जंग की शुरुआत
लड़ाई की शुरआत हुई तो सबसे पहले ‘आमिर हज़रमी’ आगे आया। जिसका भाई क़त्ल हुआ था। इसके सामने हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु के ग़ुलाम आगे आये और इससे लड़ाई में हार कर मारे गए। इसके बाद ‘अबू जहल’ के ताने से भड़का हुआ ‘उतबा’ खुद मैदान की तरफ़ बढ़ा। ‘उतबा’ के साथ उसके दोनों बेटे ‘वलीद’ और ‘शेबा’ भी थे। अरबों में रिवाज था कि पहले दोनों फौजों के महारथियों का आमना-सामना हुआ करता था। उसके बाद बाकी की फ़ौज लड़ा करती थी। ‘उतबा’ और उसके बेटों के सामने हज़रत ‘ऑफ़’ रज़िअल्लाह अन्हु, हज़रत ‘मुआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु और हज़रत ‘अब्दुल्लाह बिन रवाहा’ रज़िअल्लाह अन्हु आगे आये।
‘उतबा’ ने उनसे उनका नाम और खानदान पूछा। जब पता चला कि मदीने के अंसार हैं तो कहा कि वापस जाओ, तुम हमारे जोड़ के नहीं। फिर ‘उतबा’ ने हुज़ूर को आवाज़ लगा कर कहा मुहम्मद! हमारी बराबरी के लोग भेजो। इसके बाद हुज़ूर की इजाज़त से अंसार वापस आ गए और हज़रत हमज़ा, हज़रत अली और हज़रत अबू उबैदा आगे बढे। ये लोग आमने-सामने आये तो इनके मुँह ढँके हुए थे। ‘उतबा’ ने इनसे नाम और ख़ानदान का नाम पूछा। इन्होंने बताया कि ‘मक्का’ के ‘क़ुरैश’ हैं। तब ‘उतबा’ ने कहा ‘हाँ अब हुई बराबरी की बात।’
‘उतबा’ की तलवार हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु से टकराई। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाहु अन्हु की ‘वलीद’ से और ‘हज़रत अबू उबैदा’ रज़िअल्लाह अन्हु की ‘शैबा’ से। ‘उतबा’ और ‘वलीद’ तो चाँद मिनट तक ही मैदान ऐ जंग में ज़िंदा रहे। जबकि ‘शैबा’ ने अबू ‘उबैदा’ रज़िअल्लाह अन्हु को ज़ख़्मी कर दिया। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु आगे बढे़ और ‘शैबा’ का क़िस्सा तमाम करके हज़रत ‘अबू उबैदा’ रज़िअल्लाह अन्हु को वहाँ से उठा लाये। हज़रत ‘अबू उबैदा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने वापस आ कर हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से पूछा ‘क्या मैं शहादत की शरबत से वंचित रहा?’ हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया ‘नहीं! तुमने शहादत पा ली।”अबू उबैदा रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा आज ‘अबू तालिब’ ज़िंदा होते तो मान जाते कि मैंने उनके इस शेर का हक़ अदा कर दिया-
‘हम मुहम्मद को उस वक़्त दुश्मनों के हवाले करेंगे जब उनके लिए लड़ कर मर जायेंगे।
और हम मुहम्मद के लिए अपने बेटों और बीवियों को भूल जाते हैं ‘
