मुश्किलों का आग़ाज़
अब जबकि मुस्लामानों को खुली तबलीग़ (प्रचार ) का आदेश आ चुका था तो इन सब को आगे की मंज़िल तय करनी थी। हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अपने सभी साथियों को लेकर हरम में गए और ऐलान किया। ये बात क़ुरैश के सरदारों के लिए बड़ी नागवार थी। ये बात तो उन सरदारों की और उनके बुतों की इज़्ज़त में बड़ी गुस्ताखी थी। हरम में हंगामा बरपा हो गया। लोग इकठ्ठा हो गऐ बहस होते- होते झगडे में बदल गई। “हरिस इब्ने आबि हाला” जो हज़रत “खदीजा” रज़िअल्लाह अन्हा के बेटे थे। उन्हें जैसे ही पता चला वो दौड़ कर हुज़ूर अकरम को बचाने पहुँचे। उन्होंने बीच-बचाव करना चाहा लेकिन तलवारों के हमले से उन्हें काफ़ी ज़ख्म आये यहाँ तक की वो शहीद हो गए। इस्लाम की राह में ये पहला खून बहा था। यहीं से अरब के कुफ़्फ़ार और मुश्रिकों के अत्याचारों का सिलसिला शुरू हो गया।
अरब के ग़ैर मुस्लिम व बुत परस्त सरदारों की इस्लाम के लिए नफरत की निम्नलिखित वजहें थीं।
पहला – वो समाज को जहालत, अन्धविश्वास व रूढ़िवादिता में डूबा हुआ देखना चाहते था जब वहाँ कोई नव विचार या क्रांति आती है तो उसके खिलाफ़ सख्त प्रक्रिया देखने को मिलती है। ये प्रतिक्रिया उतनी ही सख्त और बर्बर होती चली जाती है जितना मज़बूत और सही नया सन्देश होता है। अपने बाप-दादा के धर्म को ग़लत धर्म सुनना मक्का के सरदारों को बर्दाश्त न था। अरबों के लिए तो उनके बुत ही सब कुछ थे जो उनके हर काम बनाने वाले थे।
दूसरा – पैगम्बर क़ुरैश का बनाता तो वो “ताईफ़” या “मक्का” के किसी बड़े सरदार को बनाता। अरबों में सरदारी या इज़्ज़त उसे मिलती थी जिसके पास माल और दौलत होती है और ज़्यादा औलाद हो। जबकि रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) हमेशा दौलत की धूल से पाक रहे और आपके दो बेटे जो अल्प आयु में ही इस संसार से चले गए। अतः “क़ुरैश” की नज़र में “मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) एक इज़्ज़तदार व्यक्ति थे मगर नबी बनने के लिए उपयुक्त नहीं थे। जबकि अल्लाह की नज़र में तो अच्छा किरदार और नेक फ़ितरत ही मायने रखती है।
तीसरा – अरबों की ईसाईयों से सख्त नफ़रत थी और पैगम्बर मोहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)जो बातें बता रहे थे उनमें से ज़्यादातर बातें ईसाईयों की बातों से मिलती जुलती थीं। इसके अतिरिक्त बहुत समय तक मुस्लमान बैतुल मुक़द्दस (यरूशलम ) की ओर मुँह कर के नमाज़ पढ़ा करते थे। इन्हीं सब कारणों से अरबों को लगा कि “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ईसाइयत फैलाना चाहते हैं।
चौथा – अरबों के खानदानों में आपस में मुक़ाबला रहता था। ये मुक़ाबला अक्सर इज़्ज़त और नाम के लिए होता रहता था। इनमें सबसे बड़े दो ख़ानदान “बनु हाशिम” और “बनु उमय्या” थे। इनकी आपस में बहस रहती थी। “बनु हाशिम” अतिथि सत्कार करते तो “बनु उमैय्या” उनसे ज़्यादा अतिथि सत्कार करते।”बनु उमैय्या” खून बहाते, तो हाशिम” उनसे ज़्यादा खून बहाते। “बनु उमैय्या” कोई कार्यक्रम करते तो “बनु हाशिम” उनसे बड़े कार्यक्रम का आयोजन करते। जब ये दावा किया गया कि नबूवत “बनु हाशिम” के एक व्यक्ति को मिली है तो इससे “बनु उमैय्या” और उनके साथियों का विरोध सख्त हो गया और वो “बनु हाशिम” से नाराज़ हो गए।
