जंग की चिंगारियां भड़कते हुए
‘क़ुरैश’ तो जंग का इंतिज़ार बड़े चाव से कर रहे थे। कुछ नेक दिल लोग भी उनके साथ थे जो चाहते थे कि जंग में खून न बहे। इसमें ‘हकीम बिन हिज़ाम’ रज़िअल्लाह अन्हु भी थे (जो आगे चलकर मुस्लमान हो गए थे)। ‘हकीम’ रज़िअल्ल्ह अन्हु ने फ़ौज के कमांडर ‘उतबा’ से कहा ‘अगर आप चाहोगे तो आज का दिन आपकी महानता की यादगार बन जायेगा।’ ‘उतबा’ ने पूछा वो कैसे? ‘हकीम’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा ‘हमारे एक बन्दे (हिज़रमी) का खून बहा है। तो उसके खून का बदला हासिल करते हैं और बात को ख़त्म कर देते हैं।’ ‘उतबा’ एक नेक और समझदार आदमी था इसलिए उसे ये राय पसंद आयी। लेकिन आख़री फै़सला करने के लिए ‘अबू जहल’ की राय भी ज़रूरी थी। ‘उतबा’ ने जाकर सारी बात ‘अबू जहल’ से की तो वो सुन कर बोला ‘हाँ’। तो ‘उतबा’ की हिम्मत ने जवाब दे दिया! ‘उतबा’ के बेटे ‘अबू हुज़ैफ़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु इस्लाम ला चुके थे और सामने फ़ौज में मौजूद थे। इस वजह से ‘अबू जहल’ को लगा कि शायद ‘उतबा’ अपने बेटे का खून बहाने से बचना चाह रहा है। ‘अबू जहल’ ने ‘हिज़रमी’ के भाई ‘आमिर’ को बुला कर कहा – देख रहे हो तुम्हारे भाई के क़ातिल तुम्हारे सामने से बच कर जाने वाले हैं। ‘आमिर’ ग़ुस्से में आ गया और अपना कुर्ता फाड़ कर ज़ोर-ज़ोर से नारे लगाने लगा। ‘आमिर’ की इस हरकत से पूरी फ़ौज जंग के लिए आतुर हो गयी।
‘अबू जहल’ का ताना ‘उतबा’ के आत्मसम्मान पर सीधा हमला था। ‘उतबा’ ने कहा- ‘मैदान ए जंग बता देगा कि कायरता का धब्बा किसके दमन पर लगेगा।’ ये कहकर ‘उतबा’ ने अपने लिए जंगी टोपी माँगी। लेकिन’उतबा’ का सिर इतना बड़ा था कि कोई टोपी उसके नाप की न थी। मजबूरन सिर से कपड़ा बंधा और जंग के लिए तैयार हो गया।
हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को खून बहाना पसंद नहीं था। सहाबा ने मैदान के किनारे एक चबूतरा तैयार कर दिया था जहाँ से हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) फ़ौज की कमान संभाल रहे थे। ‘साद बिन मुआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु हुज़ूर की हिफाज़त में वहीं खड़े हो गए। भले ही अल्लाह की मदद और हिमायत का पूरा-पूरा यक़ीन था। फ़रिश्तों की फ़ौज साथ होने का एहसास था। लेकिन फिर भी दुनिया के संसाधनों को नज़र में रखते हुए हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उसी हिसाब से फ़ौज को तैयार किया। ‘मुहाजिर’, ‘ख़ज़रज’ और ‘औस’ की तीन टोलियाँ बनायी गयीं। मुहाजिरों का झंडा ‘मुसअब बिन उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु को दिया गया। ख़ज़रज का झंडा ‘हुबाब बिन मुनज़िर ‘रज़िअल्लाह अन्हु को दिया गया। साद बिन मुआज़ रज़िअल्लाह अन्हु को ‘औस’ का झंडा दिया। सुबह होते ही हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने खुद ही फ़ौज की कतारें तैयार कीं। हुज़ूर के मुबारक हाथ में एक तीर था। उसी के इशारे से लाइन सीधी करते हुए जा रहे थे। न कोई शख्स हल्का सा आगे हो न हल्का सा पीछे। लड़ाई में शोर व हुड़दंग आम सी बात है। फिर भी हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया की कोई ग़ैर ज़रूरी आवाज़ न निकाले। दोनों तरफ़ की फौजें तैयार खड़ीं थी। सच-झूट के सामने। ज़ालिम-मज़लूम के सामने और धर्म अधर्म के सामने थे।