‘सईद बिन आस’ का बेटा ‘उबैदा’ सर से पाँव तक लोहे में बंधा हुआ था। वो फ़ौज से आगे बढ़ा और पुकार कर कहा ‘ मैं किर्ष का पिता हूँ।’ हज़रत ‘ज़ुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु उसके मुक़ाबले आये। अब क्यूंकि सिर्फ उसकी आँखें नज़र आ रही थी तो हज़रत ज़ुबैर ने उसकी आँखों को ही निशाना बनाया और ज़ोरदार बरछी दे मारी। बरछी सईद बिन आस के आर पार इस तरह हुई कि हज़रत ज़ुबैर को उसके सीने पे पाँव रख के बरछी को खींचना पड़ा। ये बरछी इतनी यादगार हुई कि हुज़ूर ने उनसे ये बरछी माँग ली। हुज़ूर के बाद चारों खलीफ़ाओं के पास ये बरछी रही और आख़िर में वापस हज़रत ‘ज़ुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास पहुँची। उस जंग में हज़रत ‘ज़ुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु को बहुत ज़ख्म लगे। कंधे पर ऐसा ज़ख्म आया था कि जब वो ठीक हो गया तब वहाँ छेद बन गया था। उनके बच्चे उससे खेला करते थे।
अब दोनों तरफ़ से जंग सख़्त हो गयी थी। ‘मक्का के क़ुरैश अपनी पूरी ताक़त से हमलावर हुए जबकि दूसरी तरफ़ मुस्लमान अल्लाह की मदद की उम्मीद पर अपनी पूरी जान से लड़ रहे थे। ‘अबू जहल’ इस्लाम के सबसे बड़े दुश्मनों में से था। उसके ज़ुल्म और सितम के चर्चे आज तक हैं। इस कारण से अंसार के दो लड़के ‘मुअव्विज़’ रज़िअल्लाह अन्हु और ‘मआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु ने तय कर लिया था कि जहाँ भी वो बदबख्त नज़र आएगा उसे क़त्ल कर देंगे। या तो उसे मिटा देंगे या खुद मिट जायेंगे।
हज़रत ‘अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु बताते हैं कि मैं क़तार में था कि मुझे मेरे दाएं और बाएं दो नौजवान नज़र आये। एक ने मुझसे पूछा कि चचा अबू जहल’ कहाँ हैं ? मैंने कहा ‘मेरे भाई अबू जहल के बारे में पूछ कर क्या करोगे?’ बोले कि मैंने अल्लाह से वादा किया है कि ‘अबू जहल’ को जहाँ देख लूँगा या तो उसे क़त्ल कर दूँगा या खुद मारा जाऊँगा। मैं अभी जवाब नहीं दे पाया था कि दूसरे नौजवान ने भी मुझसे यही सवाल किया। मैंने दोनों को ही इशारे से बताया कि ‘अबू जहल’ वो है। ये बताना ही था कि दोनों बाज़ की तरह उस तरफ झपटे। कुछ ही मिनटों में ‘अबू जहल’ ज़मीन पर गिरा हुआ था। ‘अबू जहल’ के बेटे ‘इकरिमा’ ने आकर ‘मुआज़’ पर हमला किया और उसका बाज़ू काट दिया। बाज़ू पूरा नहीं कटा बल्कि लटकता रह गया। ‘मुआज़’ ने ‘इकरिमा’ का पीछा किया लेकिन ‘इकरिमा’ इतने में फ़रार हो चुका था। ‘मुआज’ हाथ कटा होने के बावजूद भी लड़ते जा रहे थे। लेकिन लटके हुए हाथ से काफ़ी उलझन हो रही थी तो ‘मुआज़’ ने हाथ को अपने पाँव के नीचे दबाकर ज़ोरदार झटका दिया और हाथ उखड़ के अलग हो गया।
हुज़ूर ने लड़ाई से पहले फौजियों को बताया था कि इनमें से कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनी मर्ज़ी से नहीं आये बल्कि ‘क़ुरैश’ के दबाव में यहाँ है। हुज़ूर ने उनके नाम भी बता दिये थे। इनमें अबुल बख़्तरी भी था। ‘मुज्ज़र’ अंसारी की नज़र जब इन पर पड़ी तो कहा क्यूंकि हुज़ूर ने तेरे क़त्ल से मना किया है इसीलिए तुझे छोड़ रहा हूँ। ‘अबुल बख़्तरी’ ने कहा- मेरे साथ मेरा एक साथी भी है उसको भी जाने दें। ‘मुज्ज़र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- ‘नहीं।’ इस पर ‘अबुल बख़्तरी’ ने कहा- ‘तो फिर में अरब की औरतों का ये तना नहीं सुन सकता कि’अबुल बख़्तरी’ ने अपनी जान बचाने के लिए दोस्त का साथ छोड़ दिया। ये कहकर ‘अबुल बख़्तरी’ ये शेर पढ़ता हुआ लड़ने के लिए आ गया-
