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Toggleक़ुरैश द्वारा हाशिम ख़ानदान का घेराव
“मक्का” के काफ़िर देखते थे कि उनकी लाख कोशिशों के बावजूद इस्लाम हर दिन बढ़ता जा रहा था “उमर” रज़िअल्लाह अन्हु और “हमज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु जैसे लोग भी मुस्लमान हो चुके थे। “हबश” के बादशाह ने मुस्लमानों को पनाह दी थी। मुस्लमानों की संख्या थोड़ी-थोड़ी हर दिन बढ़ती जा रही थी। इसलिए अब यह योजना बनाई गई कि हुजूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उनके ख़ानदान का घेराव करके तबाह कर दिया जाए। इसके नतीजे में सभी क़बीलों ने एक समझौता तैयार किया कि कोई भी व्यक्ति “बनू हाशिम” ख़ानदान से किसी तरह का कोई व्यापारिक या व्यावहारिक लेन-देन नहीं करेगा। न ही उन तक खाने- पीने का सामान जाने देगा जब तक कि वो लोग हुजूर को हवाले न कर दें। यह समझौता तैयार करके काबे के दरवाजे पर लगा दिया गया।
इन हालातों से मजबूर होकर “अबू तालिब” अपने पूरे ख़ानदान के साथ “शेब ए अबू तालिब’ में चले गए। यह पर्वत “अबू क़ुबाइस” और पर्वत “अब्याद” के बीच की घाटी थी। तीन साल बनू हाशिम ख़ानदान ने ऐसे घेराव में अपनी जिंदगी गुज़ारी। यह ज़माना इतनी मुश्किलों से भरा था कि पेड़ों के पत्ते खा खाकर लोग ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। हदीस की किताबों में सहाबा ज़िक्र करते हैं कि वह तन्हा पेड़ की पत्तियां खा-खा कर गुज़ारा करते थे। उसी वक्त की एक घटना है कि हज़रत “साद बिन अबी वकास” रज़िअल्लार अन्हु को एक रात सूखा हुआ चमड़ा मिल गया। उन्होंने उसे पानी से धोया फिर आग पर भूना और पानी के साथ खाया।
हज़रत “साद” रज़िअल्लाह अन्हु के बेटे बताते हैं कि बच्चे जब भूख से रोते थे तो बाहर आवाज़ आती थी और क़ुरैश सुन सुनकर खुश होते थे। लेकिन उनमें से कुछ रहम दिल लोगों को तरस भी आता था। एक दिन”हकीम बिन हजाम” जो हज़रत “ख़दीजा” रज़िअल्लाह अन्हा के भतीजे थे। थोड़े से गेहूँ अपने गुलाम के हाथ हज़रत “ख़दीजा” रज़िअल्लाह अन्हा के पास भिजवा दिए। रास्ते में “अबू जहल” ने यह सब देख लिया तो उससे छीनना चाहा। रास्ते में “अबु बुख़्तारी” ने “अबू जहल” को देख लिया। “अबु बुख़्तारी भले ही काफ़िर था पर उसको रहम आ गया और कहा “एक आदमी अपनी फूफी को कुछ खाने के लिए भेजता है तो क्यों रोकते हो?”
लगातार तीन साल तक हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और तमाम आले “हाशिम” ने यह मुसीबतें झेलीं और अंततः दुश्मनों को रहम आ ही गया। खुद उन्हीं की तरफ़ से इस मुहाईदे को तोड़ने की क्रांति शुरू हुई। “हश्शाम मख़ज़ूमी” खानदान बनी ‘हाशिम” के क़रीबी रिश्तेदार हुआ करते थे। चोरी छुपे बनू “हाशिम” को खाना-पीना भेजते रहते थे। एक दिन वह ज़ूबैर के पास गए जो “अब्दुल मुत्तालिब” के नवासे थे। और कहा “क्यों ज़ुबैर तुम को यह पसंद है कि तुम खाओ-पियो, हर तरह का आराम हासिल करो और तुम्हारे ननिहाल वालों को एक दाना तक नसीब ना हो।” ज़ुबैर ने कहा- “क्या करुँ मैं तो अकेला हूँ एक शख्स भी मेरा साथ दे। तो मैं इस ज़ुल्म से भरे समझौते को फाड़ कर फेंक दूँ।”
हश्शाम ने कहा, “मैं मौजूद हूँ दोनों मिलकर “मुतईम बिन अदि” के पास गए। बख़्तारी बिन हश्शाम “ज़मआ बिन आलासूद” ने भी साथ दिया। दूसरे दिन सब मिलकर हरम गए। ज़ुबैर ने सब लोगों को अपनी तरफ बुलाते हुए कहा- “ऐ मक्का के लोगों, क्या यह इंसाफ़ है? हम लोग आराम से ज़िदगी गुज़ारें और “हाशिम” ख़ानदान को खाना भी नसीब न हो। अल्लाह की क़सम जब तक यह जुल्म वाला संधि पत्र फाड़ कर न फेंक दिया जायेगा मैं पीछे नहीं हटूँगा। अबू जहल बराबर से बोला- “कदापि इस संधि पत्र को कोई हाथ नहीं लगा सकता। “ज़मआ” ने कहा तू झूठ कहता है जब यह संधि पत्र लिखा गया था उस समय भी हम इसके समर्थन में नहीं थे। इधर हुजूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अल्लाह ताला ने ख़्वाब के ज़रिए से खुशख़बरी दे दी थी। हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने “अबू तालिब” को बताया कि समझौते के कागज़ को दीमक खा गई है। वास्तव में हुआ भी यही कि जब मक्का के कुरैश ने समझौते का काग़ज़ उठाया तो उस पर केवल “शुरू अल्लाह के नाम से” लिखा हुआ था।
