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Toggleहज़रत उमैर बिन वहब रज़िअल्लाह अन्हु का इस्लाम क़ुबूल करना
‘उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु बिन वहब इस्लाम के कट्टर दुश्मनों में से था वो और ‘सफ़वान’ बिन उमय्या दोनों ‘बद्र’ में क़त्ल हुए कुरैशियों का मातम कर रहे थे। ‘सफ़वान’ ने कहा’अल्लाह की क़सम अब जीने में मज़ा नहीं।’ ‘उमैर’ ने कहा ‘सच कहते हो। अगर मुझपर क़र्ज़ न होता और बच्चों की ज़िम्मेदारी न होती तो मैं अभी सवार हो कर जाता और मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को क़त्ल कर आता। मेरा बेटा भी वहाँ क़ैद है।’ ‘सफ़वान’ ने कहा तुम क़र्ज़ की और बच्चों की फ़िक्र न करो। इन दोनों का ज़िम्मेदार मैं हूँ। ‘उमैर’ ये बात सुनी और हमले के लिए तैयार हो गए। उमैर ने तलवार को ज़हर में डुबोकर तैयार कर लिया । इस तलवार को लेकर ‘उमैर’ मदीना पहुँचे।
हज़रत ‘उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने जब ‘उमैर’ को देखा तो भांप गए कि ये अच्छी नियत से नहीं आया है। उसका गला पकड़ कर हुज़ूर के सामने ले गए। हुज़ूर ने फ़रमाया ‘उमर! छोड़ दो! उमैर’ क़रीब आ जाओ। फिर पुछा कि किस इरादे से आये हो? उमैर ने जवाब दिया कि बेटे को छुड़वाने आया हूँ। हुज़ूर ने फ़रमाया ‘फिर तलवार किस लिए लाये हो?’ ‘उमैर’ ने कहा- ‘तलवारें बद्र में भी कहाँ काम आयीं।’ हुज़ूर ने कहा ‘क्यों? तुमने और ‘सफ़वान’ ने मक्का में बैठ कर मेरे क़त्ल की साज़िश नहीं की ?’ ये बात सुन कर ‘उमैर’ दंग रह गए। ‘उमैर’ ने तुरंत कहा ‘मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आप वाक़ई अल्लाह के पैग़म्बर हैं। अल्लाह की क़सम इस मामले की ख़बर मेरे और ‘सफ़वान’ को छोड़ कर अन्य किसी को नहीं थी।’ ‘क़ुरैश’ के लोग जो ‘मक्का’ में इस इंतिज़ार में बैठे थे कि मुहम्मद मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के क़त्ल की ख़बर आएगी। उन तक ख़बर पहुँची कि ‘उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु तो मुस्लमान हो गये हैं।
नबी ने सहाबा से कहा कि अपने भाई को दीन सिखाओ। क़ुरआन याद कराओ और इनके बेटे को आज़ाद कर दो। ‘उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा’ ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे इजाज़त दीजिये कि मैं वापस ‘मक्का’ चला जाऊँ और वहीं इस्लाम का प्रचार करुँ। मेरे दिल में आता है कि मैं अब उन बुतों की पूजा करने वालों को उसी तरह सताऊँ जैसे मुस्लमानों को सताया करते थे।
वहाँ मक्का में ‘सफ़वान’ का ये हाल था कि क़ुरैश के सरदारों से कहा करता था ‘देखना उमैर क्या करके आएगा। बद्र का बदला लेने गया है।’ जब सफ़वान को उमैर रज़िअल्लाह अन्हु का मुस्लिम हो जाने का पता लगा तो सख़्त नाराज़ हुआ। उसने क़सम उठा ली कि जब तक ज़िंदा हूँ न ‘उमैर’ की मदद करूँगा न उससे बात करूँगा। उमैर मक्का आ गए और इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया। बहुत से लोग ‘उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु की बातों से इस्लाम में दाखिल हुए।
हज़रत फ़ातिमा रज़िअल्लाह अन्हा का निकाह
हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा हुज़ूर की सबसे छोटी बेटी थीं। अब उनकी उम्र 18 बरस हो चुकी थी। लिहाज़ा आपके लिए रिश्ते भी आने लगे थे। हुज़ूर अभी किसी भी रिश्ते के लिए तैयार नहीं हुए थे। जब हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु का पैग़ाम आया तो हुज़ूर ने सबसे पहले जाकर अपनी बेटी हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हु से बात की। हुज़ूर ने उनसे उनकी मर्ज़ी पूछी तो वो चुप रहीं। यह ख़ामोशी व हया के साथ स्वीकृत का संकेत था। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने वापस आकर हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु से मालूम किया कि तुम्हारे पास मेहर में देने के लिए क्या है ? हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु बहुत ग़रीब शख्स थे। मकान भी अपना नहीं था। लिहाज़ा ख़ामोश रहे और कुछ न होने का इज़हार किया। हुज़ूर ने पूछा- ‘वो हतिया की ज़िरह (कवच) का क्या हुआ?’ हज़रत’अली’ रज़िअल्लाह अन्हु ने फ़रमाया ‘वो तो मौजूद है।’ हुज़ूर ने कहा- ‘बस वो काफ़ी है।’
यहाँ इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि उस वक़्त हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु की कुल जमा पूँजी क्या थी। इस सवा सौ रूपये के कवच के अलावा एक भेड़ की खाल और एक यमनी चादर उनका कुल मिलाकर माल था। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु के पास यही कुछ था सो यही उन्होंने हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा के लिए दे दिया। हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु अब तक हुज़ूर के साथ ही रहा करते थे। शादी के बाद एक अलग घर की ज़रूरत थी। लेकिन हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु की गुंजाईश किराये के घर की भी नहीं थी। ‘हारिसा बिन नौमान’ रज़िअल्लाह अन्हु अंसारी के पास उस वक़्त काफ़ी मकान थे। जिनमें से कई वो पहले भी हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को तोहफे़ के तौर पर दे चुके थे।
हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा ने अपने बाबा जान से अर्ज़ किया कि आप हज़रत ‘हारिसा’ रज़िअल्लाह अन्हु से ही मकान के लिए कह दीजिये। आक़ा करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया ‘कहाँ तक! अब उनसे कहते हुए शर्म आती है।’ हज़रत हारिसा रज़िअल्लाह अन्हु को जब इस बात की खबर हुई तो फ़ौरन दौड़े चले आये और हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) से कहा ‘मैं और मेरे पास जो कुछ है सब आपका है। खुदा की क़सम जो मकान आप ले लेते हैं मुझे उससे खुशी होती है बजाय उसके जो मेरे पास रह जाता है। नतीजतन उन्होंने अपना एक मकान हज़रत अली के लिए तोहफ़ा में दे दिया। उसी घर की तरफ़ हज़रत ‘फातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा की विदाई की गयी।
हुज़ूर ने अपनी दिल से क़रीब बेटी हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा को एक चारपाई, चमड़े का गद्दा जिसके अंदर रुई की जगह खजूर के पत्ते भरे थे, एक पायल, एक पानी की मश्क, दो चक्कियाँ और दो मिटटी के घड़े घर के सामान के लिए दिए।
जब हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा और हज़रत ‘अली’ रज़िअस़ल्लाह अन्हु उस घर में रहने लगे तो एक रोज़ हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उनसे मिलने के लिए आये। आकर दरवाज़े पर दस्तक दी और इजाज़त मांगी। हुज़ूर अंदर दाखिल हुए और एक बर्तन में पानी मंगवाया। दोनों हाथ उसमें डाले और हज़रत ‘अली’ रज़िअल्लाह अन्हु के सीने और बाज़ुओं पर छिड़का। इसके बाद हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा को बुलाया और उनपर भी इसी तरह पानी छिड़का। हुज़ूर ने हज़रत ‘फ़ातिमा’ रज़िअल्लाह अन्हा से फ़रमाया’ मैंने तुम्हारा निकाह अपने ख़ानदान के सबसे श्रेष्ठ और बेहतरीन आदमी से किया है।’