- ‘शरीफ़ ज़ादा अपने दोस्त को नहीं छोड़ सकता
- जब तक मर न जाये या मौत का रास्ता न देख ले’
‘उतबा’ और ‘अबू जहल’ के मारे जाने से ‘क़ुरैश’ की फ़ौज के पाँव उखड़ने लगे और मायूसी छा गयी। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के जानी दुश्मन ‘उमय्या बिन ख़लफ़’ भी इस जंग में शामिल था। हज़रत ‘अब्दुर्रहमान बिन ऑफ़’ रज़िअल्लाह अन्हु ने उससे किसी ज़माने में वादा किया था कि कल अगर वो मदीने आएगा तो ये उसकी जान व माल की हिफ़ाज़त करेंगे। बद्र की जंग में हज़रत अब्दुर्रहमान के पास अच्छा मौक़ा था कि इस ख़तरनाक दुश्मन का क़िस्सा पाक कर दिया जाये। लेकिन वादा निभाना इस्लाम के उसूलों पर ही चलना था इसीलिए ख्वाहिश थी कि ये बचकर निकल जाये। हज़रत ‘अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु मौक़ा देख कर उसको पहाड़ पर ले गए। इत्तेफ़ाक़ ये हुआ कि ये हज़रत ‘बिलाल’ रज़िअल्लाह अन्हु ने देख लिया और अंसार लोगों को खबर कर दी। अंसार तलवारें लेकर टूट पड़े। पहले तो उमय्या के बेटे को आगे कर दिया। वो मारा गया। फिर हज़रत ‘अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ‘उमय्या’ से कहा कि तुम लेट जाओ। ‘उमय्या’ लेट गया तो हज़रत अब्दुर्रहमान रज़िअल्लाह अन्हु उसके बचाव के लिए उस पर ढ़ाल बनकर छा गए। लेकिन अंसार नहीं रुके। हज़रत अब्दुर्रहमान रज़िअल्लाह अन्हु के पैरों के बीच में से तलवार मार कर ‘उमय्या’ को क़त्ल कर डाला। इस झपट में हज़रत ‘अब्दुर्रहमान’ रज़िअल्लाह अन्हु की टांग भी ज़ख़्मी हुई और यह ज़ख्म मुद्दतों तक रहा।
क़ुरैश की फ़ौज ने हथियार दाल दिए थे और मुस्लमानों ने उन्हें गिरफ़तार करना शुरू कर दिया था। हज़रत ‘अब्बास’ (हुज़ूर के चाचा), अक़ील (हज़रत अली के भाई), नौफ़ल, अस्वद बिन आमिर, अब्द बिन ज़मआ और बहुत से बड़े-बड़े लोग गिरफ़्तार किये गए। हुज़ूर ने हुक्म दिया कि कोई जाये और देखे कि ‘अबू जहल’ का क्या हाल बना। अब्दुल्लाह बिन मसूद’ रज़िअल्लाह अन्हु ने जाकर लाशों में देखा तो ज़ख़्मी पड़ा आखरी सांसें ले रहा था। ‘अब्दुल्लाह बिन मसूद’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा- ‘तू है अबू जहल?’ अबू जहल बोले- ‘ एक शख्स को उसकी क़ौम ने क़त्ल कर दिया तो क्या बड़ी बात है।’ अब्दुल्लाह बिन मसूद’ रज़िअल्लाह अन्हु ने तलवार निकाल कर उसका सिर धड़ से अलग कर दिया और हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़दमों में ला कर रख दिया।