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Toggleहबश की ओर हिजरत
लम्बे अंतराल तक जुल्मो-सितम सहने के बाद अब वह समय आ गया था कि नबी करीम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने सहाबा को अनुमति दे दी कि जो चाहे अपनी जान और ईमान को बचाने के लिए “हबश” चला जाए।
इस अनुमति के बाद ग्यारह मर्द और चार औरतों का एक छोटा सा दल रात के सन्नाटे में “हबश” के लिए रवाना हो गया। इस छोटे से दल के सरदार हज़रत “उस्मान बिन अफ़्फ़ान” रज़िअल्लाह अन्हु थे। उनके साथ उनकी पत्नी हज़रत “रुक़ैय्या। रज़िअल्लाह अन्हा जो की नबी की बेटी भी थीं साथ थीं। अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने फ़रमाया हज़रत “इब्राहिम” अलैहिस्सलाम के बाद यह पहला जोड़ा है जिसने राहे खुदा में हिजरत की है।
इस क़ाफ़िले के बाद और भी मुस्लमान “मक्का” से “हबश” के लिए निकले। इन लोगों में नबी अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के चचेरे भाई “जाफ़र” रज़िअल्लाह अन्हु भी शामिल थे। “मक्का” के काफ़िरों को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने जाने वाले लोगों का पीछा किया। लेकिन जब तक वह बंदरगाह तक पहुँचते। कश्तियों में बैठकर रवाना हो चुके थे।
हबश का बादशाह ईसाई था। मक्का के लोग उसके पास बहुत से उपहार लेकर उपस्थित हुए। बादशाह से बड़ी विनम्रता से उन्होंने कहा कि उनके देश से कुछ लोग भाग कर यहाँ आ गए हैं , उन लोगों को वापस लौटा दिया जाये। बादशाह ने पूरे मामले की जानकारी ली और मुसलमानों को दरबार में बुलवा लिया। उस मौके पर नबी के चचेरे भाई “जाफर तेयार” रज़िअल्लाह अन्हु ने बादशाह के दरबार में यह तक़रीर की –
“ऐ बादशाह! हम अज्ञानता में पड़े हुए थे। मूर्तियों को पूजते थे। गंदगी पसंद करते थे। मुर्दा खाते थे। गलत बोल बोला करते थे। हम में इंसानियत और सच्ची मेहमान दारी का कोई नामोनिशान नहीं था। पड़ोसियों के लिए कोई इज़्ज़त नहीं थी कोई क़ायदा- क़ानून न था ऐसी हालत में अल्लाह ने हम से एक आदरणीय व्यक्ति को पसंद फ़रमाया। जिसकी सच्चाई, ईमानदारी, आदत, व्यवहार व पवित्रता से हम सब परिचित थे। उसने हमें एकेश्वरवाद का उपदेश दिया और समझाया कि एक अल्लाह के साथ किसी को शरीक न करो। उसने हमें पत्थरों की पूजा से रोका। उसने हमें सच बोलने का हुक्म दिया। वादा पूरा करना सिखाया। गुनाहों से दूर किया और रोज़ा रखना सिखाया। इन बातों को लेकर हमारी क़ौम हमसे लड़ पड़ी। हमारे लोगों ने जहाँ तक हो सका हमको सताया ताकि हम सीधी राह से हट जाऐं और एक ईश्वर की पूजा छोड़ दें। हम पर इन लोगों ने बहुत ज़ुल्म ढाये हैं। जब हम इनके ज़ुल्म से तंग आ गए तो मजबूरन आपके मुल्क आना पड़ा।”
बादशाह को हज़रत “जाफ़र” रज़िअल्लाह अन्हु की तक़रीर बहुत प्रभावी लगी। उसने कहा कि मुझे कुरआन सुनाओ। हज़रत “जाफ़र” रज़िअल्लाह अन्हु ने उसकी फ़रमाइश पर “सूरह मरियम” की तिलावत की। क़ुरआन सुनकर बादशाहा रोने लगा और कहा मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) आप ही वो रसूल हैं जिसकी ख़बर “ईसा मसीह” ने दी थी अल्लाह का शुक्र है कि मुझे उस रसूल का ज़माना देखने को मिला। इस वाक्य के बाद बादशाह ने मक्का से आए हुए काफ़िरों को अपने दरबार से निकलवा दिया।
