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पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आयु मुबारक लगभग पैंतीस (35) वर्ष थी। मक्का शहर के लोगों पर पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) का आचरण आसमान की तरह साफ़, खुला और उच्च था। लोगों के दिलों में पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए इतनी इज़्ज़त थी कि कोई आपको नाम से नहीं पुकारता था। बल्कि लोग पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को सादिक़ – सच्चा और अमीन -अमानतदार कह कर बुलाते थे।
एक बार बारिश और सैलाब के कारण काबे की इमारत को काफ़ी नुक़सान हुआ था। इसके बाद वहाँ के लोगों ने इसे दोबारा से बनाने का इरादा किया। काबे की मरम्मत और बनाने में सभी बराबर के हिस्सेदार थे मगर परेशानी तब आयी जब “हज्र ए असवद”(स्वर्गलोक का एक पत्थर) को रखने का समय आया। हर समुदाय चाहता था ये शुभ काम उनके द्वारा हो। इसी बात को लेकर बहस बढ़ गयी और नौबत मारपीट की आ गयी। अरब में परंपरा थी जब कोई शख्स जान देने की क़सम खाता था तो एक प्याले में खून भर कर उसमें उँगलियाँ डुबो लेता था। इस मौके पर भी कई लोगों ने ऐसा किया। चार दिन तक बहस और झगड़ा चलता रहा। हर दिन झगड़ा बढ़ता हुआ लग रहा था। पांचवें दिन “अबू उमय्या बिन मुग़ीरा” ने जो एक बड़ा सरदार था, एक प्रस्ताव रखा। जो भी व्यक्ति कल प्रातःकाल सबसे पहले यहाँ प्रवेश करेगा वही हमारे बीच सुलह कराएगा। सभी को ये मशवरा पसंद आया और सबने उपाय को सहर्ष स्वीकार कर लिया।
अल्लाह की लीला कुछ और ही थी कि अगले दिन सबसे पहले पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तशरीफ़ ले आये। हुज़ूर को देखना था कि सबने एक आवाज़ में कहा “हाज़ल अमीनू रज़ीन” अमीन आ गए हैं ! हम सब इनके फैसले से सहमत हैं। मामला समझने के बाद पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बेहद सीधा सादा हल निकला। आपने अपनी चादर कंधों से उतरी और लोगों से कहा।” सब मिलकर संगे अवसद(स्वर्गलोक का पत्थर) को बीच में रख दें। सबने मिलकर उसे उठाया और आपकी चादर पर रख दिया। फिर चादर के चारों कोने को क़बीलों के सरदारों से पकड़कर उठाने के लिये कहा और जब संगे असवद जहाँ रखा जाना था सरदारों ने वहाँ तक चादर के सहारे संगे असवद को पहुँचा दिया तो “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) उसे उसके स्थान पर आपने हाथों उठाकर उसकी(संगे असवद की) जगह पर रख दिया। इस मामूली सी तदबीर से पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सबको ख़ुश कर दिया और एक खूंखार जंग को टाल दिया।
अरब के लोग और हुज़ूर
मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)इतने प्रसिद्ध होने के उपरान्त भी लोगों के बीच अकारण नहीं बैठा करते थे। बचपन से लेकर जवानी तक आप हर तरह की बुरी रस्मो-रिवाज, मूर्ति पूजा व शराब के सेवन जैसी बुरी चीज़ों से बचते रहे। क़बीला “क़ुरैश” का ये मानना था कि वो क्योंकि काबे के रखवाले हैं इसीलिए वो बाक़ी लोगों से बड़े और अलग हैं। इसी वजह से उन्होंने ये ऐलान करा दिया था कि हज के दिनों में “क़ुरैश” का “अराफात” के मैदान जाना ज़रूरी नहीं। वो लोग जो बाहर से हज करने आएँगे वो “क़ुरैश” के कपड़े पहनेंगे या बिना कपड़ो के हज करेंगे, इसी के चलते बिना कपड़ों के हज का रिवाज बढ़ गया था। लेकिन पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)ने कभी इन बातों में अपने ख़ानदान का सहयोग नहीं किया।
