उक़्बा में शपथ और इस्लाम का प्रचार प्रसार
नबूवत के ग्यारह साल में हज के दिनों की बात है। हुजूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने रात के अंधेरे में “मक्का” शहर से कुछ दूर पर एक जगह “उक़्बा” पर लोगों को बातें करते सुना। इस आवाज़ पर अल्लाह के नबी मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उन लोगों के पास पहुँचे। वहाँ छः आदमी “यसरब” से आए थे। उनके सामने नबीअकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह की बढ़ाई का ब्यान शुरू किया। उनके दिलों को अल्लाह की मोहब्बत से गरमाया। बुतों से उनको नफ़रत दिलाई। नेकी और पवित्रता की तालीम देकर बुराइयों और गुनाहों से रोका। कुरआन पढ़ सुनाया और उनके दिलों को रोशन किया। भले ही वो लोग मूर्ति पूजक थे लेकिन उन्होंने अपने शहर के यहूदियों को बातें करते सुना था कि एक नबी आने वाले वक्त में आने वाला है।
हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से ये बातें सुनकर उन्हें इस बात का विश्वास हो गया और वो मुस्लमान हो गए। और जब अपने वतन वापस लौटे तो अल्लाह के दीन के सच्चे लोग बन गए थे। वो हर एक शख़्स को खुशख़बरी सुनाते थे कि वो नबी जिसका सारी दुनिया को इंतजार था आ गया है। हमारे कानों ने उसकी बातों को सुना। हमारी आँखों ने उसके चेहरे को देखा और उसने हमको उस जिंदा रहने वाले अल्लाह से मिला दिया है कि दुनिया की जिंदगी और मौत उसके सामने ज़र्रा बराबर भी नहीं। इन लोगों की यह बात “मदीना” पहुँचाने का असर ये हुआ कि “यसरब” के हर घर में अल्लाह के नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का ज़िक्र होने लगा और इस्लाम के बारे में चर्चा होने लगी। अगले साल यानी नबूवत के बारहवें साल में “यसरब” की जनता “मक्का” में हाज़िर हुई और (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास पहुँचकर इस्लाम की तालीम हासिल की। इन लोगों ने जिन बातों पर नबी से बैंअत की थी वो यह है-
1. हम एक अल्लाह की इबादत किया करेंगे और उसके साथ किसी को अल्लाह का साथी नहीं बनाएंगे।
2. हम चोरी और अनैतिक शारीरिक संबंध नहीं करेंगे।
3. हम अपनी बेटियों को कत्ल नहीं करेंगे।
4. हम किसी पर झूठी बात नहीं लगाएंगे और न किसी की किया करेंगे।
5. हम नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के आज्ञाकारी रहेंगे और सदैव अच्छी बात किया करेंगे।
जब यह लोग वापस जाने लगे तो हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनकी तालीम के लिए “मुसअब बिन उमैर” रज़िअल्लाह अन्हु को साथ कर दिया। “मुसअब बिन उमैर” रज़िअल्लाह अन्हु एक अमीर घर के लाड़ले बेटे थे। जब घोड़े सवार होकर निकलते थे तो आगे पीछे गुलाम चला करते थे। बदन पर दो सौ से कम की कभी कोई पोशाक नहीं पहनी। मगर जब उनको इस्लाम की दौलत और अध्यात्मिक सुकून हासिल हुआ तो शारीरिक सुकून को उन्होंने बिल्कुल छोड़ दिया था। जिन दिनों ये केवल मदीने में इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया करते थे। उन दिनों उनके कंधे पर सिर्फ कंबल का एक छोटा सा टुकड़ा हुआ करता था जिसे अगली तरफ़ से कांटों से अटका लिया करते थे।
हज़रत “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु “मदीने” में ‘असद बिन ज़ुरारा’ रज़िअल्लाह अन्हु के घर जाकर उतरे थे और उनको “यसरब” वाले पढ़ाने वाला (उस्ताद) कहा करते थे। एक दिन “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु और “असद” रज़िअल्लाह अन्हु कुछ मुस्लमान के साथ एक जगह जमा हुए। इस बात पर विचार करने के लिए कि बनी “अब्दुल अशहल” और बनी “जाफर” में इस्लाम की बात की जाए या न की जाये। “साद बिन ख़सीर” रज़िअल्ल्ह अन्हु और “उसैद” बिन हुज़ैर रज़िअल्लाह अन्हु इन क़बीलों के सरदार थे और अभी मुस्लमान नहीं हुए थे। उन्हें जब ये ख़बर हुई तो “साद” रज़िअल्लाह अन्हु ने “उसेद” रज़िअल्लाह अन्हु तुम किस भुलावे में हो। देखो यह दोनों हमारे घरों में आकर हमारे बेवकूफ़ों को बहका रहे हैं। तुम जाओ और उन्हें डांट दो और यह कह दो कि हमारे मोहल्लों में फिर कभी ना आएं। मैं खुद ऐसा करता मगर इसलिए खामोश हूँ कि”असद” रज़िअल्लाह अन्हु मेरी खाला के बेटे है।
“उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु अपना हथियार लेकर रवाना हुए “असद” रज़िअल्लाह अन्हु ने “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु को देखा और कहा कि देखो ये क़बीले का सरदार आ रहा है। अल्लाह करे वो तेरी बात मान जाए। “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा, “अगर वो आकर बैठ गया तो मैं जरूर उससे बात कर लूँगा” इतने में ही वो वहाँ पहुँचा और खड़े-खड़े गालियाँ देने लगे और ये भी कहा कि तुम हमारे नादान और सीधे-साधे लोगों को बहला-फुसला रहे हो। “मुसआब” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा, “काश आप बैठकर कुछ बात सुन लेते। अगर पसंद आए तो मान लेना। न पसंद आए तो इसे छोड़ जाना।” उसैद रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा, “हाँ बताओ क्या मामला है।” “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु ने समझाया कि इस्लाम क्या है और फिर साथ में “कुरआन” भी पढ़ कर सुनाया। “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु ने सब कुछ चुपचाप सुना। और आखिर में कहा हाँ ये तो बताओ तुम्हारे दीन में दाखिल होना चाहे तो क्या करते हो। उन्होंने कहा नहला कर साफ कपड़े पहना कर कलमा शहादत पढ़वा देते हैं और दो रकात नमाज़ भी पढ़ा देते हैं। “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु उठे साफ कपड़े पहने। कलमा शहादत पढ़ा और नमाज़ अदा की। फिर कहा मेरे पीछे एक और शख्स है अगर वह तुम्हारी बात मान गया तो फिर कोई भी तुम्हारे खिलाफ़ न रहेगा और मैं अभी जाकर उसे पास भेजता हूँ।
“उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु ये कहकर वहाँ से वापस आ गये। उधर साद रज़िअल्लाह अन्हु उसके इंतजार में थे। दूर से चेहरा देखते ही बोले देखो “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु का चेहरा, य़े वो नहीं है जो जाते वक्त था। जब “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु आ बैठे तो “साद” रज़िअल्लाह अन्हु ने पूछा कि क्या हुआ? “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु बोले मैं उन्हें समझा आया हूँ और वो कहते हैं कि तुम्हारी मंशा के खिलाफ नहीं जाएंगे। मगर वहाँ तो एक और हादसा हो गया बनु “हारिसा” वहाँ आ गए थे और वो”असद बिन ज़रारा” को इसलिए क़त्ल करना चाहते थे क्यूँकि वो तुम्हारा भाई है। यह सुनकर साद रज़िअल्लाह अन्हु गुस्से से भर गए और अपना हथियार उठाकर तेज़ी से खड़े हो गए। उन्हें डर था कि बनु “हारिसा” उनके भाई को मार न डालें। चलते हुए उन्होंने कहा “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु तुम कुछ भी काम नहीं बना कर आए। “साद” रज़िअल्लाह अन्हु वहाँ पहुँचे तो देखा कि “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु और “असद” रज़िअल्लाह अन्हु दोनों बहुत सुकून से वहीं बैठे हुए थे। “साद” रज़िअल्लाह अन्हु समझ गए कि “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु ने उन्हें इन लोगों की बातें सुनने के लिए भेजा है। ये बात समझते ही साद रज़िअल्लाह अन्हु ने उन्हें गालियां देना शुरू कर दिया। और अपने भाई “असद” रज़िअल्लाह अन्हु से कहा। अगर मेरे तुम्हारे बीच रिश्ता न होता तो तुम्हारी क्या हिम्मत हमारे मोहल्ले तक चले आते।
