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एक चबूतरा मस्जिद नबवी के बराबर में बना हुआ था जिसे ‘सुफ़्फ़ा’ के नाम से जाना जाता है। सहाबा में से अक्सर दीन के काम के साथ-साथ दुनिया के काम जैसे आमदनी वगैरह की बातें कर लिया करते थे। लेकिन कुछ लोग उनमें ऐसे भी थे जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी सिर्फ दीन का इल्म सीखने और अल्लाह की इबादत के लिए न्योछावर कर दी थी। इनमें से किसी की भी शादी नहीं हुई थी। इसीलिए बच्चों की ज़िम्मेदारी नहीं थी। जैसे-जैसे शादी होती जाती वो शख्स इन लोगों से अलग अपने घर में रहने लगता। इनमें से एक टोली दिन में जंगलों से लकड़ियाँ चुन-चुन कर लाती और उन्हें बेच कर सभी के लिए कुछ खाने का इंतज़ाम करती। ये लोग पूरे दिन हुज़ूर की मजलिस में रहते। वहाँ इल्म सीखते और रात को उसी चबूतरे पर सो जाते।
हज़रत ‘अबू हुरैरा’ रज़िअल्लाह अन्हु भी इन्हीं लोगों में थे। सुफ़्फ़ा के लोगों पर ग़रीबी इतनी थी कि किसी भी शख्स पर धोती और चादर एक साथ नहीं मिल सकती थी। एक चादर को ही इस तरह बाँध लेते कि घुटनो के नीचे तक का बदन ढक जाये। खाने में भी यही हाल था। कभी-कभी तो दो-दो दिन बिना कुछ खाये गुज़र जाते थे। मदीने के अंसार जिनके खजूर के बाग़ हुआ करते थे वो खजूर की पकी टहनियां लेकर छत पर रख दिया करते थे। उसी से लोगों का गुज़र-बसर होता था। अक्सर ऐसा हुआ करता था कि जब हुज़र अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने आते तो ये लोग भी पीछे नमाज़ में शामिल हो जाते। भूख की शिद्दत इतनी होती थी कि नमाज़ पढ़ते हुए ही बेहोश हो कर गिर जाया करते। देखने वालों को लगता था शायद दौरे पड़ रहे हैं।
हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) भी इन ख़ास लोगों का बड़ा ख्याल करते थे। जब भी कहीं से सदक़े का खाना आया करता तो हुज़ूर पहले सुफ़्फ़ा के लोगों के लिए भेजा करते थे। जब कभी दावत का खाना आया करता तो सबसे पहले सुफ़्फ़ा के लोगों को बुलाया करते। कई बार ऐसा होता कि हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) शाम के समय सुफ़्फ़ा के लोगों की ज़िम्मेदारी शहर के अमीरों को सौंप देते थे। एक-एक मालदार शख्स को एक या दो लोगों के खाने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती थी। हज़रत ‘साद बिन उबादा’ रज़िअल्लाह अन्हु बड़े धनवान व्यक्ति थे। कभी-कभी वो 80-80 लोगों की मेहमाननवाज़ी किया करते थे।
हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सुफ़्फ़ा के लोगों से बहुत मोहब्बत थी। एक बार आपकी बेटी हज़रत ‘फ़ातिमा ज़हरा’ रज़िअल्लाह अन्हा ने हुज़ूर से अर्ज़ किया कि मुसलसल चक्की चलाने के कारण उनके हाथ ज़ख़्मी हो रहे हैं। इसीलिए उन्हें कोई दासी दे दी जाये। तो हुज़ूर ने इस बात के लिए मना कर दिया और फ़रमाया “ये नहीं हो सकता कि मैं तुमको दासी दे दूँ और सुफ़्फ़ा वाले भूखे मरें।” रातों को ये लोग अल्लाह की इबादत किया करते और क़ुरआन पढ़ा करते। इस वजह से हुज़ूर ने क़ुरान के माहिर उस्ताद की ज़िम्मेदारी लगा रखी थी। आगे चलकर इनमें से अक्सर लोग ‘क़ारी’ कहलाये। इस्लाम की दावत देने के लिए अगर कहीं जाना होता तो इन लोगों को ही भेजा जाता।
बद्र की जंग
क़ुरैश’ की बर्दाश्त से बहार थी ये बात कि उनके यहाँ के लोग उनके ज़ुल्म से बच कर कहीं और फल-फूल रहे हैं। जब से मुस्लमानों ने ‘मक्का’ से हिजरत की थी तभी से ‘क़ुरैश’ उनके खून के लिए बेताब थे। बस कोई हमले का बहाना नहीं मिल पा रहा था। इसके बावजूद ‘क़ुरैश’ की छोटी-छोटी टुकड़ियाँ मदीने की सरहदों के आस-पास घूमती रहती थीं।
