जीवनी पैगंबर मुहम्मद पेज 19

इस्लाम में हर तरह की पूजा का केंद्र एकेश्वरवाद व मेल-जोल है। इस वक़्त तक कोई ख़ास ऐलान या कार्य नहीं था जिसकी वजह से लोग नमाज़ के लिए इकठ्ठा हो सकें। सभी लोग अलग-अलग समय पर आ कर अपनी-अपनी नमाज़ पढ़ लेते थे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ये चीज़ पसंद नहीं आ रही थी। हुज़ूर ने ख़्याल किया कि कुछ लोगों की ज़िम्मेदारी लगा दी जाये ताकि वो बाकी लोगों को वक़्त पर मस्जिद ले आएं। लेकिन इस काम में ज्यादा मेहनत लगती। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबा को बुलवाकर मशवरा किया। अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग राये दीं। 

किसी ने कहा कि नमाज़ के वक़्त मस्जिद पर एक झंडा फेहरा दिया जाये लोग उसे देख कर सावधान हो जायेंगे कि नमाज़ का वक़्त हो चूका है। हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ये तरीक़ा पसंद नहीं आया। किसी ने कहा कि जिस तरह यहूदियों और ईसाइयों के यहाँ बुलाया जाता है उसी तरह हम भी बुला लिया करेंगे। पर हुज़ूर को ये मशवरा भी नहीं जंचा। आखिर में हुज़ूर को हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु की राय पसंद आयी। हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने अपने ख्वाब में अज़ान होते हुए सुनी थी और उसी तरह हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बता दिया। हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ‘बिलाल’ रज़िअल्लाह अन्हु को हुक्म दिया कि अज़ान दें। इस तरह एक तो नमाज़ के लिए ऐलान भी हो जाता था और पांच वक़्त इस्लाम का नारा भी बुलंद हो जाता था।

मुहाजिर और अंसार भाई-भाई

जब मुहाजिर अपने शहर ‘मक्का’ को छोड़ कर आये तो बिल्कुल ख़राब हाल थे। उन लोगों में कुछ मालदार व्यापारी भी थे परन्तु ‘मक्का’ के दुश्मनों से छुप कर निकलने में सारा सामान वहीं रह गया था। हालाँकि मदीने के लोगों का घर ‘मक्का’ के मुहाजिरों के लिए हमेशा खुला रहता था। लेकिन फिर भी एक व्यवस्था ज़रूरी थी। मुहाजिर को ख़ैरात से खाना पसंद नहीं था। वो अपनी महनत से खाने के आदी थे। लेकिन पास में एक कौड़ी भी नहीं थी इसी लिए मजबूर थे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इस समस्या को समझा और मुहाजिर व अंसार में भाई का रिश्ता क़ायम कर दिया। जब मस्जिद नबवी का निर्माण पूरा हुआ तो हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अंसार को बुलवाया। हज़रत ‘अनस बिन मालिक’ रज़िअल्लाह अन्हु जो अभी दस साल के थे, उनके घर लोग जमा हुए। मुहाजिर की संख्या पैंतालिस(45) थी। हुज़ूर ने अंसार लोगों की तरफ़ बात करते हुए कहा ‘ये तुम्हारे भाई हैं।’ फिर मुहाजिर और अंसार में से दो लोगों को बुलाते रहे और कहते गए अब से तुम दोनों भाई-भाई हो। इसी तरह 45 मुहाजिर और अंसार हक़ीक़त में भाई-भाई बन गए। अंसार ने मुहाजिर भाइयों को अपने घर ले जाकर पूरे घर का परिचय कराया। घर की हर एक चीज़ को आपस में आधा-आधा बाँट लिया।

मदीने के लोगों के पास जो कुछ जायदाद थी वो उनके खजूर के बाग़ ही थे। उन्होंने विनती की कि ये बाग़ हमारे भाइयों में बराबर बाँट दिए जाये। मुहाजिर लोग व्यापार से जुड़े लोग थे। खेती वग़ैरह के कामों में कुशल नहीं थे। इसी कारण इस सुझाव को रद्द कर दिया। लेकिन अंसार ने फिर से गुज़ारिश की कि हमारे भाइयों को उसमें कुछ काम करने की ज़रूरत नहीं है। वो अपने व्यापार को समय दें और उनके हिस्से के बाग़ में से जो पैदावार होगी उसका फायदा उन्हें मिल जायेगा । इस बात पर सब राज़ी हो गए और यूँ ही मुहाजिर अंसार भाई बन गए। ये रिश्ता इतना मज़बूत हो गया था कि अगर किसी अंसारी की मौत हो जाती तो उसके माल और दौलत मुहाजिर भाई को उसी हक़ से मिलता जैसे सगे भाई को मिला करता। ये सारी व्यवस्था और मुहब्बत अल्लाह के इस हुक्म की वजह से थी – 

‘जो लोग ईमान लाये और हिजरत की और अल्लाह की राह में माल व जान से जिहाद किया और वो लोग जिन्होंने इन लोगों को पनाह दी और इनकी मदद की। ये लोग यक़ीनन भाई-भाई हैं।’ (सूरह अनफ़ाल – 72 )

जब कुछ अरसे बाद मुहाजिर अपनी कमाई के लिए मज़बूत हो गए तो अल्लाह ने ये आयत उतारी – 