“असद” रज़िअल्लाह अन्हु ने “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु से कहा देखो यह बड़े सरदार हैं अगर इनको समझा दो तो फिर कोई दो आदमी भी तुम्हारे खिलाफ़ न रह जाएंगे। “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु ने “साद” रज़िअल्लाह अन्हु से कहा। आइए बैठ जाइए कोई बात करते हैं। हमारी बात पसंद आ जाए तो कुबूल कर लीजिएगा। वरना इंकार कर दीजिए। “साद” रज़िअल्लाह अन्हु अपना हथियार रख कर बैठ गए। हज़रत “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु ने उनके सामने इस्लाम की पूरी बात रखी और साथ ही साथ कुरआन भी पढ़ कर सुनाया। आखिरकार “साद” रज़िअल्लाह अन्हु ने वही सवाल किया जो उनसे पहले “उसैद” रज़िअल्लाह अन्हु कर गए थे। उसके बाद “साद” रज़िअल्लाह अन्हु उठे और साफ़ कपड़े पहने। कलमा पढ़ा, नमाज़ अदा की और अपने हथियार को लेकर वापस अपने लोगों में पहुँचे। आते ही उन्होंने लोगों से कहा, ए बनी अब्दुल “अशहल” के लोगों! तुम लोगों की मेरे बारे में क्या राय है। सब ने कहा,- आप हमारे सरदार हो। आपकी राय, आप की तलाश बेहतर और अच्छी है। रज़िअल्लाह अन्हु बोले, सुनो चाहे कोई मर्द हो या औरत मैं उससे बात करना हराम समझता हूँ जब तक वो एक अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान न ले आए। इस बात का असर ऐसा हुआ कि बनी अब्दुल “अशहल” में शाम तक कोई एक ऐसा मर्द या औरत नहीं बचा था जो मुस्लमान न हुआ हो।
हज़रत “मुसअब” रज़िअल्लाह अन्हु और बाक़ी मुस्लमानों से होता हुआ सारे क़बीले में इस्लाम फैल गया। पूरे मदीने में इस्लाम का चर्चा हो गया। इसका नतीजा यह निकला कि अगले साल यानि नबूवत के 13 वें साल में 73 मर्द और 2 औरतें मक्का आये। इनको “यसरब” के मुस्लमानों ने इस लिए भेजा था कि रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अपने शहर में आने का निमंत्रण दें और उनको आने के लिए राज़ी कर लें।
ये क़ाफ़िला उसी जगह पहुँच गया जहाँ पिछले दो साल से “मदीने” से आए हुए लोग अल्लाह के नबी मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से मुलाक़ात किया करते थे। रात के वक्त अल्लाह के रसूल(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने चाचा “अब्बास” रज़िअल्लाह अन्हु को साथ लेकर वहाँ पहुँच गए। हज़रत “अब्बास” रज़िअल्लाह अन्हु जो अभी मुस्लमान नहीं हुए थे उस वक्त एक काम की बात कही। उन्होंने कहा, ऐ लोगों तुम्हें मालूम है कि “मक्का” के कुरैश मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जानी दुश्मन हैं। अगर तुम उनसे कोई समझौता तय पाते हो तो पहले ये समझ लेना कि ये नाज़ुक और मुश्किल काम है। मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से सम्बंध रखना एक बड़ी लड़ाई को दावत देने जैसा है। जो कुछ करो, सोच समझ कर करो। वरना बेहतर है कि कुछ भी न करो।
उन लोगों ने हजरत “अब्बास” को कुछ जवाब नहीं दिया। हाँ रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा कि हुजूर कुछ इरशाद फरमाइएं।
रसूल अल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनको अल्लाह का कलाम पढ़कर सुनायाकि जिसके सुनते ही वह अपने ईमान और यक़ीन में मज़बूत हो गए। उन सब ने अर्ज किया, या रसूल अल्लाह(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आप हमारे शहर चलें। वहीं बसें ताकि हमें पूरा-पूरा दीन सीखने में आसानी हो। नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया। “क्या तुम दीन की बात लोगों तक पहुँचाने में मेरा पूरा-पूरा साथ दोगे। और जब मैं तुम्हारे शहर में जा बसूँगा। क्या तुम मेरे और मेरे साथियों की हिमायत अपने घर परिवार की तरह से करोगे?