एक बार व्यापार के लिए एक क़ाफ़िला ‘मक्का’ से जाना था। इस क़ाफिले का सरदार ‘अबू सुफियान’ था। मक्का के सभी लोगों ने इस क़ाफिले को व्यापार के लिए अपने पैसे दिये थे। न सिर्फ मर्दों ने बल्कि ‘मक्का’ की औरतों के भी पैसे इसमें लगे थे। जो कारोबार में ना की बराबर हिस्सा लेती थीं। क़ाफ़िला मुल्क शाम (सीरिया) से व्यापार करके वापस लौट रहा था। एक रोज़ क़ाफ़िले का पड़ाव मदीने की सरहदों में हुआ। ये मदीने वालों के लिए सुनहरा मौक़ा था। क़ायदे से ‘मक्का’ के लोग उनके यहाँ घुसपैठिये थे। उनका माल और जान अब मदीने वालों के क़ब्ज़े में था जैसा कि आज भी अगर किसी मुल्क में बिना इजाज़त दाख़िल हुआ जाये तो फिर मर्ज़ी उस मुल्क की सरकार की चलती है।
इस क़ाफ़िले पर क़ब्ज़ा करने से मदीने वालों को आर्थिक रूप से भी मदद मिलती बल्कि अपने ऊपर हुए ज़ुल्म का बदला भी ले लिया जाता। इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की निगरानी में क़ाफ़िले पर हमले की योजना बनाई गयी। इस हमले की ख़बर ‘मक्का’ तक पहुँच गयी। वहाँ के लोग इस जानकारी को सुन कर आग बबूला हो उठे। फ़ौरन जंग की तैयारियाँ की गयीं और एक बड़ी फ़ौज तैयार करके वो मदीने की तरफ़ चल दिए। हुज़ूर को भी इस बात की जानकारी हो गयी कि ‘मक्का’ वाले इस बात से आगाह हैं और अब जंग के लिए आ रहे हैं। हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़ौरन फौज को जमा किया और हालात के बारे में सब को बताया। हुज़ूर ने फ़ौज से पुछा “लड़ना चाहिए या नहीं?”
आपके जांबाज़ दोस्त ‘अबु बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु खड़े हुए और एक ज़ोरदार तक़रीर करके फ़ौज के सीने गरमा दिए। लेकिन हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को इत्मीनान न हुआ। आप अंसार की तरफ़ से फ़िक्रमंद थे। अंसार ने शपथ के समय सिर्फ़ इस बात का इक़रार किया था कि वो लोग सिर्फ उस वक़्त जंग लड़ेंगे जब मदीने पर हमला होगा। आपने दोबारा फ़ौज से पूछा ‘लड़ना चाहिए या नहीं?’ इसी तरह तीसरी बार फिर पूछा ‘लड़ना चाहिए या नहीं?’ इस बार मदीने के अंसार समझ गए कि हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ख़ास तौर पर उनकी राय जानना चाहते हैं।
‘साद बिन मुआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु खड़े हुए और कहा “शायद हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को लग रहा है अंसार शहर के बाहर हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ख़िदमत को अपना फ़र्ज़ नहीं समझते। लिहाज़ा अंसार की तरफ़ से मैं ये अर्ज़ करता हूँ कि हम तो हर हालत में हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ हैं। चाहे आप किसी से समझौता करें या किसी से समझौता न करें। हमारा सारा माल हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के हुक्म के इंतज़ार में है जैसे चाहे वैसे इस्तेमाल करें। जो चाहे वो हमें दे दें। हमारे सामान से जो हिस्सा हुज़ूर ले लेंगे उस पर हमें ज़्यादा ख़ुशी होगी। जो हुक्म हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमें देंगे हम उसे पूरा करेंगे। हुज़ूर ‘ग़िमाद’ के पानी तक हमें ले जाऐं हम साथ चलेंगे। अगर हुज़ूर हम से समंदर में कूदने का कहेंगे तो बेझिझक हम कूद जाएंगे।”
हज़रत ‘मिक़दाद’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- “या रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! हम हज़रत ‘मूसा’ अलैहिस्सलाम की क़ौम की तरह नहीं हैं जो कह दें कि – आप और आपका रब जाये और लड़ें। हम तो आख़िर में आयेंगे। हम तो आपके लिए दाएं-बाएं, आगे-पीछे तलवारों से लड़ने के लिए तैयार हैं।” हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जब अंसारियों की ये बात सुनी तो मुबारक चेहरा खिल उठा।