‘और रिश्तेदार आपस में ज़्यादा हक़दार हैं।’ (सूरह अनफ़ाल – 75 )

मदीने के अंसारी की ये क़ुर्बानी और ये खुश मिज़ाजी इतिहास में सोने के पानी से भी लिखी जाये तो हक़ अदा नहीं हो सकता। लेकिन दूसरी तरफ अगर मुहाजिरों की मेहनत को देखें तो वो भी तारीफ़ के क़ाबिल है। अपना सारा माल और जायदात छोड़ कर एक पराये शहर में आकर खुद को बहुत कम वक़्त में दोबारा पैरों पर खड़े कर लेना एक करिश्मा है। ‘साद बिन रबीआ’ रज़िअल्लाह अन्हु एक अंसार थे और ‘अब्दुर्रहमान बिन ऑफ़’ रज़िअल्लाह अन्हु इनके मुहाजिर भाई थे। ‘साद’ रज़िअल्लाह अन्हु इन्हें घर लेकर आये और हर एक चीज़ का जायज़ा दिला दिया। हज़रत ‘अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा ये सब आपको मुबारक। मुझे तो आप बाजार का रास्ता दिखा दीजिये। साद रज़िअल्लाहु अन्हु उन्हें ‘क़ुनैक़ा’ के बाज़ार ले गए। यह उस वक़्त बहुत मशहूर बाज़ार था। हज़रत’अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कुछ घी और पनीर खरीदा और शाम तक उसे बेच कर मुनाफ़ा कमा लिया। कुछ ही दिनों में इतना अच्छा काम चल पड़ा कि ‘अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु ने खूब कमाई कर ली यहाँ तक कि शादी भी कर ली। धीरे-धीरे काम इतना बढ़ गया कि ख़ुद बताते हैं – ख़ाक पर हाथ डालता हूँ तो सोना बन जाता है। उनके व्यापारिक सामान के लिए सात सौ ऊँट लगा करते थे। जिस दिन उनका क़ाफ़िला मदीना पहुँचता तो बाज़ार में ईद हो जाती थी।

कुछ सहाबा ने दुकानें खोल लीं। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कारखाना खोल लिया। जहाँ से वो कपड़े का व्यापार करते थे। हज़रत ‘उस्मान’ रज़िअल्लाह अन्हु ‘बनु क़ुनैक़ा’ के बाज़ार में खजूर का कारोबार किया करते थे।

हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु भी अपने गुज़ारे के लिए कारोबार में व्यस्त हो गए थे। अक्सर कारोबार ‘ईरान’ व उसके आस-पास रहता था। बाक़ी के सहाबा ने भी इसी तरह अपनी सुविधानुसार कारोबार शुरू कर दिए थे। लेकिन इस मौके पर एक सहाबी का ज़िक्र बड़ा रोचक है। हज़रत ‘अबू हुरैरह’ रज़िअल्लाह अन्हु अकेले ऐसे सहाबी हैं जिन्होंने सबसे ज़्यादा हदीसें (हज़रत मुहम्मद के उपदेश) सुनीं, याद कीं और लोगों तक पहुँचायीं। इस पर जब लोगों ने एतराज़ किया कि कोई और तो इतने उपदेश नहीं सुनता। तो हज़रत ‘अबू हुरैरा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा ‘इसमें मेरा क्या क़सूर, और लोग बाज़ार में व्यस्त रहते थे और मैं रात दिन हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ ही रहता था।’

जब काफ़ी समय बीत गया तो खैबर की जंग मुस्लमान जीत गए थे। तब मुहाजिरों ने अंसारियों की सारी ज़मीनें उन्हें वापस कर दीं। मुहाजिरों के लिए अंसार ने रहने के इंतज़ाम यूँ किये थे कि जो ज़मीनें खाली पड़ीं थीं वो उन्हें दे दीं और जिनके पास ज़मीनें नहीं थीं उन्होंने घर दिला दिए। अंसार ने जिस तरह मुहाजिरों का साथ निभाया और जिस तरह उन पर अपनी माल व दौलत न्योछावर की वो दुनिया में न इससे पहले देखा गया न इसके बाद।

एक बार एक भूखा शख्स हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के पास आया और अपनी भूख का सवाल हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से अर्ज़ किया। हुज़ूर ने अपने घर मालूम करवाया कि कुछ खाने को है? जवाब आया- ‘सिर्फ पानी है।’ आपने यहाँ बैठे लोगों से कहा- ‘कोई है जो इनको अपने घर मेहमान बनाये’? अबू तल्हा रज़िअल्लाह अन्हु हुज़ूर के मेहमान को अपने घर ले आये। लेकिन ‘अबू तल्हा’ रज़िअल्लाह अन्हु के घर के हाल भी ज़्यादा अच्छे नहीं थे। जब उन्होंने अपने बीवी से खाने का मालूम किया तो उनकी बीवी ने कहा- ‘केवल बच्चों के लिए खाना मौजूद है।’ उन्होंने कहा कि वही खाना मेहमान के लिए ले आओ और बहाने से चिराग़ बुझा देना। तींनो साथ खाने बैठ गए। दोनों पति-पत्नी अँधेरे में इस तरह हाथ चलाते रहे जैसे वाक़ई खा रहे हों। इस तरह उन्होंने मेहमान का पेट भरा दिया।

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