बद्र के मैदान की तरफ़
तारिख थी 12 रमजान / 2 हिजरी। लगभग 313 जांबाज़ मुस्लमान इस खूंखार जंग के लिए तैयार हो कर निकल पड़े। शहर से एक मील दूर आकर हुज़ूर(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़ौज का निरिक्षण किया और जो कम उम्र थे उन्हें वापस भेज दिया। ‘उमैर बिन विक़्क़ास’ रज़िअस्लाह अन्हु भी एक छोटे सिपाही थे, फ़ौज में मौजूद थे। जब हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की तरफ़ से वापस जाने का आदेश आया तो ये रो पड़े। आखिर हुज़ूर(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन्हें इजाज़त दे दी। इनके बड़े भाई ‘साद बिन विक़्क़ास’ रज़िअल्लाह अन्हु भी साथ थे। उन्होंने अपने छोटे भाई ‘उमैर’ रज़िअल्ल्ह अन्हु को एक तलवार पकड़ा दी। कुल मिलाकर अब फ़ौज में 313 लोग बचे जो अपनी जान को अल्लाह की राह में क़ुर्बान करने के लिए चले जा रहे थे। इस पूरी फ़ौज में केवल दो घोड़े थे। एक हज़रत ‘ज़ुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास और दूसरा हज़रत ‘मिक़दाद’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास था। ऊँटों की संख्या सत्तर थी। एक ऊँट पर दो-दो तीन-तीन लोग बारी-बारी से बैठते रहते। खुद अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु और ‘मरसद ग़नवी’ रज़िअल्लाह अन्हु एक ऊँट पर बारी-बारी बैठते थे।
दूसरी तरफ ‘क़ुरैश’ की फ़ौज साधन व सामान से लैस थी। फ़ौज में सभी बड़े सरदार साथ थे। ‘अबू लहब’ बीमारी के कारण इस युद्ध में नहीं आ पाया था तो अपने बदले उसने एक आदमी को भेज दिया। खाने-पीने का ये इंतेज़ाम था की फ़ौज के सरदार जैसे ‘अब्बास’, ‘उतबा बिन रबीआ’, ‘हर्स बिन आमिर’, ‘नस्र बिन हारिस’, ‘अबू जहल’, ‘उमय्या’ आदि बारी-बारी हर दिन दस ऊँट फ़ौज को खिलाते। इस फ़ौज का कमांडर ‘उतबा बिन रबीअ’ को बनाया गया था।
इसी बीच ‘अबू सुफियान’ के कारोबारी क़ाफ़िले को पूरी हालत का मालूम चला। उन्होंने तुरंत सावधानी बरती और वहाँ से निकल आये। ‘क़ुरैश’ को ‘बद्र’ के मैदान से कुछ दूर पता चला कि ‘अबू सुफियान’ का क़ाफ़िला अब खतरे से बाहर है। इस पर क़बीला ‘ज़हरा’ और ‘अदि’ के सरदारों ने कहा ‘अब लड़ने की कोई वजह नहीं बनती।’ लेकिन ‘अबू जहल’ बिल्कुल नहीं माना। काफी सोच-विचार के बाद क़बीला ‘ज़हरा’ और ‘अदि’ वापस लौट गए और बाकी फ़ौज हमले के लिए आगे बढ़ गयी।
अब क्यूंकि ‘क़ुरैश’ पहले पहुँच गए थे इसलिए उन्होंने मुनासिब जगह पर पड़ाव डाला। जबकि मुस्लमानों को जहाँ पडाव डालना था वहाँ कोई कुँवा या तालाब मौजूद नहीं था। ज़मीन भी ऐसी रेतीली थी कि ऊँटों के पाँव ज़मीन में धंस जाते थे।
‘हुबाब बिन मुनज़िर’ रज़िअल्लाह अन्हु एक बुद्धिमान सहाबा थे। उन्होंने हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से अर्ज़ किया कि जो जगह हमें मिली है वो अल्लाह की तरफ़ से हुक्म है या हम लोगों की योजना है? हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने कहा कि अल्लाह का हुक्म इस बारे में नहीं है। हज़रत ‘हुबाब’ रज़िअल्लाह अन्हु ने अर्ज़ किया तो फिर रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) बेहतर होगा कि हम आगे बढ़ कर पड़ाव डालें और पानी के स्रोतों पर क़ब्ज़ा कर लें और दुश्मन को पानी से दूर कर दिया जाये। हुज़ूर को ये मशवरा पसंद आया और इसी पर अमल किया गया। संयोग ये हुआ ये कि कुछ ही देर में मूसलादार बारिश शुरू हो गयी। बारिश इतनी ज़्यादा हुई कि रेतीली मिटटी जम कर कठोर हो गयी और लड़ाई के लिए अनुकूल हो गयी। इसके अलावा पीने का बहुत सा पानी जमा हो गया था। मुस्लमानों ने छोटे-छोटे गड्ढे बना कर पानी इकठ्ठा कर लिया था ताकि वज़ू और ग़ुस्ल के लिए काम आ जाये। पानी के स्रोतों पर क़ब्ज़ा कर लिया गया था लेकिन दयावान हज़रत ‘मुहम्मद'(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने दुश्मनों पर पानी की सख्ती नहीं की। पानी का इस्तेमाल दोनों फौजों के लोगों के लिए आम कर दिया गया।
बारिश के अलावा भी अल्लाह पाक ने एक और एहसान मुस्लमानों पर किया। चैन भरी नींद का। ऐसी सख्त जंग के खौफ़ भरे माहौल में पूरी फ़ौज बहुत आरामदेह और सुकून की नींद सोई। यक़ीनन ये अल्लाह पर भरोसा और अल्लाह की कृपा थी। लेकिन तब भी बस एक शख्स था जो सारी रात होशियार था और अपने रब से दुआ में व्यस्त था- ‘हज़रत मुहम्मद’ (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) । हुज़ूर ने सुबह पूरी फ़़ौज को नमाज़ के लिए जगाया, नमाज़ पढ़ाई और हक़ की जंग के लिए प्रेरित किया।