ग़ज़वा हुनैन
अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को रूमियों की ख़बर मिली कि वो अ़रब के उत्तरी इलाक़ों पर हमले की तैयारियां कर रहे हैं। ऐसा हमला जो मुसलमानों के मुआता के हमले को भुला देगा। आप(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फै़सला किया कि वो स्वयं इस जंग में शरीक होंगे और रूमियों के सरदारों को वो सबक़ सिखायेंगे कि वो मुस्लमानों से लड़ने या हमला करने की बात कभी नहीं सोचेंगे। गर्मियों का मौसम अपने आख़िरी हफ़्तों में था और गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी। फिर मदीने से शाम तक का सफ़र इस शदीद गर्मी में निहायत दुशवार था। इस सफर में खाने-पीने और रसद के अलावा संयम बहुत ज़रूरी था। लिहाज़ा ये ज़रूरी हुआ कि लोगों को बता दिया जाये के रूम की सरहद पर जाकर लड़ना है। जबकि ये बात अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आदत और तरीक़े के खि़लाफ़ थी जो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ) ने पीछे होने वाली लड़ाईयों में अपनाई थी जिनमें आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने मक़सद और मंज़िल दोनो को न सिर्फ़ राज़ में रखते थे बल्कि अक्सर ऐसे रास्ते से सफ़र करते थे कि दुश्मन उनकी मंज़िल के बारे में धोके में रहे। लेकिन इस बार आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने लोगों को बता दिया कि उनका लक्ष रूम की सरहदों पर जाकर लड़ने का है। फिर क़बीलों से कहा गया के वो तैयारी करें और जितनी बड़ी फ़ौज तैयार करना मुम्किन था वो की गई। मुस्लमानों में जो लोग हैसियत वाले थे उन्हें हुक़्म दिया गया कि वो जो कुछ अल्लाह ने अपनी कृपा से उन्हें दिया है उसमें से इस फ़ौज के लिये लायें। आप(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ) ने लोगों को इस फ़ौज में शामिल होने के लिये प्रोत्साहित किया।
ऐसे प्रोत्साहन पर लोगों की प्रतिक्रिया भिन्न भिन्न थी। वो लोग जिन्होंने इस्लाम को सच्चे दिल से क़ुबूल किया था और उनके सीने हिदायत और नूर से भरे हुए थे। उन्होंने फ़ौरन इस पर लब्बैक कहा और शामिल हो गये। इन में ऐसे ग़रीब लोग भी थे जिनके पास अपने लिये एक सवारी भी न थी और इनमें ऐसे दौलत मंद लोग भी थे जिन्होंने अपना सब कुछ सामने लाकर रख दिया कि जंग में काम आ जाये। ये दोनों किस्म के लोग अपने आपको अल्लाह के रास्ते में शहीद होने के शौक़ में पेश कर रहे थे। इनके विपरीत वो लोग जो या तो लालच या ख़ौफ़ के कारण इस्लाम में इच्छा के विपरीत से दाखि़ल हुये थे। जिन्हें ग़नीमत के माल का लालच, या मुस्लमानों की ताक़त का ख़ौफ़़ था वह बहाने तराश रहे थे और उनके कदम नहीं उठ रहे थे। इनका अमल बस वाजबी था और ये लोग आपस में काना फूसी करते कि इतनी दूर इस जलती तपती गर्मी में ले जाकर लड़ाया जा रहा है। ये मुनाफिक़ थे और एक दूसरे से कहते थे कि इस गर्मी में न निकलो। इस पर अल्लाह तआला ने ये आयत नाज़िल फरमाई।
और उन्होंने कह दिया के इस गर्मी में मत निकलो। कह दीजिये के दौज़ख़ की आग बहुत ही सख़्त गर्म है काश के वो समझते होते। पस उन्हें चाहिये कि बहुत ही कम हंसे और बहुत ज़्यादा रोयें। बदले में इसके कि जो ये करते हैं। (सूरहः तौबाः 26)
इन्हीं बहाना बनाने वालों लोगों में से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बनी ‘सलमा के जद् बिन क़ैस से पूछा के एै ‘जद’ क्या तुम बनी असफ़र से लड़ना चाहोगे? तो उसने जवाब दिया। ऐ अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आप मुझे रहने दीजिये। इम्तेहान में न डालें। मेरे सारे लोग जानते हैं कि मैं औरतों के मामले में कच्चा हूँ। वहाँ बनी ‘असफ़र’ की रूमी औरतें देखूँगा तो ख़ुद को रोक नहीं पाऊँगा।
हज़रत (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने उससे किनारा कशी इख़्तियार कर ली। इस सिलसिले में ये आयत नाज़िल हुई।
इनमें से कोई तो कहता है मुझे इजाज़त दीजिये। मुझे फ़ितने में न डाले। होशियार रहों वो तो फ़ितने में पड़ चुके हैं और यक़ीनन दोज़ख़ काफ़िरों को घेर लेने वाली है। (सूरहः तौबाः 49)