पांचवा – क़ुरैश में बड़ी बुराईयाँ फैली हुई थीं। बड़े-बड़े सरदार बहुत बद चलन थे। जब क़ुरआन पाक उतरना शुरू हुआ तो उसमें इन लोगों ने बुराइयाँ ढूँढी और फ़रमाने ईलाही को ग़लत कहा और इनसे बचने का हुक्म दिया गया। इस रोक-टोक के ग़ुस्से में भी अरबों को इस्लाम से नफ़रत थी।
यही नफ़रत हर दिन एक नए रुप में मुस्लमानों के सामने आती रही। जो मालदार बड़े मुस्लमान थे उनसे गाली-गलौच बदतमीज़ी की जाती। जो कमज़ोर मुस्लमान थे उन्हें बड़ी बेरहमी से पीटा जाता। अल्लाह के नबी हज़रत “मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ भी लोगों का बर्ताव बड़ा बुरा था। लोगों के दिलों में तो था कि आपको और आपके साथियों को जान से मार दें। लेकिन ये काम संभव नहीं था। वो इसलिए कि अरबों में अगर किसी ख़ानदान के किसी व्यक्ति को क़त्ल कर दिया जाता था तो वो ख़ानदान उसका बदला लेने पर उतर आता चाहे वजह जायज़ हो या नाजायज़। इसीलिए अगर अल्लाह के नबी “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को क़त्ल करते तो सीधा-सीधा “बनु हाशिम” ख़ानदान से दुश्मनी क्योंकि हर ख़ानदान के लगभग एक-दो लोग मुस्लमान हो गए थे।
इसीलिए अगर क़त्ल किया जाता तो गृहयुद्ध शुरू हो जाता। साथ ही ये बात भी नहीं भूलाई जा सकती कि अगर अरबों में झगड़ा शुरू होता था तो कई-कई पीढ़ियों तक चलता था। इसीलिए कोई किसी मुस्लमान को क़त्ल नहीं कर सकता था। फिर भी अरबों की कोशिश थी किसी तरह से भी “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) को उनका दीन फैलाने से रोक दे।
इसके परीणाम स्वरूप शहर के बड़े बड़े सरदार एकत्रित हुए और हुज़ूर अकरम के चाचा “अबू तालिब” के पास पहुँचे। सरदारों ने “अबू तालिब” को समझाया कि “मुहम्मद” मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) वो बात करना छोड़ दें यही सबके लिए बेहतर है। लेकिन “अबू तालिब” अपने भतीजे के लिए एक मज़बूत क़िला बन कर खड़े थे उन्होंने सरदारों को समझा बुझा कर वापस भेज दिया पर हर गुज़रते दिन के साथ मक्का में हालत पेचीदा होते जा रहे थे। लोगों में “मुहम्मद” मुस्तफ़ा(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) और उनके साथियों के खिलाफ़ ग़ुस्सा बढ़ता जा रहा था।
ये सारे सरदार दोबारा से “अबू तालिब” के पास आये और इस बार बात करने का अंदाज़ धमकी भरा था। सरदारों ने “अबू तालिब” से कहा “तुम्हारा भतीजा हमारे भगवानों की अवहेलना करता है। हमारे बाप-दादा को भटका हुआ कहता है। हमें बेवक़ूफ़ कहता है। इसिलए या तो तुम जाओ या फिर मैदान में आमने-सामने आओ ताकि हम इसका फैसला कर सकें।” “अबू तालिब” समझ गए थे कि इस बार सरदार मानने वाले नहीं हैं और अकेले “अबू तालिब” इन सबका मुक़ाबला नहीं कर सकते। हुज़ूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के समर्थन में जो मज़बूत शख्स थे वो अकेले बूढ़े “अबू तालिब” ही थे। “अबू तालिब” ने अपने प्रिय भतीजे की तरफ़ देखा और कहा “मेरे प्यारे भतीजे। मेरे ऊपर ऐसा बोझ न डाल जो में सह न सकूँ।” रसूलल्लाह (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की आँखें नम हो गयीं। आपने फ़रमाया “अल्लाह की क़सम ! अगर ये लोग मेरे एक हाथ पर चाँद और दूसरे पर सूरज भी रख दें तो भी मैं अपने फ़र्ज़ से पीछे नहीं हटूँगा या तो अल्लाह अपने इस काम को पूरा करेगा या मैं इस मक़सद के लिए क़ुर्बान हो जाऊँगा।” हुज़ूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की इस बात का “अबू तालिब” पर गहरा असर हुआ। भतीजे की मोहब्बत से दिल लबालब भर गया और कहा “जा! कोई शख्स तेरा बाल भी बिकां नहीं कर पायेगा।”