ये इंसानी इतिहास का अजीब दृष्य था। अल्लाह का दीन सिर्फ चंद लोगों पर टिका हुआ था। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने रब के सामने हाथ फैलाये हुए थे। मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है ‘हुज़ूर पर निहायत फ़िक्र छाई हुई थी। हुज़ूर अपने दोनों हाथ फैलाये रब से कहते थे- ‘खुदाया! तूने मुझसे वादा किया है आज उसे पूरा कर दे।’ अपने रब के सामने इसी मांगने की हालत में चादर काँधे से गिर जाती थी और हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)को खबर नहीं हो पाती थी। कभी सजदे में गिरते थे और कहते- “ऐ अल्लाह! अगर ये कुछ लोग आज मारे गए तो फिर इस ज़मीन पर कोई तेरी इबादत करने वाला नहीं होगा।” हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इस हालत को देख कर ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु का दिल भर आया। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने अर्ज़ किया ‘हुज़ूर! अल्लाह अपना वादा ज़रूर पूरा करेंगे।’ तब हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के ऊपर अल्लाह पाक ने आयत की शक्ल में ख़ुशख़बरी दी –
‘उनकी फ़ौज को हरा दिया जाएगा और वो पीठ दिखा कर भाग जाएंगे।’ (सूरह क़मर – 45)
इस खुशख़बरी के आते ही हुज़ूर के चेहरे पर सुकून आ गया।
‘क़ुरैश’ की फौजों ने चढ़ाई शुरू कर दी। जब ‘क़ुरैश’ की फ़ौज क़रीब आ गयीं। हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबा से कहा आगे बढ़कर हमला नहीं करेंगे। जब दुश्मन पास आ जाएगा तो तीरों के हमले से रोकेंगे। साथ ही हुज़ूर अपनी फ़ौज के मनोबल बढ़ाने के लिए क़ुरआन की आयतें और अल्लाह की तरफ़ से ख़ुशख़़बरी का ज़िक्र कर रहे थे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया कि जो अल्लाह के रास्ते में शहीद होगा उसके लिए अल्लाह ने जन्नत तय कर दी है। ये सुनकर हज़रत ‘उमैर बिन हुमाम’ रज़िअल्लाह अन्हु खड़े हुए और कहने लगे ‘या रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)! ऐसी जन्नत जो ज़मीन और आसमान से भी ज़्यादा बड़ी है?” हुज़ूर ने फ़रमाया “हाँ”। उन्होंने फिर पुछा- “क्या ऐसी ही बात है?” हुज़ूर बोले- ‘ऐसी बात क्यों करते हो?’ ‘उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने जवाब दिया- ‘नहीं, या रसूलल्लाह! ये मैं सिर्फ़ इस शौक़ में कह रहा हूँ कि शायद मुझे भी वो जन्नत नसीब हो। रसूल अल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया ‘तुम्हें वो नसीब होगी।’
ये जंग कई पहलुओं से अजीब थी। ऐसी जंग जो पहले इंसानियत ने नहीं देखी थी। जब फौजें आमने-सामने आयीं तो दोनों तरफ एक-दुसरे के जिगर के टुकड़े थे। हज़रत ‘अबू बक्र’ रज़िअल्लाह अन्हु के बेटे ‘अब्दुर्रहमान’ (जो अभी तक मुस्लमान नहीं हुए थे) मैदान ए जंग में आमने सामने थे। ‘उतबा’ एक तरफ़ से आगे बढ़ा तो उसके सामने उसका बेटा हज़रत ‘हुज़ैफ़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु थे। हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु की तलवार अपने ही मामा के खून से रंगीन थी।