उन लोगों ने पूछा कि इसके बदले हमें क्या मिलेगा? नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया “जन्नत” जो हमेशा कायम रहने वाली कामयाबी का घर है। ईमान वालों ने अर्ज किया, “ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आप हमें तसल्ली दीजिए कि हम को कभी नहीं छोड़ेंगे।” नबी ने फरमाया “नहीं” मेरा जीना मेरा मरना तुम्हारे साथ होगा। इस बात को सुनना था कि इन लोगों के दिल नबी की मोहब्बत से छलक उठे और इस्लाम कुबूल करने लगे। “बर्रा बिन मारूर” रज़िं अन्हु पहले बुजुर्ग हैं जिन्होंने इस रात सबसे पहले इस्लाम कुबूल किया।
एक शैतान ने पहाड़ की चोटी पर से ये नज़ारा देखा और चीख़ कर मक्का के लोगों से कहा, “लोगों! आओ देखो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उसके मानने वाले लोग तुमसे लड़ाई के उक्तियाँ बना रहे हैं।” रसूल अल्लाह ने फरमाया, तुम इस आवाज़ की परवाह न करो। “अब्बास बिन उबादा” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- “अगर हुज़ूर की इजाज़त हो तो हम कल ही मक्का वालों को अपनी तलवार का हुनर दिखा दें।” अल्लाह के रसूल मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फरमाया “नहीं” मुझे जंग की इजाज़त नहीं है” इसके बाद नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उनमें से बारह लोगों को चुना और कहा इनका नाम “नक़ीब” रखा है। और यह फ़रमाया कि जिस तरह “ईसा बिन मरियम” ने बारह लोगों को चुन लिया था उसी तरह मैं तुम लोगों को चुनता हूँ। ताकि तुम “यसरब” के लोगों में जाकर दीन की बातें फैलाओ। “मक्का” वालों मै ये काम मैं खुद कर लूंगा। उन बारह लोगों में ख़ज़रज क़बीले के नौ लोग असद बिन ज़ुरारा, राफे बिन मालिक, उबादा बिन समित, साद बिन रबीअ, मुनज़िर बिन अम्र, अब्दुल्लाह बिन रवाहा, बरा बिन मारूर, अब्दुल्लाह बिन अम्र, साद बिन उबादा और क़बीला ओस के तीन लोग उसैद बिन हुज़ैर, साद बिन खैसमा, अबुल हइशम बिन तइहान थे।
“क़ुरैश” को दिन निकलने के बाद इस मामले की जानकारी हुई। वो मदीने वालों की तलाश में निकले लेकिन उनका क़ाफ़िला सुबह ही रवाना हो चुका था। “क़ुरैश” ने “साद बिन उबादा” रज़िअल्लाह अन्हु और “मंजीर बिन अम्र” रज़िअल्लाह अन्हु को वहाँ पाया। हज़रत “मंजीर” रज़िअल्लाह अन्हु तो वहाँ से बच निकले मगर “साद बिन उबादा” रज़िअल्लाह अन्हु को उन्होंने पकड़ लिया। “क़ुरैश” उन्हें “मक्का’ ले आये और उनसे मार-पीट की। ये “साद बिन उबादा” रज़िअल्लाह वही हैं जिनको नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने चुने हुए बारह लोगों में रखा था। “साद” रज़िअल्लाह अन्हु खुद बताते हैं कि जब “क़ुरैश” उनसे मार-पीट कर रहे थे तब एक बेहद खूबसूरत शख्स अपनी तरफ़ आता हुआ नज़र आया। मैंने अपने दिल में कहा अगर इस क़ौम में मुझे किसी से भलाई की उम्मीद है तो वो यही है। जब वो मेरे क़रीब आया तो उसने बहुत ज़ोर से मेरे मुँह पर तमाचा मारा उस वक़्त मुझे यक़ीन हो गया कि इन लोगों में से कोई भी एक शख्स नहीं जिसमें भलाई हो।
