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Toggleमदीने में अय्यूब अंसारी रज़िअल्लाह अन्हु के घर पड़ाव
मदीने के हर दिन हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) इन्तिज़ार में बड़ी मुश्किल से गुज़ार रहे थे। उनके लिए हुज़ूर से मिलना सबसे बड़ा शुभ अवसर था। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ‘क़ुबा’ से मदीने के लिए चले तो दोनों तरफ़ चाहने वालो़ की लम्बी पंक्तियाँ थीं। रास्ते में अंसार के ख़ानदान आते जाते थे। हर क़बीला के लोग सामने आते और अर्ज़ करते ‘हुज़ूर! ये घर है। ये माल है। ये जान है।’ आप‘नहीं’ का इशारा करते। अच्छी दुआ देते और फ़रमाते कि मेरी ऊँटनी का रास्ता छोड़ दो। इसको अल्लाह की तरफ़ से हुक्म है। इसी तरह मदीने के पांच बड़े-बड़े क़बीलों के सरदार मिलते रहे और यही अर्ज़ किया ‘हुज़ूर! ये घर है। ये माल है। ये जान है।’ आप भी यही फ़रमाते- ‘इसका रास्ता छोड़ दो जहाँ अल्लाह का हुक्म होगा वहीं बैठ जाएगी।’
हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीने के क़रीब होते जा रहे थे और मदीने की ख़ुशी बढ़ती जा रही थी। ख़ुशी का ये आलम था कि बच्चियाँ छतों पर खड़े होकर हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)की शान में ये शेर पढ़ रहीं थीं-
- चाँद निकल आया है
- विदा पहाड़ की घाटियों से
- हम पर अल्लाह का शुक्र वाजिब हुआ
- जब तक दुआ मांगने वाले दुआ मांगें
‘निजार’ क़बीले की लड़कियाँ दफ़ बजाकर गाती जाती थीं –
- हम बनु निजार की लड़कियाँ हैं
- मुहम्मद कितने अच्छे पड़ोसी हैं
आपने लड़कियों की तरफ़ देख कर कहा- ‘क्या आप लोग मुझे पसंन्द करती हो?’ जवाब आया ‘हाँ’। हुज़ूर ने फ़रमाया- ‘मैं भी तुम लोगों को पसंद करता हूँ।’
जहाँ आज के वक़्त मदीने में मस्जिद नबवी है उसी जगह के पास हज़रत ‘अबू अय्यूब अंसारी’ रज़िअल्लाह अन्हु का घर था। ऊँटनी वहाँ पहुँच कर रुक गयी। अल्लाह ने हज़रत ‘अबू अय्यूब’ रज़िअल्लाह अन्हु की क़िस्मत चमका दी। हज़रत ‘अबू अय्यूब’ रज़िअल्लाह अन्हु का मकान दो मंज़िल का था। उन्होंने आदर के तौर पर हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ऊपर की मंज़िल पेश की और खुद हुज़ूर से निचली मंज़िल पर रहना चुना। लेकिन आक़ा करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने नीचे की मंज़िल के लिये इच्छा व्यक्त की ताकि मिलने वालो़ को आसानी रहे और घर वाले भी परेशान न हों। हज़रत ‘अबू अय्यूब’ रज़िअल्लाह अन्हु दोनों वक़्त आपकी ख़िदमत में खाना पेश किया करते। जो खाना हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के यहाँ से बच जाता वो ‘अबू अय्यूब’ रज़िअल्लाह अन्हु और उनकी पत्नी के हिस्से में आता। जिस जगह हुज़ूर की उंगलिया लगी होती उसे ही शुभ मानकर वही से खाते।
एक दिन अचानक ऊपरी मंज़िल पर पानी गिर गया। अबू ‘अय्यूब’ अंसारी रज़िअल्लाह अन्हु को डर हुआ कि कहीं पानी रिस कर नीचे न चला जाये और हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तकलीफ़ न हो। अयूब अंसारी के पास एक ही कम्बल था। उन्होंने ने उसे ही पानी के ऊपर डाल दिया और पानी को सोख लिया।
मस्जिद नबवी और मकानों का निर्माण