“क़ुरैश” अक्सर बुतों के नाम पर जानवर ज़िब्ह करते थे। अगर कभी हुज़ूर के सामने वो ये गोश्त पेश करते तो पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)साफ़ इंकार कर देते। और अपने क़रीबी लोगों को भी इसी बात की सीख देते। पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)के अच्छे आचरण और ऊँचे पदासीन को ध्यान में रखते हुए कोई उनसे कुछ नहीं कहता था।
इंसानियत का सूर्योदय
अल्लाह की आदत रही है कि जब कभी इंसानों में बिगाड़ आया है तो अल्लाह ने अपने मासूम बन्दों को पैग़म्बर बना कर भेजा। हज़रत ‘नूह’ अलैहिस्सलाम से ये सिलसिला चलता हुआ हज़रत “इब्राहिम’ अलैहिस्सलाम, हज़रात “याक़ूब”अलैहिस्सलाम, हज़रत “युसूफ़” अलैहिस्सलाम, हज़रत “मूसा” अलैहिस्सलाम और हज़रत “ईसा” अलैहिस्सलाम भी इसी सिलसिले के लोग हैं। नबी दुनिया में आते और लोगो को भलाई की ओर बुलाते। बुरी रस्मो-रिवाजों से रोकते और एक अल्लाह की ईबादत का संदेश देते। कुछ लोग पैग़म्बर को मानते कुछ अपनी ही धुन में लगे रहते। पैग़म्बर के दुनिया से जाते ही फिर से बुराई का बोल बाला हो जाता।
पैग़म्बर के सिलसिले के आख़री शख़्स पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम थे। यूँ तो पुराने नबियों और आसमानी किताबों में अक्सर पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)का ज़िक्र आखरी नबी के तौर पर प्रत्येक आसमानी किताबों में आता रहा है लेकिन आपकी ख़ूबियों और अच्छाईयों से प्रतीत होता था कि आप अल्लाह के ख़ास बन्दों में से हैं। जैसे-जैसे नबूवत मिलने का समय क़रीब आता जा रहा था पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)का मिज़ाज तन्हाई पसंद होने लगा था। आप पानी और सत्तू लेकर शहर से दूर पहाड़ों में चले जाते थे। लम्बे समय तक वहीं रहते। वापस आते तो बस खाना-पानी लेने। पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)अपना अधिकांश समय ईबादत में और ध्यान लगाने में वय्तीत करते। पहाड़ों में एक गुफ़ा थी। जिसका नाम “ग़ार ए हिरा” था आप वहीं पर रहा करते थे।
नबूवत मिलने से छह महीने पहले से अक्सर ऐसा होता कि जो ख्वाब हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) देखते, अगले दिन हू बा हु हक़ीक़त हो जाता। ऐसे ही कई और आश्चय जनक घटानाऐं पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ होने लगीं। एक दिन अपनी दैनिक दिनचर्या के अनुसार पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ईबादत में व्यस्त थे तभी एक लम्बी क़द-काठी का रोबदार शख्स गुफ़ा में प्रकट होता है। यह असल में फ़रिश्ता “जिब्रील” अमीन थे जो अल्लाह पाक का संदेश उनके नबियों तक पहुँचते थे। हज़रत “जिब्रील” अमीन ने हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ज़ोर से जकड़ लिया और कहा “इक़रा” यानी पढ़ो! पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने जवाब दिया “मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।” फ़रिश्ते ने फिर पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को ज़ोर से दबोचा और दोबारा कहा “इक़रा” यानी पढ़ो! पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फिर से जवाब दिया “पढ़ा हुआ नहीं हूँ।” तीसरी बार भी इस तरह ज़ोर से दबोचा और कहा “इक़रा”, पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फिर यही इरशाद फ़रमाया “पढ़ा हुआ नहीं हूँ” इस बार फ़रिश्ते ने कहा:
