बदले की आग
अरब में केवल एक आदमी के क़त्ल पर उम्र भर की जंगें छिड़ जाती थीं। बदला लेना अरब अपना ऐसा फ़र्ज़ समझते थे जिसे मरते हुए भी पूरा करना था। तो फिर सोचें कि बद्र की जंग हारने के बाद मक्का के अरबों का क्या हाल हुआ होगा। जंग-ए-बद्र में क़ुरैश के सत्तर आदमी मारे गए थे। जिसमें क़ुरैश के बड़े-बड़े नामवर सरदार भी थे। इस आधार पर पूरा मक्का प्रतिशोध लेने के जोश से भरा हुआ था।
बद्र में जो क़ाफ़िला था उसने काफी मुनाफा कमाया था। जब वो क़ाफ़िला मक्का पहुँचा तो उसमें हिस्सेदारों का निवेश रक़म वापस कर दी गयी थी और मुनाफ़े की रक़म को अमानत के तौर पर हिफाज़त से रख लिया गया था।
जब क़ुरैश बद्र की हार का मातम करके फ़ारिग़ हुए तो अपना बदला लेने का ख्याल आया। कुछ सरदार जिनमें ‘अबू जहल’ का बेटा ‘इकरिमा’ भी था। उन लोगों के साथ जिनके परिवार के सदस्य जंग में मारे गए थे ‘अबू सुफियान’ के पास पहुँचे। ‘अबू सुफ़ियान’ से कहा ‘मुहम्मद ने हमारी क़ौम का खत्मा कर दिया है। अब प्रतिशोध का समय है। हमारी इच्छा है कि व्यापर से जो फ़ायदे की रक़म हमने जमा की है उसको बदले की तैयारी में लगाया जाये। ये ऐसी दरख्वास्त थी जो मक्का में रहने वाले हर दुश्मन के दिल में थी। इसके न माने जाने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। लेकिन अब क़ुरैश को मुस्लमानों की ताक़त का अंदाजा था। अब पिछली जंग वाला कोई पैंतरा काम न आएगा। ज़्यादा लोगों की और अच्छे हथियारों की ज़रूरत थी। अरब लोगों में दिल को गर्माने और जोश फैलाने के लिए शायरी की मदद ली जाती थी।
क़ुरैश में दो शायर बड़े मशहूर थे -‘अम्र जुमहि’ और ‘मुसाफ़ह’। अम्र जुमहि बद्र की जंग में क़ैद हो गया था लेकिन ये ग़रीब था और बेटियों का बाप भी था इसीलिए हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को रहम आ गया और इसे छोड़ दिया। क़ुरैश के निवेदन पर अम्र और मुसाफ़ह मक्का के क़बीलों में घूमने लगे और अपनी शायरी से मक्का वालों को जंग के लिए उभारने लगे। इनकी शायरी से बदले की आग मक्का वाले के सीनो में दहकने लगी। जंगों में ज़ोर बढ़ाने का एक तरीक़ा औरतें भी थी। जिन जंगों में अरब अपनी औरतों को लेकर जाते थे उनमें वो जी जान से लड़ते थे। उन्हें ख़तरा रहता था कि अगर जंग हारे तो वो औरतें दुश्मन के हाथों में चली जाएँगी। बहुत सी औरतें अरब में ऐसी भी थी जिनके बच्चे जंग ए बद्र में मारे गए। इसीलिए वो भी बदले के आक्रोश में थी। उन्होंने मिन्नतें माँगी थी कि औलाद के क़ातिलों का खून पी कर ही सुकून पाएंगी। फ़ौज के साथ बड़े-बड़े घरों की इज़्ज़तदार महिलाऐं भी जाने के लिए तैयार हो गयीं।
हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ‘हिंदा’ के बाप ‘उतबा’को क़त्ल किया था। हिंदा का घुलम वहशी था। वहशी बरछी चलाता था और अपने हाथ में कमाल का हुनर रखता था। वहशी से इस बात को तय कर लिया गया कि अगर वो हज़रत ‘हमज़ा’ रज़िअल्लाह अन्हु को क़त्ल कर देगा तो उसे आज़ाद कर दिया जाएगा।
हज़रत ‘अब्बास’ रज़िअल्लाह अन्हु जो हुज़ूर के चाचा थे और इस्लाम ला चुके थे। मक्का में ही रहते थे। जैसे ही उन्होंने हालात बदलते हुए देखे तभी सारा हाल चिट्ठी में लिख कर तेज़ी से भिजवा दिया। ख़त ले जाने वाले ने पूरी तेज़ी दिखाई और मक्का-मदीना के बीच की दूरी को तीन दिन में पूरा कर दिया। हुज़ूर को जैसे ही इस बात का इल्म हुआ तो 5 शव्वाल, 3 हिजरी को दो ख़बर खोजी जिनके नाम ‘अनस’ और ‘मोनिस’रज़िअल्लाह अन्हु थे, ख़बर लाने के लिए भेजे। उन्होंने आकर ख़बर दी कि क़ुरैश की फ़ौज मदीने के क़रीब आ चुकी है। यहाँ तक कि मदीने की चरागाह (जहाँ जानवर चराये जाते थे) उनके घोड़ों ने साफ़ कर दी है।
हुज़ूर ने जल्दी से हुबाब बिन मुनज़िर रज़िअल्लाह अन्हु को भेजा कि वो जाएँ और फ़ौज का जायज़ा लेकर उनकी संख्या का आंकड़ा लाएं। हमला होने का खतरा था इसीलिए हर जगह पहरेदार तैनात किये गए। हज़रत ‘साद बिन उबादा’ रज़िअल्लाह अन्हु और ‘साद बिन मुआज़’ रज़िअल्लाह अन्हु हथियार लगाकर मस्जिद नबवी का पहरा देते।
सुबह होते ही हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबा को इकठ्ठा किया और जंग के बारे में बात चीत शुरु की। मुद्दे की बात ये थी कि जंग मदीने के अंदर रहकर प्रतिरक्षा निति से लड़ी जाये या मदीने से बहार जाकर आक्रमण निति से। अक्सर मुहाजिर और अंसार में उम्रदराज़ समझदार लोगों की राय ये थी कि औरतों को बाहर क़िलों में भेज दिया जाये और हिफाज़त के लिए शहर में ही रहकर जंग लड़ी जाये। ‘अब्दुल्लाह बिन उबई’ जो मुनाफ़िक़ों में से था और अब तक किसी मशवरे में हिस्सेदार नहीं हुआ था उसकी भी राय यही थी कि जंग प्रतिरक्षा निति से लड़ी जाये।
लेकिन वो सहाबा जो बद्र की जंग में शामिल नहीं हुए थे और बद्र के क़िस्से सुन रखे थे कि किस तरह अल्लाह की मदद आयी उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि जंग बाहर आक्रमक निति से लड़ी जाये। हुज़ूर अपने घर गए और जंग का लिबास पहन कर तैयार हुए। बाद में उन लोगों को एहसास हुआ कि हमने ‘रसूलल्लाह’ (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ काम करने पर आमादा किया है। लज्जित होते हुए उन्होंने हुज़ूर से अर्ज़ किया कि हम अपनी राय ख़ारिज करते हैं। अंदर रहकर लड़ना ठीक होगा। हुज़ूर ने फ़रमाया ‘यह एक पैग़म्बर को शोभा नहीं देता कि वो हथियार पहन कर उतार दे।’