‘मदीने’ में बस जाने के बाद सबसे पहला काम एक मस्जिद का निर्माण होना था। अब तक सामूहिक नमाज़ पढ़ने का इंतिज़ाम एक खुली जगह पर हो रहा था। ‘अबू अय्यूब अंसारी’ रज़िअल्लाह अन्हु के घर के क़रीब ही खानदान निजार की ज़मीन थी। जहाँ कुछ क़ब्रें और कुछ खजूर के पेड़ थे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन लोगों से मुलाक़ात की और अर्ज़ किया “मैं ये ज़मीन क़ीमत अदा करके लेना चाहता हूँ।” वो लोग बोले “हम क़ीमत लेंगे। लेकिन आपसे नहीं बल्कि अल्लाह से। क्योंकि असल में वो ज़मीन दो यतीम बच्चों की है।” हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उन दोनों यतीम बच्चों को बुलाकर बात की। उन दोनों ने हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ये ज़मीन तोहफे के तौर पर देनी चाही पर अल्लाह के महबूब को ये गवारा न हुआ। लिहाज़ा हज़रत’अबू अय्यूब’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ज़मीन की क़ीमत अदा की। क़ब्रों को उखाड़ कर दूसरी जगह ले जाया गया। ज़मीन को समतल करके मस्जिद का निर्माण कार्य शुरू हो गया। फिर से दोनों जहाँ के बादशाह के तन पर मज़दूरों वाला लिबास था। सहाबा पत्थर उठाकर लाते थे और शेर पढ़ते जाते थे। हुज़ूर भी उनके साथ आवाज़ मिलते और कहते-
- ऐ अल्लाह कामयाबी सिर्फ़ आख़िरत की कामयाबी है
- ऐ अल्लाह अंसार और मुहाजिर पर रहम फ़रमा
ये मस्जिद हर तरह की साज सजावट से पाक थी और सादगी का बेहतरीन उदहारण थी। अर्थात कच्ची ईंटों की दीवारें। खजूर के पत्तों से बना छप्पर व खजूर के तनों के स्तम्भ। मस्जिद की दिशा बैत उल मुक़द्दस यानी आज की मस्जिद अक़्सा (यरूशलम) की तरफ़ रखी गयी थी। लेकिन जब नमाज़ पढ़ने की दिशा को बदल कर काबे की तरफ़ कर दिया गया तो उत्तर की ओर एक और दरवाज़ा बना दिया गया था। मस्जिद का फर्श कच्चा था। इसी वजह से जब बारिश होती तो कीचड-कीचड हो जाती। एक बार सहाबा मस्जिद आये तो अपने साथ कंकरियां भी लेते आये। अपनी नमाज़ पढ़ने की जगह पर कंकरियाँ बिछा दी। हुज़ूर(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस तरीक़े को पसंद किया और मस्जिद का पूरा फर्श कंकरियों से इसी तरह पक्का कर लिया गया। मस्जिद में एक तरफ़ चबूतरा था जिसे ‘सुफ़्फ़ा’ कहते थे। ये उन लोगों के लिए था जो इस्लाम क़ुबूल कर लेते थे मगर उनका कोई घर नहीं होता था। जब मस्जिद का निर्माण पूरा हो चुका तो हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मस्जिद के आस-पास ही अपनी पत्नियों के लिए भी घर बनवाये। उस वक़्त तक केवल दो बीवियां थी। हज़रत ‘सौदा’ रज़िअल्लाह अन्हा और हज़रत ‘आइशा’ रज़िअल्लाह अन्हा इसी लिए उस वक़्त दो मकान ही बने।
ग़रीबी की वजह से हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घर अक्सर चराग़ नहीं जलते थे। हुज़ूर के पड़ोसी, जो मदीने के अंसार थे, जिनमें ‘साद बिन उबादा’ रज़िअल्लाह अन्हु , साद बिन मुआज़ रज़िअल्लाह अन्हु, उमारा बिन हरम रज़िअल्लाह अन्हु और अबू अय्यूब रज़िअल्लाह अन्हु जैसे लोग थे, यह लोग मालदार थे। इसी लिये अक्सर आपकी ख़िदमत में दूध वगैरह भेज दिया करते थे। हुज़ूर के परिवार का गुज़ारा उसी पर हुआ करता। साद बिन उबादा रज़िअल्लाह अन्हु ने आदत बना ली थी कि रात के खाने पर हमेशा अपने घर से एक बड़ा कटोरा हुज़ूर ए अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के घर भेजा करते। इसमें कभी सालन-सब्ज़ी होता। कभी दूध और कभी घी होता था। हज़रत अनस की माँ ने अपनी जायदाद हुज़ूर को तोहफे में दे दी। आपने क़ुबूल कर ली और वो जायदाद अपनी दाई ‘उम्मे ऐमन’ को दे दी और खुद ग़रीबी की ज़िन्दगी जीना चुना।