दूसरे दिन “अम्र बिन आस” फिर से दरबार में उपस्तिथ हुआ और बादशाह से कहा आपको मालूम है यह हज़रत “ईसा मसीह” के बारे में कैसी बातें करते हैं। बादशाह ने मुस्लमानों से इस सवाल का जवाब मांगवाया। मुस्लमानों को मालूम था के बादशाह इसाई है और अगर हम हज़रत “ईसा” अलैहिस्सलाम को अल्लाह के बेटा होने का इंकार करेंगे तो वह नाराज़ हो जाएगा। लेकिन हज़रत “जाफ़र” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा कि कुछ भी हो हमको सच बोलना चाहिए।
अतः यह लोग दरबार में हाज़िर हुए। बादशाह ने कहा तुम लोग “ईसा” इब्ने मरियम के विषय में क्या विचार रखते हो हज़रत “जाफ़र” रज़िअल्लाह अन्हु ने कहा “हमारे पैगंबर मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) ने बताया है कि वो अल्लाह के बंदे और पैगंबर हैं। दरबार में मौजूद सभी इसाई गुस्से से आग बबूला हो गए। बादशाह ने ज़मीन पर से तिनका उठाया और कहा तुम्हारी बात में इस तिनके जितनी भी कमी या ज़्यादती नहीं है। तुमने जो कुछ हज़रत ईसा के बाते में कहा वो बिलकुल सत्य है। यह सुनकर पूरे दरबार में सन्नाटा छा गया और “कुरैश” की एक और चाल नाकाम हो गई।
हज़रत हमज़ा का इस्लाम
हज़रत “हमज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु हुजूर के चाचा थे उनको अपने भतीजे से बेहद मोहब्बत थी। और “हमज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु अल्लाह के नबी से दो-तीन बरस बड़े ही थे इसीलिए बचपन साथ गुजरा और आपस में भाई की तरह रहते। हज़रत “हमज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु अभी तक इस्लाम नहीं लाए थे लेकिन हुजूर अकरम(सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की हर अदा को मोहब्बत की नज़र से देखते थे।अपना समय बिताने के लिए शिकार किया करते या फौजी गतिविधियों में शामिल रहते। शाम को घर वापस आते तो पहले हरम जाते और काबे का तवाफ़ के अलग-अलग क़बीलों के सरदार बैठे होते तो उनसे सलाम दुआ भी कर लेते। कभी-कभी किसी के पास बैठ भी जाते। यूँ ही सबसे याराना था और सब लोग उनकी बहुत ज़्यादा क़द्र करते थे।
“मक्का” के लोग जिस तरह हुजूर अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के साथ पेश आते वह किसी ग़ैर से भी बर्दाश्त नहीं होता था। एक दिन “अबू जहल” ने हुजूर के साथ बहुत बदतमीज़ी की “अबू जहल” की इस हरकत को एक दासी देख रही थी हज़रत “हमजा” रज़िअल्लाह अन्हु शिकार से वापस आए तो उसने पूरा मामला उन्हें बताया। सुनकर हज़रत “हमज़ा”रज़िअल्लाह अन्हु गुस्से से आग बबूला हो उठे। तीर कमान हाथ में लिए और हरम पहुँचे। उधर “अबू जहल” और मक्का के तमाम बड़े सरदार मौजूद थे। हज़रत “हमज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु ने भरी महफिल में “अबू जहल” के मुँह पर कमान दे मारी। और ऐलान कर दिया कि मैं भी अब से मुहम्मद मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के दीन पर हूँ। हज़रत “हमज़ा” रज़िअल्लाह अन्हु का मुस्लमान हो जाना “मक्का” के काफ़िरों के लिए बहुत बड़ा नुक़सान साबित हुआ।