इन पाखंडियों ने इस बात पर संतोष नहीं किया कि ख़ुद लड़ाई में न जानें के बहाने बनायें बल्कि ये दूसरों को भी रोकते थे। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फै़सला किया के इन पाखंडियों से सख़्ती से निमट कर इन्हें सबक़ सिखाया जाये। ख़बर मिली कि मुनाफ़िक़ीन ‘सुयलम’ नाम के एक यहूदी के घर जमा हो रहें हैं ताकि लोगों के दिलों में वसवसे डाल कर उनको लड़ाई पर जाने से रोक दिया जाये। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने हज़रत ‘तलहा इब्ने उ़बैदुल्लाह’ रज़िअल्लाह अन्हु को कुछ और सहाबा के साथ वहाँ भेजा। जिन्होंने उस घर को जला दिया और वहाँ जमा लोगों को अपनी जान बचा कर भाग जाना पड़ा। इनमें एक मुनाफ़िक़ घर के पिछले दरवाज़े से भागता हुआ अपना टांग तोड़ बैठा। इससे और लोगों को सबक़ मिला के इस किस्म की हरकतों से बाज़ आयें।
जिस शिद्दत और मज़बूती से हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने ये फ़ौज जमा की इसका संतोषजनक परिणाम निकला और एक बहुत बड़ी तादाद इकट्ठा हो पाई जो तीस हज़ार तक पहुँच गई। इस फ़ौज को ‘जैश उल उ़सरा’ कहा गया यानि एैसी फ़ौज जो बड़ी सख़्त हालात में हो। इस फ़ौज का मुक़ाबिला रूम की बहुत बड़ी फ़ौज से था और इसे मदीने से बहुत दूर जाकर सख़्त गर्मी में लड़ना था। हुज़ूर (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) मदीने में वहाँ के मामले के काम अंजाम दे रहे थे और आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ग़ैर मौजूदगी में हज़रत ‘अबू बक़्र’ रज़िअल्लाह अन्हु ने फ़ौज की नमाज़ की इमामत की। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने मदीने पर ‘मुहम्मद बिन मुस्लिमा’ रज़िअल्लाह अन्हु को अपना नायब मुक़र्रर फ़रमाया और हज़रत ‘अ़ली’ रज़िअल्लाह अन्हु को अपने अहल ओ अ़याल की ज़िम्मेदारी सौंपी और हुक्म दिया कि वो उन्हीं के साथ रहें। इसके अलावा अपनी ग़ैर मौजूदगी के दर्मियान कामों के लिये मुनासिब हुक्म दिये और फ़ौज में लौट आये और इसकी कमान संभाली।
फिर हुक्म दिया और फ़ौज निहायत सम्मान के साथ आगे बढ़ी जिसे तमाम अहले मदीना ने देखा। औरतें घरों की छत पर चढ़ कर सेहरा में फ़ौज का शाम की जानिब रवाना होने का ये शानदार नज़ारा देख रहीं थीं। फ़ौज अल्लाह तआला के रास्ते में भूख, प्यास और गर्मी से बेख़ौफ शाम की तरफ रवाँ दवाँ थी। जो लोग पीछे छूट गये थे। उन्हें भी अब हिम्मत हुई और वो भी फ़ौज से मिले। इधर ‘तबूक’ में रूमियों की फ़ौज डेरा डाले हुए थी और मुस्लमानों का मुक़ाबला करने की तैयारी कर रही थी। रूमियों को जब मुस्लिम फ़ौज के बारे पता चला के वो इतनी बड़ी तअ़दाद मे आ रही है तो उन्हें ‘मुअता’ की जंग याद आ गई। जंग में मुस्लमानों की तअ़दाद और ताक़त कम होने के बावूजूद उन्होंने निहायत बहादुरी और चालाकी से मुक़ाबला किया था। इस बार तो हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) खुद मुस्लिम फ़ौज की कमान्दारी कर रहे हैं। इससे दुश्मन इतना भयभीत हुआ कि उसने ‘तबूक’ से पीछे हट कर शाम के अंदूरुनी हिस्से में अपने क़िलों में शरण लेने में ही अपनी ख़ैरियत समझी। शाम की सीमाओं पर अब कोई चौकसी नहीं रह गई थी। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को जब ये ख़बर मिली के ईसाई ख़ौफ़़ज़दा होकर पीछे हट गये हैं। तो आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आगे बढ़ते रहे और ‘तबूक’ पहुँच कर उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने इन हालात में दुश्मन का तआक़ुब करना ज़रुरी नहीं समझा और वहीं ‘तबूक’ में ख़ैमे लगा दिये। लगभग एक महीना तक वहीं क़याम रहा और इस दौरान वहाँ के उन क़बीलों से निमटा गया जिन्होंने विरोध किया था। यहीं से आप (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने रूमी सल्तनत के अधीन आने वाले क़बीलों और शहरों के सरदारों को पैग़ाम भेजे। ‘ईला’ के सरदार ‘युहना बिन रऊबा’ जरबा और अज़रा के सरदार शामिल थे। इन को लिखा था कि या तो वो इताअत क़ूबूल करें या फिर लड़ाई के लिये तैयार हो जायें। इन सब ने इताअत क़ूबूल की। इस्लामी हुकूमत की ताबेदारी में आ गये और सुलह कर के जजिया देना क़ुबूल कर लिया। इसके बाद हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और इस्लामी फ़ौज मदीना लौट आये।