अबू बक्र रज़िअल्लाह अन्हु की दुखद घटना
काफ़िरों के ज़ुल्मो-सित्म अब केवल कमज़ोर और असहाय लोगों तक ही सीमित न थे। हज़रत “अबू बक्र रज़िअल्लाह अन्हु का क़बीला बहुत इज़्ज़तदार और ताक़तवर कबीला था। उनके यार मददगार भी कम न थे फिर भी वह काफ़िरों के जुल्म से तंग आ गए और आख़िरकार हब्श की तरफ विस्थापित होने का इरादा किया। बरकुल गिमाद एक जगह है जो मक्का से पांच दिन की दूरी पर है। अबू बक्र वहां पहुँचने ही वाले थे कि “इब्ने दुग़ना” से मुलाक़ात हो गई जो क़बीला “कारह” का सरदार था। उसने पूछा- “किस राह पर हो? हज़रत”अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- “मेरी क़ौम मुझको रहने नहीं देती। चाहता हूँ कि कहीं अलग जाकर अल्लाह की इबादत करुँ।
“इब्ने दुग़ना” ने कहा- “यह नहीं हो सकता कि तुम जैसा शख्स मक्का शहर से निकल जाए। मैं तुमको अपनी हिफ़ाज़त में रख लूँगा। तो हज़रत”अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु उनके साथ वापस आ गए। “इब्ने दुग़ना” मक्का पहुँचकर समस्त सरदारों से मिला और कहा- ” तुम ऐसे शख्स को निकालते हो जो मेहमान नवाज़ी करता है। ग़रीबों का मददगार है। रिश्तेदारों का सहारा है। मुसीबत में काम आता है?” क़ुरैश ने कहा- ” लेकिन हमारी शर्त यह है कि “अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु नमाज़ों में चुपचाप जो चाहे पढ़ें। आवाज़ से क़ुरआन पढ़ते हैं तो हमारी औरतों और बच्चों पर गलत असर पड़ता है।”
हज़रत “अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु ने कुछ दिन इस शर्त की पाबंदी की। लेकिन आख़िरकार उन्होंने घर के पास एक मस्ज़िद बना ली और उसमें बहुत तल्लीन होकर ऊँची आवाज़ से क़ुरआन पढ़ते थे। वो बहुत ही मधुर स्वर के मालिक थे। कुरआन पढ़ते तो बेइख़्तियार उनकी आँखों से आंसू निकल आते। औरतें और बच्चे उनको देखते तो उन पर असर होता और क़ुरैश ने “इब्ने दुग़ाना” से इसकी शिकायत की। उसने हज़रत”अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु से कहा कि अब मैं तुम्हारी हिफ़ाज़त का जि़म्मेदार नहीं रह सकता। हज़रत “अबू बक्र” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा?” मुझे अल्लाह की हिफाजत पर्याप्त है। मैं तुम्हारी ज़िम्मेदारी से आज़ाद होता हूँ।
एक रोज नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मस्जिद ए “हराम” में दाख़िल हुए। वहाँ मुशरिक़ सरदार बैठे हुए थे। जब उन्होंने नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को देखा तो मज़ाक़ उड़ाते हुए कहा। “अब्दे मुनाफ़ वालों देखो तुम्हारा नबी आ गया।”
“उक़्बा बिन राबिआ” बोला- “हमें क्या आपत्ति है। हममें से कोई नबी बन बैठे, कोई फ़रिश्ता कहलाए। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसकी ये बात सुनकर रुके और उसके पास आए। पहले “उक़्बा” को सम्बोधित किया- “उक़्बा! तूने अल्लाह और उसके रसूल का पक्ष कभी न लिया। तू तो अपनी ही बात पर अदा रहा।
फिर अबू जहल से फ़रमाया: “वो वक़्त आने वाला है जब तू थोड़ा हँसेगा और बहुत रोएगा।”
फिर कुरैश से फ़रमाया।”तुम्हारे लिए वो घड़ी समीप आ चुकी है कि जिस दीन का तुम इंकार करते हो। एक दिन उसी दीन को स्वीकार करोगे।
इतिहास गवाह है कि उस रोज़ जो मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा वह हर अक्षर सत्य साबित हुआ।