इक़रा बिस्मी रब्बि कल्लज़ी ख़लक़। ख़लाक़ल इंसाना मिन अलक़। इक़रा व रब्बुकल अकरम। अल्लज़ी अल्लामा बिल क़लम। अल्लमल इंसाना मालम या’लम।
अनुवाद:- “पढ़िए अपने परवरदिगार के नाम से जिस ने सब कुछ पैदा किया। जिसने इंसान को पानी के कीड़े से बनाया। पढ़िए। आपका परवरदिगार तो बड़ा करम वाला है जिसने इंसान को क़लम के ज़रिये से तालीम दी। जिसने इंसान को वो बातें बतायीं जो वो नहीं जानता था।”
हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने अल्लाह के आदेश से वो संदेश पढ़ा और पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वहाँ से निकलकर अतिशीघ्र घर की ओर लौटे। परवरदिगार के सन्देश के तेज की वजह से पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को बुखार आ गया था। घर पहुँच कर लेट गए और अपनी पत्नी हज़रत “खदीजा” रज़िअल्लाह अन्हा से कुछ ओढ़ने के लिए चादर माँगी। तबियत जब थोड़ी सी सम्भली तो पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)ने हज़रत “खदीजा” रज़िअल्लाह अन्हा से कहा मैं ऐसी चीज़े देखता हूँ कि मुझे अपनी जान का ख़तरा होता है। हज़रत “खदीजा” रज़िअल्लाह अन्हा ने पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को कहा “आप क्यों डरते हैं। आप तो रिश्तेदारी जोड़ने वाले हैं। सच बोलते हैं। विधवाओं, अनाथों और कमज़ोरों की मदद करते हैं। मेहमान नवाज़ी करते हैं। परेशान हाल लोगों से हमदर्दी करते हैं अल्लाह आपको कभी नुकसान नहीं पहुँचायेगा।” ये सुनकर प्यारे आक़ा हज़रत “मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को थोड़ी राहत आयी।
हज़रत “खदीजा” रज़िअल्लाह अन्हा मामले को समझने के लिये अपने चचेरे भाई “वरक़ा बिन नौफ़ल” के पास पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ गयीं। “वरक़ा” “इब्रानी” भाषा जानते थे। साथ ही उन्हें “बाईबिल” और ” तौरात ” का भी अच्छा ज्ञान था। पैगम्बर मोहम्मद(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सारा घटनाक्रम “वरक़ा बिन नौफल” को सुना दिया। “वरक़ा” ने कहा ये वही फ़रिश्ता है जो इनसे पहले हज़रत “मूसा” अलैहिस्सलाम और हज़रत “ईसा” अलैहिस्सलाम के पास रहा है। काश मैं जवान होता काश मैं उस वक़्त तक ज़िंदा रहता जब तुम्हें तुम्हारी क़ौम तुम्हारे शहर से निकाल देगी। प्यारे नबी हज़रत”मुहम्मद” (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने पूछा “क्या मेरी क़ौम मुझे निकाल देगी”? “वरक़ा” ने उत्तर दिया “ हाँ इस दुनिया मैं जिस किसी ने ऐसी शिक्षा और दर्शन पेश किया है उससे शुरु में नफ़रत और घृणा ही की गयी है। काश में हिजरत (विस्थापन) तक ज़िंदा रहूँ और आपकी दिल खोल कर ख़िदमत करूँ।
इस तरह से हज़रत “जिब्रील” अमीन के आने का शुरू हो गया। हज़रत “जिब्रील” अमीन आते और हुज़ूर हज़रत”मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को अल्लाह का संदेश सुनाते। वो बताते कि किस तरह से अल्लाह की इबादत की जाये। किस तरह परवरदिगार को याद किया जाये।