ओहद में
क़ुरैश की फ़ौज बुध के दिन मदीना के क़रीब पहुँची और ओहद पहाड़ पर पड़ाव डाला। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) जुमे की नमाज़ पढ़ाकर एक हज़ार लोगों के साथ ओहद की तरफ़ चले। इन एक हज़ार लोगों में ‘अब्दुल्लाह बिन उबई’ के साथ तीन सौ लोग थे। क्योंकि वो कम्बख्त मुनाफ़िक़ था और इस्लाम के लिए नहीं लड़ना चाहता था इसीलिए बीच रास्ते से तीन सौ आदमियों को लेकर लौट गया। कहा कि मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मेरी राय नहीं मानी। तीन सौ लोगों का बीच राह से चले जाना फ़ौज के मनोबल को कमज़ोर करने वाला कदम था। हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ अब केवल सात सौ लोग रह गए थे।
इस फ़ौज में सौ ज़िरहपोश (कवचधारी) सैनिक थे। मदीने से निकल कर हुज़ूर ने फ़ौज का जायज़ा लिया और जो कम उम्र लड़के थे उन्हें वापस भेज दिया। इनमें आने वाले वक़्त के बड़े-बड़े नाम जैसे ‘ज़ैद बिन साबित’ रज़िअल्लाह अन्हु, ‘बरा बिन आज़िब’ रज़िअल्लाह अन्हु, ‘अबू सईद खुदरी’ रज़िअल्लाह अन्हु, ‘अब्दुल्लाह बिन उमर’ रज़िअल्लाह अन्हु और ‘अराबा ओवैसी’ रज़िअल्लाह अन्हु थे। हुज़ूर से मुहब्बत का ये हाल था कि जब नौजवानों को वापस भेजने की बात हुई तो ‘राफ़े बिन ख़दीज’ रज़िअल्लाह अन्हु पैर के अंगूठों के बल तन के खड़े हो गए ताकि क़द ऊँचा नज़र आ सके। उनकी ये तरकीब काम कर गयी और उन्हें फ़ौज में रख लिया गया। ‘समरा’ रज़िअल्लाह अन्हु एक नौजवान सहाबा थे। उन्होंने ये दलील दी कि मैं ‘राफ़े’ रज़िअल्लाह अन्हु को कुश्ती में हरा दूँगा। इसलिए अगर ‘राफ़े’ रज़िअल्लाह अन्हु जंग में जा सकते है तो मैं भी जंग में जाऊँगा। दोनों का मुक़ाबला कराया गया और ‘समरा’ रज़िअल्लाह अन्हु ने ‘राफ़े’ रज़िअल्लाह अन्हु को चित कर दिया और फ़ौज के साथ शामिल हो गए।
हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ओहद की तरफ पीठ करके फ़ौज की क़तारें बनवायीं। हज़रत ‘मुसअब बिन उमैर’ रज़िअल्लाह अन्हु को झंडा दिया गया। ‘ज़ुबैर बिन अवाम’ रज़िअल्लाह अन्हु को फ़ौज के बग़ैर कवच वाले सिपाहियों का कमांडर बनाया गया। ओहद पहाड़ के पीछे से दुश्मन के हमले का अंदेशा था लिहाज़ा हुज़ूर ने पचास तीरंदाज़ों को वहाँ तैनात किया। उन्हें हुक्म दिया कि चाहे हम जीत भी जाऐं तुम ये जगह मत छोड़ना। ‘अब्दुल्लाह बिन जुबैर’ रज़िअल्लाह अन्हु को इन तीरंदाजों का मुखिया बनाया गया।
क़ुरैश बद्र में हार से तजुर्बा हासिल कर चुके थे। इसलिए इस बार बहुत तरीक़े से फ़ौज को तैयार किया था। दाहिनी ओर की फ़ौज की कमान ‘ख़ालिद बिन वलीद’ को दी गयी और बायीं ओर की कमान ‘अबू जहल’ के बेटे ‘इकरिमा’ को। घुड़सवारों के दस्ते का अफ़सर ‘सफ़वान बिन उमय्या’ को बनाया गया। तीरंदाजों की टुकडी अलग थी जिसका अफ़सर ‘अब्दुल्लाह बिन राबिआ’ को बनाया गया। झंडा ‘तल्हा’ के हाथ में था। दो सौ घोड़े खरीदे गए थे कि जंग में ज़रूरत पड़े तो कम न रहें। युद्ध का नगाड़ा बजने की जगह क़ुरैश की औरतें शेर पढ़ते हुए आगे बढ़ीं। जिन शेरों में बद्र में मारे गए लोगों का मातम और उनके इन्तिक़ाम का ज़िक्र था। इन औरतों की सरबराह ‘अबू सुफियान’ की बीवी ‘हिंद’थी। अपने साथ चौदह (14) औरतों को लेकर निम्नलिखित शेर पढ़ते हुए मैदान में आयी-
- हम आसमान के तारों की बेटियाँ हैं।
- हम क़ालीनों पर चलने वाली हैं।
- अगर तुम बढ़ कर लड़ोगे तो तुमसे गले मिलेंगे।
- अगर पीछे क़दम हटाया तो हमसे अलग हो जाओगे।