इतने में एक और शख्स आया। उसने मेरे हाल पर तरस खाया और कहा क्या “क़ुरैश” के किसी भी शख्स से तुझे हिमायत नहीं मिली। और किसी से भी तेरा कोई वास्ता नहीं पड़ा ? मैंने कहा, “हाँ”! जुबैर बिन मुतअम और हरिस बिन हर्ब जो अब्द मुनाफ़ के पोते हैं उनसे मेरे व्यापारिक सम्बन्ध हैं। वो अपना माल लेकर हमारे यहाँ आया करते हैं और मैंने हर बार उनकी हिफाज़त की है। उस शख्स ने कहा फिर तुम्हें उन्हीं दोनों के नाम का वास्ता देना है। और उनसे अपने ताल्लुक़ात का ज़िक्र करना है। मैंने ऐसा ही किया। फिर वही शख्स उन दोनों के पास गया और बताया की “ख़ज़रज” का एक शख्स जो तुम्हें जानता है। वो पिट रहा है और तुम्हारा नाम लेकर पुकार रहा है। उन्होंने पूछा वो कौन है? उसने नाम बताया “साद बिन उबादा”। वो लोग बोले हाँ उसके हम पर एहसान हैं। तब आकर उन्होंने साद बिन उबादा रज़िअल्लाह अन्हु को छुड़ाया। फिर “साद” रज़िअल्लाह अन्हु वापस “यसरब” लौटे।
उक़्बा की तीसरी बैठक के बाद स्थिति बदलने लगी थी। जो मुस्लमान अभी मक्का से बाहर नहीं गए थे और कुरैश के जुल्मों सितम सह रहे थे। उन्हें नबी अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)की तरफ़ से इजाज़त मिल गई कि “यसरब” शहर चले जाएं। ये उन लोगों के लिए बहुत बड़ी खुशख़बरी थी। उन्हें अपना घर-बार, मां-बाप, बीवी-बच्चे छोड़ने का ज़रा ग़म न था बल्कि इस बात की खुशी थी कि वो वहाँ जाकर अल्लाह वालों और घर छोड़ने वालों को कुरैश मक्का की तरफ़ से सख्त प्रतिक्रिया झेलनी पड़ी। हज़रत “सुहेब रूमी” रज़िअल्लाह अन्हु जब हिजरत करके जाने लगे तो काफिरों ने कहा “सुहेब” रज़िअल्लाह अन्हु जब तू “मक्का” में आया था तो गरीब था यहाँ ठहर कर तूने सारा माल कमाया। आज यहाँ से जाता है और चाहता है कि जो कमाया है वह भी साथ ले जाए। ये तो कभी नहीं हो सकता। हज़रत “सुहेब” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा, अच्छा अगर मैं अपना सारा कमाया हुआ धन दौलत छोड़ जाऊँ तो क्या मुझे जाने दोगे? कुरैश ने बोला “हाँ”। हज़रत “सुहेब” रज़िअल्लाह अन्हु ने सारा माल उन्हें दे दिया और “यसरब” को रवाना हो गए। अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ये क़िस्सा सुनकर फ़रमाया कि इस सौदे में “सुहेब” ने फ़ायदा कमाया।