि आपने बच्चे का नाम क्या रखा? “अब्दुल मत्तलिब” ने जवाब में कहा “मुहम्मद।” यह नाम अरब में बिल्कुल नया नाम था। लोगों ने “अब्दुल मुत्तलिब” से पूछा भी कि अरब में इतने प्रचलित नाम होने के उपरान्त भी आपने बच्चे का नाम “मुहम्मद” क्यों रखा? तो अबु मुत्तलिब ने कहा कि “मैं चाहता हूँ इस नाम की प्रसंशा सम्पूर्ण पृथ्वी और समस्त ब्रह्मांड में हो।” “मुहम्मद” नाम का अर्थ ही है ‘जिस की अत्यन्त प्रशंसा की गई हो।
प्यारे नबी का मासूम बचपन
उस ज़माने के अरबों का दस्तूर था कि शहर के शरीफ़ और रईस घरानों के बच्चों को आस-पास के देहात और कस्बों में परवरिश के लिए भेज दिया जाता था। इस रिवाज का उद्देश्य बच्चों में कुशलता व अरबों की परंपरा में रचाना-बसाना था। कुछ दिनों के बाद क़बीला “होज़ान” की कुछ औरतें बच्चों की तलाश में आईं। इन सभी औरतों को अलग-अलग घरानों व ख़ानदान के बच्चों की परवरिश की ज़िम्मेदारी सौंप दी गई।
परंतु इनमें “हलीमा सादिया” भी थी। इत्तेफ़ाक़ से उन्हें किसी भी बच्चे की ज़िम्मेदारी नहीं मिली। जब “हज़रत आमिना” को पता चला तो उन्होंने चाहा कि उनके बच्चे की ज़िम्मेदारी “हलीमा” ले लें। “हलीमा” ने मन में सोचा कि अनाथ बच्चा लेकर क्या करुँगी। कुछ मजदूरी व दान दक्षिणा तो मिलेगी नहीं लेकिन खाली हाथ भी नहीं जा सकती थी। इसीलिए उन्होंने हज़रत “आमिना” के निवेदन को स्वीकार लिया और दुनिया के सरताज पैगंबर मुहम्मद मुस्ताफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपने लेकर अपने साथ आ गयीं।
जिंदगी के शुरुआती दो बरस “हलीमा सादिया” ने हुज़ूर की परवरिश की। पैगंबर मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का “हलीमा सादिया” के घर आना शुभ साबित हुआ। इस दौरान “हलीमा सादिया” के घर में खूब ख़ुशहाली रही। दो साल के बाद “हलीमा सादिया” हुज़ूर को हज़रत “आमिना” के सुपुर्द करने के लिए “मक्का” ले आई। लेकिन उस समय महामारी फैली हुई थी जिसके कारण “हलीमा सादिया” को हुज़ूर के साथ वापस जाना पड़ा।
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को “हलीमा सादिया” से बेइंतहा मोहब्बत हो गयी। “हलीमा सादिया’ ने आपको बिल्कुल माँ की तरह से पाला था। “हलीमा” व उनके पति “हारिस बिन अब्दुल उज़्ज़ा”अपने सगे बेटों और हुजूर में ज़रा भी फर्क नहीं करते थे। पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)अपने दूध भाईयों के साथ बकरी चराने जाया करते थे। बकरी चराना उस समय कोई छोटा काम नहीं समझा जाता था। बल्कि अक्सर लोग अपने मनोरंजन और वक़्त गुज़ारने के लिए जानवर चराया करते थे।
छः साल की उम्र में हुज़ूर अपनी माँ हज़रत “आमिना” के पास आ गए। इसी दौरान हुज़ूर का अपनी माँ के साथ मदीने की तरफ़ सफ़र हुआ। इस यात्रा में हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत “आमिना” और एक दासी “उम्मे ऐमन” साथ में थे। इस सफ़र पर जाने का उद्देश्य हुज़ूर के पिता की कब्र पर होकर आना था। हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दादा का ननिहाल ख़ानदान ‘निजार’ भी मदीने में ही था इसलिए यह लोग वहीं ठहरे। एक महीने तक मदीने में निवास करने के बाद यह लोग वापस “मक्का” वापस लौटे। “मक्का” और “मदीना” के बीच एक ‘अबवा’ नाम के स्थान पर रात को पड़ाव डाला। अभी रात पूरी तरह गुज़री न थी कि हज़रत “आमिना’ का अंतिम समय आ गया। सर्वशक्तिमान अल्लाह को अपने सबसे प्रिय बन्दे को इस आज़माइश में डालना था। छः साल के मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का चेहरा आंसुओं से तर था। किसी भी स्थिति में आप अपनी मां का साथ नहीं छोड़ना चाहते थे। आपकी माँ ही आपके पिता-भाई-बहन दोस्त सब थीं। ये हादसा होना था और हो गया। छः बरस के मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) रोते बिलखते रह गए और उनकी माँ इस दुनिया में उन्हें अकेला छोड़ कर रुख़सत हो गयीं। “उम्मे ऐमन” मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)को वापस मक्का लेकर आ गयीं।
प्यारी माँ के देहांत के बाद दादा “अब्दुल मुत्तलिब” ने हुज़ूर के लालन पालन की ज़िम्मेदारी ली। “अब्दुल मुत्तलिब” हमेशा हुज़ूर को अपने साथ रखते थे। दादा की मोहब्बत का साथ भी दो साल में ख़त्म हो गया। बयासी(82)साल की ज़िदगी पूरी करके “अब्दुल मुत्तलिब” भी इस मिट जाने वाली दुनिया को छोड़ गए। इस वक़्त हुज़ूर की उम्र आठ साल थी। जब “अब्दुल मुत्तलिब” का जनाज़ा उठा तो हुज़ूर साथ थे और दादा की मोहब्बत में रोते थे।
“अब्दुल मुत्तलिब” ने अपनी मौत से पहले ही अपने बेटे “अबू तालिब” को हुज़ूर “मुहम्मद”मुस्तफ़ा की ज़िम्मेदारी सौंप दी थी।”अबू तालिब” का दिल अपने भतीजे के लिए मोहब्बत और दया से भरा हुआ था। “अबू तालिब” अपने सगे बेटों से भी बढ़ कर हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अहमियत देते थे। कहीं भी जाते तो हुज़ूर को साथ ले कर जाते। सोते तो हुज़ूर को पास सुलाते। “अबू तालिब” पेशे से एक व्यापारी थी।”क़ुरैश” क़बीले के लोगो का दस्तूर था कि व्यापर के लिए साल में एक बार मुल्क शाम (सीरिया) जाया करते थे। हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की उम्र बारह साल की रही होगी कि “अबू तालिब” को मुल्क “शाम” व्यापार के लिए जाना पड़ा। अपार प्रेम के बावजूद सफ़र की मुश्किलों को ध्यान में रखते हुए “अबू तालिब” “मुहम्मद” मुस्तफ़ा को(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने साथ नहीं ले जाना चाहते थे। लेकिन दूसरी तरफ़ हुज़ूर को भी “अबू तालिब” से बहुत लगाव था। इसीलिए जब “अबू तालिब” चले तो हुज़ूर “मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ‘अबू तालिब’ से लिपट गए और साथ जाने की ज़िद्द पर अड़ गए। “अबू तालिब” भतीजे का दिल नहीं तोड़ना चाहते थे इसीलिए हिम्मत करके उन्हें भी अपने साथ ले लिए।